Friday, 25 December 2020

उपेक्षित बचपन

सुबह के साढ़े आठ बजे रहे हैं। सूरज अभी भी कोहरे की चादर के पीछे छिपा है। रिंग रोड से कश्मीरी गेट बस अड्डे की तरफ़ आते हुए कोहरा और घना हो गया है। कोहरा उड़ते हुए भाग रहा है। कार की सीट बर्फ की भांति ठंडी है। मैंने ड्राइवर से थोड़ी देर हीटर चलाने को कहा जिससे कार में कुछ गर्मी आये। यमुना का पुराना पुल पूरी तरह से कोहरे से ढका है।  रात किसी ट्रक ने डिवाडर पर गाड़ी चढ़ा दी थी। सड़क पर बोरियां बिखरी पड़ी हैं। यातायात धीरे धीरे निकल रहा है। राजघाट की लाल बत्ती पर कार रुकी है। एक लड़की कोई आठ दस वर्ष की, कमर पर चुन्नी बाँधे, एक छोटे से लोहे के रिंग से निकल अपना करतब दिखा रही है। गर्म कपड़ों के नाम पर एक पतला सा स्वेटर पहने है। पैरों में हवाई चप्पल हैं। मैं उसे ध्यान से देखता हूँ। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं है। न प्रसन्ता का न ही विषाद का। दो चार करतब दिखा वह कारों के बंद शीशे खटखटाती है। माँगते हुए उसके चेहरे पर दया या लाचारी नहीं है। मानो अपनी मेहनत का पुरस्कार चाहती हो। अब वो मेरी कार की तरफ़ आती है। पहले ड्राइवर का शीशा बजाती है । फिर उसी तरफ से पीछे की सीट का शीशा ठोकती है। मैं बाईं ओर बैठा हूँ। मैं उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा हूँ। चाहता हूँ कि इसे कुछ दे दूं। पर पर्स आगे ब्रीफ केस में पड़ा है। बत्ती हरी हो चुकी है। कार ने सरकना शुरू कर दिया है और गति पकड़ ली है। वह पीछे छूट गई है। फिर बत्ती के लाल होने के इंतज़ार में सड़क किनारे खड़ी हो गई है। दिल्ली के चौराहों पर दिन भर ऐसे ही कितने बच्चे आपको दिख जाएंगे। इनकी इस दुर्दशा का ज़िम्मेदार कौन है? वो माता पिता जिन्होंने इन्हें पैदा कर सड़कों पर छोड़ दिया। या फिर वो सरकार जो इनके प्रति पूर्णतया उदासीन है। या हम सब जो इन्हें देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।

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