Thursday, 1 July 2021

कदमों के नये निशां

सुबह ऑफिस जाते समय कुछ यातायात अवरुद्ध था। अतः ड्राइवर ने कार मंडी हाउस की तरफ़ से ले ली। आगे बराखम्भा रोड और बंगाली मार्किट पर भी यातायात नहीं जाने दिया जा रहा था अतः हम  कोपरनिकस मार्ग  पर आ गए। हम अपने कार्यालय से विपरीत दिशा में जा रहे थे। हमारे बाईं ओर कर्मचारियों का एक रेला चला जा रहा था। हाथ में ब्रीफकेस, टिफिन या बैग पकड़े हुए। मैं वर्षों पीछे चला जाता हूँ।

कभी मैं भी इस रेले का हिस्सा हुआ करता  था। इस सड़क को सुबह शाम मैंने हज़ारो बार नापा होगा। सुबह किशनगंज से रोहतक या भिवानी शटल पकड़ना, पीछे पीछे के डिब्बे में चढ़ना और सदर बाजार, नई दिल्ली व मिंटो ब्रिज होते हुए तिलक ब्रिज पर उतरना। यहॉं से शुरू होता था रोज़ बड़ौदा हाउस का पैदल सफ़र। तपती गर्मी हो या कड़कड़ाती सर्दी, मूसलाधार वर्षा हो या आंधी, सुबह शाम की ये दौड़ बदस्तूर जारी रही। दिनों दिन, सालों साल। 

रेल की पटरियों से नीचे आते ही संपन्न लोगों की कोठियों की कतार शुरू होती थी। किसी जमाने में यहाँ आ बसे इन लोगों को इस इलाके की सम्पतियों के बढ़ते भावों ने सम्पन्नता के उच्च शिखर पर ला दिया। सफ़दर हाशमी मार्ग पर कुछ आगे श्री राम सेंटर फॉर आर्ट है जहाँ शाम को वापस लौटते हुए कारों की कतारें मिलती थी। रंगमंच प्रेमियों के लिए ये मिलने का एक अड्डा भी था। उन दिनों कई कलाकार खादी का कुर्ता पायजामा पहने कंधे पर झोला लटकाये, चाय की चुस्कियाँ लेते या सिगरेट का धुआं उड़ाते यहाँ दिख जाया करते थे। गर्मियों की शामों में यहां बाहर ही महफिलें सज़ा करती थी। कुछ आगे दायीं और हिमाचल भवन है। उसे पार कर मंडी हाऊस के गोल चक्कर से कोपरनिकस मार्ग पर हम चल पड़ते थे। कदमों की चाल तेज़ रखनी पड़ती थी ताकि समय पर उपस्थिति दर्ज हो जाये। ललित कला अकादमी, दूरदर्शन भवन, कमानी ऑडिटोरियम, औऱ पंजाब भवन जैसी इमारतों को पार करते न करते हम बड़ौदा हाऊस आ पहुँचते थे। यह रास्ता कब कट जाता हमें पता ही नहीं चलता। 

दोनों ओर लगे पेड़ो की कतारों की छाया में हम रोज सुबह शाम ये सफ़र तय करते थे जो आज भी जारी है। बस लोग बदल गए हैं। वही सड़क है, वही इमारतें और वही दरख़्त। बदले हैं तो बस चलने वाले। लोग आते रहेंगे जाते रहेंगे पर कोपरनिकस मार्ग वहीं रहेगा। गुलमोहर के पेड़ों पर लाल फूलों से वैसी ही आग लगती रहेगी। बारिश में पेड़ो पर ठहरा पानी हवा के झोंको से वैसे ही टपकता रहेगा। सीले मौसम में भुनते भुट्टों की महक वैसी ही रहेगी। सर्दीयों की कुनकुनी धूप पेड़ों से छन कर वैसे ही आती रहेगी। बस लोग बदलते रहेंगे। जहाँ कल हम थे वहाँ आज कोई और है, कल कोई और आयेगा। हमारे कदमों के निशान अब मिट चुके हैं। आज पड़ने वाले निशान भी कल धूमिल हो जायेंगे। आज किसे फुर्सत है कि जाने कि कल कौन आया था इस रास्ते पर!

इसी सच्चाई को साहिर लुधियानवी ने कितनी खूबसूरती से नग़मे में पिरोया है:
 
कल और आएंगे नग़मों की
खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले
कल कोई मुझको याद करे
क्यूँ कोई मुझको याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिये
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं पल दो पल का शायर हूँ ...

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