Wednesday, 25 December 2019

अनत कँहा सुख पावे।

वैसे तो मैं धर्म पर लिखने से परहेज़ करता हूँ। कारण कि मैं अपने को इसका अधिकारी नहीं मानता। धर्म जैसे गूढ़ विषय पर मैं निपट अज्ञानी हूं। दूसरे, धर्म जैसे विषय पर आपके विचार, वैमनस्य का कारण हो सकते हैं। पर आज सुबह से मुझे मेरे मित्रों से क्रिसमस की शुभकामनाओं के इतने संदेश मिल रहे हैं कि मुझे लगने लगा कि कँही रातों रात मेरा धर्म तो परिवर्तित नहीं हो गया! एक समय था जब मैं भी कुछ ऐसा ही था।

बात उन दिनों की है जब मैं  किशोरावस्था और यौवन की  वय:संधि पर था। परिपक्वता किसे कहते हैं कँहा जानता था! बस लीक से हट कर चलने की ठान रखी थी। जो सब करते हैं उससे अलग कुछ करना था। क्या करना था पता नहीं था। बस कुछ अलग सा करना था । मन उद्वेलित रहता था। कल्पनाओं के पंख उग आए थे और आशाओं का अंनत आकाश खुला था उड़ान के लिए। 

ऐसे ही किसी दिन मेरा परिचय इसाई धर्म से हुआ। कैसे हुआ, किसने कराया, याद नहीं। बस इतना याद है कि एक छोटी सी पुस्तक हाथ आई थी ईशु मसीह पर , जिसमें कुछ कहानियां थी। मैं कैसे इसका सदस्य बना, ये भी याद नहीं। बस कुछ साहित्य मुफ़्त में डाक से मिलने लगा। माँ को पता लगा तो उन्होंने मुझे समझाने का प्रयास किया पर बेकार। मुझे तो कुछ अलग सा करना था। सभी धर्म अच्छे हैं और सभी को अपनाया जाना चाहिए ऐसा मेरा मानना था। ये साहित्य बढ़ता चला गया और मैं इसमें आगे चलता गया। इसके चलते एक दो बार चर्च भी गया। कभी ये जानने की आवश्यकता नहीं हुई कि आखिर कौन इस साहित्य को उपलब्ध करवा रहा है। इसके लिए पैसा कँहा से आ रहा है। ये सब प्रश्न निर्रथक थे उस समय।

इसी बीच मैं गीता प्रेस गोरखपुर के संपर्क में आया। सनातन धर्म से मेरा परिचय तभी  हुआ। जैसे जैसे परिपक्वता आती गई मुझे अपने धर्म के बारे में और ज़्यादा जानने की उत्सुकता बढ़ती गई। मेरा जन्म हिन्दू धर्म के ब्राह्मण परिवार में ही क्यों हुआ ? मैं कँही किसी और धर्म को मानने वाले परिवार में भी तो जन्म ले सकता था। मैं किसी अन्य देश जैसे सुदूर अफ़्रीकी देश में भी पैदा हो सकता था। मैं मनुष्य ही क्यों बना? किसी और योनि में भी तो जा सकता था। क्या ये मात्र संयोग था या उस सृष्टि कर्ता का किसी  सोची  समझी योजना के तहत ऐसा हुआ था ? मैं ये सोचने पर विवश था। 

फिर ऐसे ही किसी एक दिन मुझे "गीता" मिली। बिना समझे मैंने उसका हिंदी अनुवाद पढ़ना शुरू किया। यधपि मेरी माँ मेरे गीता पढ़ने से सहमत नहीं थीं। उन्हें लगता था कि मैं कँही संन्यासी न हो जाऊं। पर मैंने पढ़ना जारी रखा। फ़िर एक दिन एक श्लोक पढ़ने में आया। 

"प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।"

अर्थात , योगभ्रष्ट मनुष्य, पुण्य कर्म करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं उन्हें प्राप्त करके और उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र और धन सम्पन्न व्यक्तियों के घर में जन्म ग्रहण करता है।

मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल गया था। जैसे जैसे मैं सनातन धर्म को जानता गया मुझे लगने लगा कि मैं अपने ही धर्म के बारे में कितना अज्ञानी हूँ। इसे जानने के लिए तो कई जन्म कम पड़ जाएंगे और मैं किसी ओर धर्म को जानने में समय नष्ट कर रहा हूँ ! मुझे स्वयं से वितृष्णा सी हो आई। सूरदास जी की पंक्तियां "परम् गंग को छाड़ि पियासों, दुर्मति कूप खनावै " वाली बात सार्थक हो उठी। पास ही निर्मल पवित्र गंगा बह रही थी  और मैंं प्यास बुझाने को कुुुँँआ खोद रहा था। क्या कर रहा था मैं ?

ये ठीक है कि कोई भी धर्म बुरा नहीं है। हो सकता ही नहीं। पर जो जिस धर्म में स्थित है, उसके लिए वो अपना स्वयं का धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। कहते हैं - "धर्मो रक्षति रक्षितः" अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा । स्वयं के धर्म में स्थिर रहना ही धर्म की रक्षा है। गीता भी कहती है -  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।  अर्थात अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।  और सनातन धर्म तो एक ऐसा धर्म है जो अन्य सभी धर्मों को आत्मसात करने की क्षमता रखता है।   
इसे छोड़ कँही अन्यत्र भटकना तो "सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावे" वाली बात होगी। 

यदि कोई ये कहता है कि वह सभी धर्मों का आदर करता है तो वह महान है। पर यदि कोई ये कहता है कि वह सभी धर्मों को मानता है, तो मेरा मानना है कि वह किसी भी धर्म को नहीं मानता। वह कोरा नास्तिक ही है। 

उपरोक्त विचार मेरे अपने विचार हैं और कोई भी इन्हें मानने को बाध्य नहीं है। इन विचारों से किसी की भावनाएं यदि आहत हुई हों, तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

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