Sunday, 29 December 2019

रिकार्ड तोड़ सर्दी

दिल्ली में  रिकॉर्ड तोड़ ठंड पड़ रही है। ऐसे में सबसे मुश्किल काम है सुबह के दैनिक कार्य से निवृत  होना और नहाना। टॉयलेट की सीट भी इतनी ठंडी होती है कि उस पर बैठते ही 440 वोल्ट का झटका लगता है। और यदि आप से पहले कोई नहा कर उसे गीला कर गया हो तो ये झटका 1000 वोल्ट का हो जाता है। गीज़र का पानी भी क्या करे ! जब तक ठंडा पानी मिले और वो नहाने लायक तापमान पर आए तब तक तो शॉवर से ठंडा पानी आना शुरू हो लेता है।

 एक मित्र बता रहे थे कि यदि ठंडा पानी कोई सीधा सिर पर डाल लें तो स्वर्ग जाने का नम्बर लग सकता है। तो दूसरे ने कहा कि टॉयलेट के जेट के पानी से इतना करंट लगता है कि उससे भी व्यक्ति स्वर्ग सिधार सकता है। अब समझ आ रहा है ये अंग्रेज़ पानी की जगह पेपर का प्रयोग क्यों करते हैं! अब तो लगता है जापान की तरह यहाँ भी टॉयलेट और गीज़र के पानी का तापमान अपनी सुविधानुसार रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। 

यदि आप गर्म खाने के शौकीन हैं तो इन दिनों एक ही तरीका है कि आप गैस पर तवा रख कर उस पर बैठे और खाना खाएं। वर्ना गैस से उतर कर आप की थाली तक आते आते खाना तो गर्म रह ही नहीं सकता।

अभी तो कहा जा रहा है ठंड और कहर बरपा करेगी। दारू के शौकीन तो फिर भी झेल लेंगें, लौंग खा कर सर्दी भगाने वाले मुझ जैसे पंडित क्या करेंगे? 

इसी पर याद आया कि बहुत वर्ष पहले हम तीन मित्र मसूरी में थे। बर्फ इतनी पड़ी थी कि पूरी घाटी देहरादून से कट गई थी। जिस होटल में हम ठहरे थे वहाँ न अलाव था न कोई हीटर ही। बिस्तर इतना ठंडा कि मानो बर्फ की सिल्ली पर सो रहे हों। ज्यादातर कमरे खाली थे। जब ठंड के मारे दाँत बजने लगे तो मेरे दो साथियों ने पेग लगा लिया। मैंने दो लौंग चबा लीं पर उनसे क्या होना था। मैंने रूम सर्विस को कॉल किया तो एक गोरखा सा दिखने वाला व्यक्ति आया। मैनें बड़ी आशा से कहा कि बिस्तर बहुत ठंडा है कोई हीटर-वीटर की व्यवस्था हो सकती है क्या? उसने मेरी और अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा। मैंने समझा शायद पैसे चाहता है। मैंने कहा मैं रात भर के किराए के हिसाब से पैसे अलग से दूंगा। वो बोला वो तो ठीक है शाब पर ऑफ सीज़न है न। सब नीचे चली गईं हैं। वरना मैं जरूर  कोई न कोई इंतजाम कर देता। जब तक मुझे समझ में आया, वो जा चुका था और मेरे दारू मित्र मुझ पर हँस रहे थे।

अभी तो दिल्ली शिमला से भी ठंडा हो रहा है। मेरे एक मित्र हैं जो 118 वर्ष की रिकॉर्ड तोड़ ठंड में निरुद्देश्य दिल्ली की सड़कों पर घूमने निकल पड़े। वैसे स्वभाव से वो घुमक्कड़ी ही हैं। पर उनकी हिम्मत की मैं दाद देता हूँ। उन्होंने फेस बुक पर अपनी तस्वीरें पोस्ट करी थीं। 

अपनी तो सुबह शाम की टहल इस सर्दी की भेंट चढ़ चुकी है। मैं तो फिर कम्बल छोड़ दूं पर ये कमबख़्त कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ रहा है। अब तो लिखते लिखते उँगली भी जम रही है। चलिए अलविदा। अपना ख्याल रखें इस सर्दी में। 

Wednesday, 25 December 2019

अनत कँहा सुख पावे।

वैसे तो मैं धर्म पर लिखने से परहेज़ करता हूँ। कारण कि मैं अपने को इसका अधिकारी नहीं मानता। धर्म जैसे गूढ़ विषय पर मैं निपट अज्ञानी हूं। दूसरे, धर्म जैसे विषय पर आपके विचार, वैमनस्य का कारण हो सकते हैं। पर आज सुबह से मुझे मेरे मित्रों से क्रिसमस की शुभकामनाओं के इतने संदेश मिल रहे हैं कि मुझे लगने लगा कि कँही रातों रात मेरा धर्म तो परिवर्तित नहीं हो गया! एक समय था जब मैं भी कुछ ऐसा ही था।

बात उन दिनों की है जब मैं  किशोरावस्था और यौवन की  वय:संधि पर था। परिपक्वता किसे कहते हैं कँहा जानता था! बस लीक से हट कर चलने की ठान रखी थी। जो सब करते हैं उससे अलग कुछ करना था। क्या करना था पता नहीं था। बस कुछ अलग सा करना था । मन उद्वेलित रहता था। कल्पनाओं के पंख उग आए थे और आशाओं का अंनत आकाश खुला था उड़ान के लिए। 

ऐसे ही किसी दिन मेरा परिचय इसाई धर्म से हुआ। कैसे हुआ, किसने कराया, याद नहीं। बस इतना याद है कि एक छोटी सी पुस्तक हाथ आई थी ईशु मसीह पर , जिसमें कुछ कहानियां थी। मैं कैसे इसका सदस्य बना, ये भी याद नहीं। बस कुछ साहित्य मुफ़्त में डाक से मिलने लगा। माँ को पता लगा तो उन्होंने मुझे समझाने का प्रयास किया पर बेकार। मुझे तो कुछ अलग सा करना था। सभी धर्म अच्छे हैं और सभी को अपनाया जाना चाहिए ऐसा मेरा मानना था। ये साहित्य बढ़ता चला गया और मैं इसमें आगे चलता गया। इसके चलते एक दो बार चर्च भी गया। कभी ये जानने की आवश्यकता नहीं हुई कि आखिर कौन इस साहित्य को उपलब्ध करवा रहा है। इसके लिए पैसा कँहा से आ रहा है। ये सब प्रश्न निर्रथक थे उस समय।

इसी बीच मैं गीता प्रेस गोरखपुर के संपर्क में आया। सनातन धर्म से मेरा परिचय तभी  हुआ। जैसे जैसे परिपक्वता आती गई मुझे अपने धर्म के बारे में और ज़्यादा जानने की उत्सुकता बढ़ती गई। मेरा जन्म हिन्दू धर्म के ब्राह्मण परिवार में ही क्यों हुआ ? मैं कँही किसी और धर्म को मानने वाले परिवार में भी तो जन्म ले सकता था। मैं किसी अन्य देश जैसे सुदूर अफ़्रीकी देश में भी पैदा हो सकता था। मैं मनुष्य ही क्यों बना? किसी और योनि में भी तो जा सकता था। क्या ये मात्र संयोग था या उस सृष्टि कर्ता का किसी  सोची  समझी योजना के तहत ऐसा हुआ था ? मैं ये सोचने पर विवश था। 

फिर ऐसे ही किसी एक दिन मुझे "गीता" मिली। बिना समझे मैंने उसका हिंदी अनुवाद पढ़ना शुरू किया। यधपि मेरी माँ मेरे गीता पढ़ने से सहमत नहीं थीं। उन्हें लगता था कि मैं कँही संन्यासी न हो जाऊं। पर मैंने पढ़ना जारी रखा। फ़िर एक दिन एक श्लोक पढ़ने में आया। 

"प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।"

अर्थात , योगभ्रष्ट मनुष्य, पुण्य कर्म करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं उन्हें प्राप्त करके और उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र और धन सम्पन्न व्यक्तियों के घर में जन्म ग्रहण करता है।

मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल गया था। जैसे जैसे मैं सनातन धर्म को जानता गया मुझे लगने लगा कि मैं अपने ही धर्म के बारे में कितना अज्ञानी हूँ। इसे जानने के लिए तो कई जन्म कम पड़ जाएंगे और मैं किसी ओर धर्म को जानने में समय नष्ट कर रहा हूँ ! मुझे स्वयं से वितृष्णा सी हो आई। सूरदास जी की पंक्तियां "परम् गंग को छाड़ि पियासों, दुर्मति कूप खनावै " वाली बात सार्थक हो उठी। पास ही निर्मल पवित्र गंगा बह रही थी  और मैंं प्यास बुझाने को कुुुँँआ खोद रहा था। क्या कर रहा था मैं ?

ये ठीक है कि कोई भी धर्म बुरा नहीं है। हो सकता ही नहीं। पर जो जिस धर्म में स्थित है, उसके लिए वो अपना स्वयं का धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। कहते हैं - "धर्मो रक्षति रक्षितः" अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा । स्वयं के धर्म में स्थिर रहना ही धर्म की रक्षा है। गीता भी कहती है -  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।  अर्थात अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।  और सनातन धर्म तो एक ऐसा धर्म है जो अन्य सभी धर्मों को आत्मसात करने की क्षमता रखता है।   
इसे छोड़ कँही अन्यत्र भटकना तो "सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावे" वाली बात होगी। 

यदि कोई ये कहता है कि वह सभी धर्मों का आदर करता है तो वह महान है। पर यदि कोई ये कहता है कि वह सभी धर्मों को मानता है, तो मेरा मानना है कि वह किसी भी धर्म को नहीं मानता। वह कोरा नास्तिक ही है। 

उपरोक्त विचार मेरे अपने विचार हैं और कोई भी इन्हें मानने को बाध्य नहीं है। इन विचारों से किसी की भावनाएं यदि आहत हुई हों, तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

Thursday, 19 December 2019

कारों की गुफ्तगू

सर्दी के मारे सुबह शाम का टहलना कई दिनों से बंद था। आज रात्रि का भोजन कर सोचा कुछ चहल कदमी कर ली जाए। कनटोप लगा गर्म शॉल से लिपटा हाथों को बगल में दबाए,  मैं बाहर निकल आया। 

बाहर आते ही सर्द झोंके ने खुल कर स्वागत किया। गोया पूंछ रहा हो, "मियां, बड़े दिन बाद दिखे।" मैंने कनटोप नीचे किया औऱ आगे बढ़ गया। पैरों में बिना मोजों के चप्पल थी। ठंड पैरों से होती ऊपर चढ़ रही थी। मैंने भी ठान लिया अब निकल ही आया हूं तो बीस- पच्चीस मिन्ट तो घूमूँगा ही। 

सर्दी से ध्यान हटाने के लिए मैंने आसपास देखना शुरू किया। बड़े बड़े गमलों में ऊँचे ऊँचे पौधे लगे थे। नीचे जो पत्ते थे वो ऊपर के पत्तो से ढके थे। मैंने सोचा कि ऊपर वाले पत्तो को ज्यादा सर्दी लग रही होगी। जो नीचे हैं, उनकी छत्र छाया में हैं वो मजे में है। तभी गमले में लगी लाल फूलो की घास पर नज़र पड़ी। ये ढेरो कलियों से लदी थी जो सुबह होते होते निश्चित रूप से लाल चटक फूलों में बदलने वाली थीं। ये तो और भी सुरक्षित है सर्दी से। इसका मतलब जो जितना नीचे है वो उतना सुरक्षित है । जिसके ऊपर जितने ज़्यादा बड़े हैं वो उतना ही सुरक्षित है।  

आगे नीम के दो बृहद वृक्ष खड़े थे । दोनों वैसे तो काफ़ी दूरी पर थे पर उनकी टहनियां इतनी बढ गई थी कि एक दूसरे से आ मिली थीं। मुझे लगा सर्दी की वजह से एक दूसरे से लिपट कर सो रही हैं। पास के पेड़ के झुरमुट में एक छोटी काली चमकदार चञ्चल चिड़िया का बसेरा है। मैंने पास जा कर झांक के उसे देखना चाहा पर अँधेरे में मुझे वो नज़र नहीं आई। मुझे मालूम है कि वो इसी झुरमुट में सोई है। उसकी नींद में बाधा पहुँचाने की मेरी कतई मंशा नही थी। मैंने कंधों से सरकते शॉल को संभाला और आगे चल दिया। 

आज पीपल के पेड़ के नीचे गणेश लक्ष्मी बिना दिए और अगरबत्ती के थे। वरन और दिन तो दिए के प्रकाश से इन्हें गर्मी मिलती थी।  कार पार्किंग में शेड के नीचे खड़ी कारों को देख कर मुझे अच्छा लगा। चलो ये तो रात में गिरने वाली ओस से बची। 

कुछ ही दूरी पर दो सफेद कारें जिनमें से एक  पर "भारत सरकार" लिखा था खुले में दीवार की ओट लिए खड़ी थीं। दोनों के मुंह एक दूसरे की और थे। धीरे धीरे कुछ बतिया रही थीं। मैं ठिठक गया। सुनु तो सही क्या बाते हो रही हैं।

"और सुना सखी, आज का दिन कैसा बीता?" पहली ने कहा।

"न ही पूंछो तो अच्छा है।" दूसरी का मुँह बिसरा हुआ था 

"क्यों। क्या हुआ?"

"अब क्या बताऊँ। आज तो पूरी दिल्ली में मानो आग लगी थी। पता नहीं क्या मामला था। जँहा देखो, पुलिस ही पुलिस। लोगों के हुजूम ही हुज़ूम। जगह जगह बेरिकेडिंग।"

"अरे सखी, तुझे नही पता? ये कोई 'नागरिकता बिल' लाई है सरकार। इसी का विरोध हो रहा है।"

"ये मुआ क्या है?"

"ये तो मुझे भी नहीं पता। वो तो साहब बात कर रहे थे तो मैंने सुन लिया। पर तुझे क्या दिक्क़त हुई? तुझ पर तो "भारत सरकार" लिखा है।"

"वो ही तो साहब  कह रहे थे पुलिस वालों से। पर वो कँहा किसी की सुनते हैं। सारी गाड़िया चैक कर रहे थे। और तू सुना। तू कँहा कँहा हो आई आज?"

"अरी सखी! मैं तो 'गुरुग्राम' गई थी।"

"ये मरी कौनसी जगह है?"

"अरे वही जो 'गुडगांव' हुआ करता था। अब इनका नाम बदल के 'गुरुग्राम' कर दिया है।"

"मैंने भी सुना है। साहब  एक दिन किसीसे कह रहे थे जब से ये सरकार आई है कई जगहों के नाम बदल दिये गए हैं।"

"सुन सखी, मेरा भी नाम 'डिज़ायर' से 'बी एम डब्ल्यू' हो जाये तो कितना अच्छा हो न। अरे हाँ, तू वो 'गुरुग्राम' के बारे में बता रही थी।"

"अरे वँहा का हाल न पूंछ। कोई चार किलोमीटर लंबा जाम लगा था टोल पर। एक तो बेरिकेडिंग दूसरे ये 'फ़ास्ट टैग'। सारा दिन वंही लग गया आज तो। बहुत थक गई हूँ। ऊपर से ये कमबख्त सर्दी। ये ड्राईवर हमें शेड में क्यों नहीं पार्क करता?"

"शेड में जगह हो तो वँहा पार्क करे न। हमारी किस्मत में तो रात भर ओस में भीगना लिखा है। मिश्रा जी की गाड़ी देखो। शेड में रहती है और मोटे कवर से भी ढकी रहती है। क्या मजाल की सर्दी छू भी जाये।"

"शी, शी, शी। जरा धीरे बोल। ये मरदुआ काफ़ी देर से खड़ा हमारी बातें सुन रहा है।"

"अरे! ये मर्द होते ही ऐसे हैं। औरतों की बातें सुनने को इनके कान लगे ही रहते हैं। "

"और देखने को दीदे! देख तो सही कैसे टेढ़ी टेढ़ी नज़रो से देख रहा है।"

मैंने तो वँहा से खिसकने में ही भलाई समझी। तेज़ तेज़ कदम चलता हुआ मैं अंदर आ गया।

Tuesday, 17 December 2019

अपने ही देश में शरणार्थी

कल विगत 16 वर्षों में सबसे ठंडा दिन था। ऐसा आज का अख़बार लिखता है। जरूर रहा होगा। इतनी सर्दी दिसंबर के माह में मैंने दिल्ली में विगत कई वर्षों से नहीं महसूस की। अपनी कार में चलते हुए यमुना बाज़ार के ऊपरगामी सेतु से निकलते हुए मेरी दृष्टि बरबस उन पर चली जाती है जो खुले आसमान के नीचे इस हाड़ कंपाने वाली सर्दी में एक जर्जर हो चुके कम्बल में फुटपाथ पर गठरी बने पड़े हैं। पूरी दिल्ली में ऐसे कितने ही बेघर हैं जो सर्दी और बरसात में रोज़ जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ते हैं। सरकार के उपलब्ध कराए गए रैन बसेरे कम हैं और ऐसे बेघरों की संख्या अधिक है। कितने लोगो को आसरा मिल सकता है! थोड़ा आगे इसी सड़क पर "मजनू का टीला" है। वंही एक झुग्गी बस्ती है जिसमें वर्षो से पाकिस्तान से विस्थापित शरणार्थी रहते हैं। मिट्टी और फूस से बनी चार दीवारी जिस के ऊपर फूस की छत है, पीछे बहती यमुना से कोई 50 मीटर दूर होगी। कई झुग्गियों की तो एक तरफ़ दीवार भी नहीं है। पास बहते नाले की बदबू और मच्छरों के आतंक और उस पर यमुना की सर्द हवा। कैसे कटेगी रात? वर्षो से ये विस्थापित हिन्दू परिवार अपने ही देश में शरणार्थी होने का दंश झेल रहे हैं। पर आज इनके चहरे पर खुशी है। इन्हें लगने लगा है कि जल्द ही इन्हें इस देश की नागरिकता मिलेगी। नागरिक होने के नाते सभी बुनियादी सुविधाओं के अब वो भी अधिकारी हो जाएंगे। उनके बच्चों को वो पीड़ा नहीं झेलनी होगी जो उन्होंने जीवन पर्यन्त झेली है। इन सब में कितना समय लगेगा, पता नहीं। पर आशा बंधी है। पर उन्हें जो इन सब का विरोध कर रहे हैं, इनकी आशाओं से क्या लेना देना?  उनका तो उद्देश्य है विरोध करने के लिए विरोध करना। क्या कोई एक भी कारण बताएगा इस विरोध का! 

Thursday, 5 December 2019

पत्नी की छुट्टी

इन दिनों पत्नी बेटी के पास गई हुई है। वो कैसे लोग होते हैं जो पत्नी के मायके जाने पर स्वतन्त्रता दिवस मनाते हैं ! मैं तो इन दिनों जो भुगत रहा हूँ, मैं ही जानता हूँ। ऐसी ही एक सुबह की झलक आप की नज़र है। खुश हो जाइए कि आपकी श्रीमती जी घर पर हैं।

अल्ल सुबह अलार्म ने मीठी नींद से जगा दिया। एक तकिया सिरहाने लगा और दूसरा बगल में दबा मैं फिर कम्बल में और अंदर घुस गया। पाँच मिनट और । बस, अभी उठता हूँ।

ये कौन सुबह सुबह दरवाज़े की घण्टी बजा रहा है। अभी तो कामवाली के आने का भी समय नहीं हुआ। कम्बल से मुँह निकाल उनींदी आंखों से घड़ी पर नज़र डाली। अरे ! पौने सात ! अभी तो साढ़े पाँच का अलार्म बजा था। पांच मिनट ही तो बीते होंगें। आंखे फाड़ कर फिर से घड़ी पर नज़र डाली। तभी दरवाज़े की घण्टी फिर बज उठी - डिंग डांग। डिंग डांग। जरूर कामवाली ही होगी। उसी का समय हो रहा है। "आता हूँ।" ,कह कर कम्बल फेंक के उठ खड़ा हुआ। कँही लौट ही न जाए, नहीं तो बर्तन भी मुझे ही रगड़ने पड़ेंगे।  जमीन पर पाँव रखे तो लगा बर्फ की सिल्ली पर पैर पड़ गया हो। ये कमबख्त चप्पलें कँहा चली गईं। एक तो वंही मिल गई पर दूसरी नदारद थी। शायद पलँग के नीचे चली गई थी। डिंग डांग - घन्टी फिर बजी। "इस को भी सब्र नहीं है।" बड़बड़ाता सा नंगे पैर ही दौड़ा दरवाज़ा खोलने।

पहले चप्पलें ढूंढ लूं। झाड़ू ला कर पलँग के नीचे मारी तो चप्पल और अंदर चली गई। बड़ी मशक्कत के बाद बाहर निकाल पाया। पर्दा हटा कर देखा तो पूर्व में लालिमा थी। चलो कम से कम  आज तो धूप खिलेगी। जरा बाहर का मौसम का मिज़ाज़ तो लें। दरवाज़ा खोलते ही ठंडी हवा के झोंके ने पूरी नींद खोल दी। वैसे मैं अभी भी एक घन्टा और सो सकता था। चाय की इच्छा बलवती हो उठी थी। पर बनाओगे तभी तो पियोगे। इस घड़ी का क्या करूँ। ये तो बहुत जल्दी में है। बाबा रामदेव का दन्त कांति ब्रश पर लगा , ब्रश करता मैं बॉलकनी में आ गया। चिर परिचित कट्टो गिलहरी बचे खुचे बाजरे के दाने कुतर रही थी। जैसे ही मुझे देखा कूद कर आम के पेड़ पर जा चढ़ी। मैंने झरने में पानी भरा और पौधों में देने लगा। आम के पेड़ की सबसे ऊपर की फुनगी पर रशिम प्रभा आ कर टँग गई थी। मैना का जोड़ा पास हो फुदक रहा था। नर गोल गोल घूम कर मादा को रिझाने में व्यस्त था। प्रकृति को जागे तो दो घन्टे बीत गए थे। पर मुझे ये सब देखने का कँहा अवकाश ? बर्तन मंज चुके थे। किचन मेरी प्रतीक्षा में थी। गैस जला कर मैंने चाय का पानी चढ़ा दिया। अदरक कूट के डाली और दूध, पत्ती डाल कर चाय तैयार करी। सुबह की ठंड में चाय के प्याले से उठता धुंआ ही गर्मी दे जाता है। जब से इस नामुराद मधुमेह ने पकड़ा है, चाय में चीनी तो बंद है। और आप कितनी ही अदरक, इलायची, लौंग चाय में डाल लें, बिना चीनी के वो सब बेकार हैं। 

चाय खत्म कर जल्दी जल्दी दाढ़ी बनाई। दाढ़ी के लिए गर्म पानी लेते समय याद आया कि गीज़र तो चलाया ही नहीं। अब पता नहीं नहाते वक्त भी गर्म पानी मिलेगा या नहीं! जैसे तैसे बर्फ से ठंडे पानी से ही दाढ़ी बनाई या कहना चाहिए, खुर्ची ! न भी खुरचते तो चलता पर जब से दाढ़ी सफ़ेद हुई है, एक दिन बाद ही चमकने लगती है। इसलिए अगर बीमार सा नहीं लगना हो तो इसे खुरचना लाज़मी है। 

नहाने के लिए शावर खोल कर एक मिनट तो गर्म पानी आने की प्रतीक्षा की पर गीज़र में पानी गर्म हो तो आये न। फिर ठंडे पानी के नीचे ही घुस गया। ठंड में ठंडे पानी से नहाने का एक लाभ तो है और वो ये कि भजन अपने आप होने लगता है ! अब तक कामवाली अपना काम खत्म कर जा चुकी थी। जाते जाते दरवाज़े पर पड़ा अख़बार उठा कर मेज़ पर रख गई थी। जिस अख़बार का इंतज़ार मैं हर सुबह बेसब्री से करता था, इन दिनों उसे उठाने की भी फुर्सत नहीं है। पढ़ना तो छोड़िए।

धोती बनियान डाल में किचन में आ गया। अभी बहुत काम बाकी है, आठ बजने को आये। फ्रिज में से रात की सब्ज़ी निकाली और गर्म होने रख दी। वो मैं जो सुबह की सब्ज़ी शाम को नहीं खाता था अब रात की बनाई सब्ज़ी सुबह ऑफिस ले जाता हूँ। दूध की थैली फ्रिज में रखी थी जिससे टोंड दूध डबल टोंड बन गया था। जो भी क्रीम थी सब थैली में ही चिपक के रह गई। जब तक दूध उबालता, सब्ज़ी जल गई। 
 
डिंग डांग। घन्टी फिर बज उठी। गैस सिम पर कर दरवाज़े पर आया। ड्राइवर था। उसे कार की चाबी पकड़ा, फिर किचन में आया। दूध की गैस बंद की। सब्ज़ी उतार कर टिफिन में डाली। अच्छा भला माइक्रोवेव था। फेंक दिया कि इस्तेमाल तो होता नहीं है। क्योंकि हम सुबह की शाम और शाम की सुबह बची सब्ज़ी डस्ट बिन के हवाले कर दिया करते थे। गर्म करने की ज़रूरत ही नहीं थी। ताज़ा बनाओ, ताज़ा खाओ। पर इन दिनों तो शाम बनाओ, सुबह उसीसे गुज़ारा चलाओ वाला नियम जारी था। 

फुल्के बनाने का तो सवाल ही नहीं था। ऑफिस कैंटीन से मंगा लेंगे। जैसे तैसे आधा अधूरा टिफ़िन पैक किया। एक दो फल साथ में रखे। कुछ ड्राई फ्रूट्स डाले। और तैयार होते न होते आठ पचीस  हो लिए। दो ब्रेड पीस दूध के साथ निगलते निगलते घड़ी की सुइयां साढ़े आठ बजा चुकी थी। ये घड़ी इन दिनों कुछ तेज़ मालूम होती है। ताला लगा ही रहा था कि धोबी आ गया। 
"कितना हुआ?" ताले में चाबी घुमाते घुमाते पूछा। 
"पचास रुपए।" उसने कहा
"तुमसे कहा है, थोड़ा जल्दी आया करो।" पर्स से पचास का नोट देते हुए मैंने कहा। 
"और ये कपड़े गार्ड को दे जाओ। मैं शाम को ले लूंगा।" मेरे स्वर में झल्लाहट थी।
आठ पैंतीस पर कार कॉलोनी के गेट से निकली। पच्चीस मिनट में मुझे ऑफिस पहुंचना था। 

एक और दिन शुरू हो रहा था, पत्नी के बिना। बहुत मुश्किल है रे बाबा!