Tuesday, 17 December 2019

अपने ही देश में शरणार्थी

कल विगत 16 वर्षों में सबसे ठंडा दिन था। ऐसा आज का अख़बार लिखता है। जरूर रहा होगा। इतनी सर्दी दिसंबर के माह में मैंने दिल्ली में विगत कई वर्षों से नहीं महसूस की। अपनी कार में चलते हुए यमुना बाज़ार के ऊपरगामी सेतु से निकलते हुए मेरी दृष्टि बरबस उन पर चली जाती है जो खुले आसमान के नीचे इस हाड़ कंपाने वाली सर्दी में एक जर्जर हो चुके कम्बल में फुटपाथ पर गठरी बने पड़े हैं। पूरी दिल्ली में ऐसे कितने ही बेघर हैं जो सर्दी और बरसात में रोज़ जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ते हैं। सरकार के उपलब्ध कराए गए रैन बसेरे कम हैं और ऐसे बेघरों की संख्या अधिक है। कितने लोगो को आसरा मिल सकता है! थोड़ा आगे इसी सड़क पर "मजनू का टीला" है। वंही एक झुग्गी बस्ती है जिसमें वर्षो से पाकिस्तान से विस्थापित शरणार्थी रहते हैं। मिट्टी और फूस से बनी चार दीवारी जिस के ऊपर फूस की छत है, पीछे बहती यमुना से कोई 50 मीटर दूर होगी। कई झुग्गियों की तो एक तरफ़ दीवार भी नहीं है। पास बहते नाले की बदबू और मच्छरों के आतंक और उस पर यमुना की सर्द हवा। कैसे कटेगी रात? वर्षो से ये विस्थापित हिन्दू परिवार अपने ही देश में शरणार्थी होने का दंश झेल रहे हैं। पर आज इनके चहरे पर खुशी है। इन्हें लगने लगा है कि जल्द ही इन्हें इस देश की नागरिकता मिलेगी। नागरिक होने के नाते सभी बुनियादी सुविधाओं के अब वो भी अधिकारी हो जाएंगे। उनके बच्चों को वो पीड़ा नहीं झेलनी होगी जो उन्होंने जीवन पर्यन्त झेली है। इन सब में कितना समय लगेगा, पता नहीं। पर आशा बंधी है। पर उन्हें जो इन सब का विरोध कर रहे हैं, इनकी आशाओं से क्या लेना देना?  उनका तो उद्देश्य है विरोध करने के लिए विरोध करना। क्या कोई एक भी कारण बताएगा इस विरोध का! 

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