Thursday, 19 December 2019

कारों की गुफ्तगू

सर्दी के मारे सुबह शाम का टहलना कई दिनों से बंद था। आज रात्रि का भोजन कर सोचा कुछ चहल कदमी कर ली जाए। कनटोप लगा गर्म शॉल से लिपटा हाथों को बगल में दबाए,  मैं बाहर निकल आया। 

बाहर आते ही सर्द झोंके ने खुल कर स्वागत किया। गोया पूंछ रहा हो, "मियां, बड़े दिन बाद दिखे।" मैंने कनटोप नीचे किया औऱ आगे बढ़ गया। पैरों में बिना मोजों के चप्पल थी। ठंड पैरों से होती ऊपर चढ़ रही थी। मैंने भी ठान लिया अब निकल ही आया हूं तो बीस- पच्चीस मिन्ट तो घूमूँगा ही। 

सर्दी से ध्यान हटाने के लिए मैंने आसपास देखना शुरू किया। बड़े बड़े गमलों में ऊँचे ऊँचे पौधे लगे थे। नीचे जो पत्ते थे वो ऊपर के पत्तो से ढके थे। मैंने सोचा कि ऊपर वाले पत्तो को ज्यादा सर्दी लग रही होगी। जो नीचे हैं, उनकी छत्र छाया में हैं वो मजे में है। तभी गमले में लगी लाल फूलो की घास पर नज़र पड़ी। ये ढेरो कलियों से लदी थी जो सुबह होते होते निश्चित रूप से लाल चटक फूलों में बदलने वाली थीं। ये तो और भी सुरक्षित है सर्दी से। इसका मतलब जो जितना नीचे है वो उतना सुरक्षित है । जिसके ऊपर जितने ज़्यादा बड़े हैं वो उतना ही सुरक्षित है।  

आगे नीम के दो बृहद वृक्ष खड़े थे । दोनों वैसे तो काफ़ी दूरी पर थे पर उनकी टहनियां इतनी बढ गई थी कि एक दूसरे से आ मिली थीं। मुझे लगा सर्दी की वजह से एक दूसरे से लिपट कर सो रही हैं। पास के पेड़ के झुरमुट में एक छोटी काली चमकदार चञ्चल चिड़िया का बसेरा है। मैंने पास जा कर झांक के उसे देखना चाहा पर अँधेरे में मुझे वो नज़र नहीं आई। मुझे मालूम है कि वो इसी झुरमुट में सोई है। उसकी नींद में बाधा पहुँचाने की मेरी कतई मंशा नही थी। मैंने कंधों से सरकते शॉल को संभाला और आगे चल दिया। 

आज पीपल के पेड़ के नीचे गणेश लक्ष्मी बिना दिए और अगरबत्ती के थे। वरन और दिन तो दिए के प्रकाश से इन्हें गर्मी मिलती थी।  कार पार्किंग में शेड के नीचे खड़ी कारों को देख कर मुझे अच्छा लगा। चलो ये तो रात में गिरने वाली ओस से बची। 

कुछ ही दूरी पर दो सफेद कारें जिनमें से एक  पर "भारत सरकार" लिखा था खुले में दीवार की ओट लिए खड़ी थीं। दोनों के मुंह एक दूसरे की और थे। धीरे धीरे कुछ बतिया रही थीं। मैं ठिठक गया। सुनु तो सही क्या बाते हो रही हैं।

"और सुना सखी, आज का दिन कैसा बीता?" पहली ने कहा।

"न ही पूंछो तो अच्छा है।" दूसरी का मुँह बिसरा हुआ था 

"क्यों। क्या हुआ?"

"अब क्या बताऊँ। आज तो पूरी दिल्ली में मानो आग लगी थी। पता नहीं क्या मामला था। जँहा देखो, पुलिस ही पुलिस। लोगों के हुजूम ही हुज़ूम। जगह जगह बेरिकेडिंग।"

"अरे सखी, तुझे नही पता? ये कोई 'नागरिकता बिल' लाई है सरकार। इसी का विरोध हो रहा है।"

"ये मुआ क्या है?"

"ये तो मुझे भी नहीं पता। वो तो साहब बात कर रहे थे तो मैंने सुन लिया। पर तुझे क्या दिक्क़त हुई? तुझ पर तो "भारत सरकार" लिखा है।"

"वो ही तो साहब  कह रहे थे पुलिस वालों से। पर वो कँहा किसी की सुनते हैं। सारी गाड़िया चैक कर रहे थे। और तू सुना। तू कँहा कँहा हो आई आज?"

"अरी सखी! मैं तो 'गुरुग्राम' गई थी।"

"ये मरी कौनसी जगह है?"

"अरे वही जो 'गुडगांव' हुआ करता था। अब इनका नाम बदल के 'गुरुग्राम' कर दिया है।"

"मैंने भी सुना है। साहब  एक दिन किसीसे कह रहे थे जब से ये सरकार आई है कई जगहों के नाम बदल दिये गए हैं।"

"सुन सखी, मेरा भी नाम 'डिज़ायर' से 'बी एम डब्ल्यू' हो जाये तो कितना अच्छा हो न। अरे हाँ, तू वो 'गुरुग्राम' के बारे में बता रही थी।"

"अरे वँहा का हाल न पूंछ। कोई चार किलोमीटर लंबा जाम लगा था टोल पर। एक तो बेरिकेडिंग दूसरे ये 'फ़ास्ट टैग'। सारा दिन वंही लग गया आज तो। बहुत थक गई हूँ। ऊपर से ये कमबख्त सर्दी। ये ड्राईवर हमें शेड में क्यों नहीं पार्क करता?"

"शेड में जगह हो तो वँहा पार्क करे न। हमारी किस्मत में तो रात भर ओस में भीगना लिखा है। मिश्रा जी की गाड़ी देखो। शेड में रहती है और मोटे कवर से भी ढकी रहती है। क्या मजाल की सर्दी छू भी जाये।"

"शी, शी, शी। जरा धीरे बोल। ये मरदुआ काफ़ी देर से खड़ा हमारी बातें सुन रहा है।"

"अरे! ये मर्द होते ही ऐसे हैं। औरतों की बातें सुनने को इनके कान लगे ही रहते हैं। "

"और देखने को दीदे! देख तो सही कैसे टेढ़ी टेढ़ी नज़रो से देख रहा है।"

मैंने तो वँहा से खिसकने में ही भलाई समझी। तेज़ तेज़ कदम चलता हुआ मैं अंदर आ गया।

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