Friday, 25 September 2020

कपलचेलैंज

इन दिनों जिसे देखो फेस बुक पर हैश टैग कपलचैलेंज पर अपनी और पत्नी या पति की फ़ोटो पोस्ट कर रहा है। फेस बुक की माने तो अब तक 25 लाख जोड़े अपनी फोटो पोस्ट कर चुके हैं। और ये नम्बर बढ़ता ही जा रहा है। हमारे एक समझदार पुराने मित्र हैं जो अब फेस बुक पर भी जुड़े हैं। जब उन्होंने अपनी पत्नी के साथ फ़ोटो पोस्ट करी तो हमने उनसे जानना चाहा कि इसमें चेलैंज क्या है? तो बोले, 'यही तो चेलैंज है।' हमारी समझ नहीं आया कि ये कैसा चैलेंज है भाई! पत्नी या पति संग फ़ोटो डालना कौन सी बड़ी बात है! हमने आगे पूछा कि अपनी पत्नी के साथ ही फ़ोटो पोस्ट करनी है या दूसरे की पत्नी के साथ। अब हमारी समझ से तो चेलैंज वो ही है जब दूसरे की पत्नी के साथ फोटो पोस्ट की जाए। तो वे बोले कि ये तो पोस्ट करने वाले कि जोख़िम उठाने की क्षमता पर निर्भर करता है। अपनी तो समझ आया नहीं। हाँ, ऐसा एक चेलैंज कभी हमने दिया था अपने एक मित्र को। जोश में आकर उन्होंने चेलैंज ले तो लिया पर लेने के देने पड़ गए। 

बात पुरानी  है। हाँ, पुरानी ही होगी क्योंकि तब हम जवान थे । कोई 21-22 वर्ष के। बड़ौदा हॉउस में बसंत मेला लगा था। कई दिनों से तैयारी चल रही थी। खाती काम पर लगे थे। अस्थायी स्टॉल बनाये जा रहे थे। टैंट लगाए जा रहे थे। आख़िर वो दिन आ गया जिस दिन मेला लगना था। विभिन्न मंडलों से कर्मचारी आये हुए थे । हर मंडल की प्रसिद्ध वस्तुएं बिक्री के लिए उपलब्ध थीं।  हम और हमारे एक मित्र भी चले आये मेले की रौनक देखने। क्या रँगीन माहौल था। लड़के लड़कियां तड़क भड़क के साथ इधर उधर विचर रहे थे। कँही जोधपुरी स्टाल तो कँही मुरादाबादी पंडाल। कँही लखनऊ का चिकन वर्क तो कँही जोधपुरी बन्धेज। जैसे जैसे शाम ढल रही थी, भीड़ बढ़ती जा रही थी। जँहा रोज़ फिनाईल की गंध आया करती थी वँहा की फ़िज़ा तरह तरह के इत्र फुलेल की महक से सरोबार थी। पूरा मेला रोशनी से नहाया हुआ था। इस वर्ष के मेले का विशेष आकर्षण था कैंटीन में लगा बार। फरवरी का गुलाबी मौसम, बसंत ऋतु, जवां उम्र और ये समा! ऐसे में किस का दिल न दीवाना हो! हुआ तो हमारा भी पर हमें तो इसे मारने की आदत थी सो मार कर बिठा दिया। बेचारा कुछ नहीं बोला। पर हमारे मित्र अपना मन नहीं मार सके। बोले, 'यार कैंटीन में बार लगा है। चलो एक एक पैग लेते हैं।' मैंने कहा कि मैं तो पीता नहीं। तो बोले, ' मत पीना। साथ तो चलो। बारटेंडर ही देख लेना। हो सकता है कोई खूबसूरत बला ही सर्व कर रही हो। ' हम चल पड़े। कैंटीन के काउंटर से जँहा रोज़ लाइन में लगकर हम चाय, समौसे और गाजर-खोए की बर्फी के  कूपन लेते थे आज वहाँ कैंटीन में प्रवेश के लिए टिकट बिक रहे थे और वो भी अच्छे खासे महँगे। खैर, हमारे मित्र ने लाईन में लग टिकट खरीदे और हम बेधडक़ कैंटीन में घुसने लगे। पर गेट पर खड़े व्यक्ति ने हमें रोक दिया। बोला, 'कपल्स ओनली'। आज वो व्यक्ति होता तो समझता कि कपल्स के दायरे में दो लड़के या दो लड़कियां भी आती हैं। पर वो समय कुछ और ही था। तब विपरीत लिंग के जोड़े को ही कपल्स कहा जाता था। हम दोनों एक दूसरे की शक्ल देखने लगे। तब हमने देखा कि अंदर प्रवेश करने वाले सभी जोड़े ही थे। हमारा ऑफिस और हम पर ही रोक!  हमारी भृकुटियां तन गईं। पर हमारी एक न चली। प्रवेश द्वार पर खड़ा व्यक्ति टस से मस नहीं हुआ। हम पीछे हट गए। 

अब क्या करें? हमारा मित्र निराश था। वो बड़बड़ाया, 'कोई तो ढूंढ़नी पड़ेगी।' वो इधर उधर देख रहा था। उसकी निगाहें किसी आधुनिक अकेली लड़की को तलाश रही थी जो उसे अंदर जाने में मदद कर सके। जल्द ही उसने एक लड़की ढूंढ़ ली। वो मिनी स्कर्ट्स और टाइट टॉप पहने पीपल के पेड़ के नीचे अकेली खड़ी सिगरेट से धुआं उड़ा रही थी। एक मिनी पर्स उसके हाथ में टँगा था जिसे वो रुक रुक कर झूला रही थी। शायद किसी के इंतज़ार में थी। 

'ये मान जाएगी।', हमारा मित्र बोला। 

'पगला गए हो क्या?देख नहीं रहे कितनी ऊंची हील पहनी है। बेभाव की पड़ेगी। दारू पीने की जगह जख्मों पे लगानी पड़ेगी।',हमने अपना डर जाहिर किया।

'अमां तुम भी यार। क्या लड़की के चरण देख रहे हो। जीवन में कोई लड़की नहीं पटा सकते। कुँआरे ही मरोगे। अरे मुख देखो फिर बताओ, मानेगी या नहीं।, 'वो ढिटाई से बोले।

'रहने दो। तुम्हारे साथ तो नहीं ही जायगी। ' हमनें चेलैंज किया। 'और हमें तो तुम्हारी ही मौत नज़र आ रही है। क्यों शाम खराब करते हो। चलो किसी और स्टाल पर चलते हैं। ',हमने सुझाव दिया।

'हमें चेलैंज करते हो ?'उनके स्वर में गर्व था।'चलो स्वीकार है।'

'देखो ! सोच लो। पिटोगे तो हम नहीं पहचानेंगे तुम्हें।'हमने कहा।

'अरे तुम्हारा चरित्र प्रणाम पत्र किसे चाहिए!' ,कहते हुए वो आगे बढ़ गए।

'सुनो तो...', हम पीछे से चिल्लाए। पर वँहा कौन सुनता! वो तो छलांग लगा चुके थे।

हम दूर खड़े  तेज़ धड़कते दिल से देख रहे थे। किसी अनहोनी की आशंका से दिल घबरा रहा था। वो टहलते हुए से उसके पास जा पँहुचे । पता नहीं उन्होंने उससे दो चार मिनट क्या बात की कि वो अनजान लड़की उनके साथ बार में जाने को तैयार हो गई। जब वो दोनों मेरे पास से गुजरे तो हमारे मित्र ने कनखियों से हमें देखा और मुस्कराए। हमें उनसे ईर्ष्या हो आई। एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए वो कैंटीन में चले गए और हम किसी खाने पीने के स्टाल की तलाश में स्कूटर स्टैंड की और लगे स्टॉल्स की तरफ़ जाने को मुड़ गए। अभी हम दो चार कदम ही चले होंगे कि हमारे मित्र तेज़ी से भागते हुए से आये जैसे उनके पीछे भूत लगा हो। बदहवास से बोले , 'चलो जल्दी निकलो यँहा से।' पीछे वो लडक़ी भी तेज कदमों से चली आ रही थी। ' हे! व्हाट हैपण्ड?' ,हम बस इतना ही सुन सके। 

चलते चलते हमने पूछा,' क्या हुआ? वापस क्यों आ गए?'

उन्होंने कहा, 'काउंटर पर पता है बारटेंडर कौन है।? हमने पूछा, 'कौन?' बोले, 'पापा! हमें क्या पता था कि उनकी ड्यूटी यँहा लगी है। कँही देख न लिया हो इस लड़की के साथ।पूछेंगे तो क्या जवाब दूँगा! '

हम मेन गेट से जल्दी से बाहर आये औऱ सामने जो भी बस रुकी, उस में चढ़ गए। 

बहुत कोशिश करने पर भी उन मित्र का नाम याद नहीं आ रहा। स्मृति धुँधली हो गई है। यदि रेलवे के फेस बुक मित्रों में से कोई हो और इस किस्से को पढ़ रहा हो, तो अपना नाम हमें अलग से सूचित जरूर करें।



Monday, 7 September 2020

बदलते युग की साक्षी ये पीढ़ी - 2

आज हम जितनी आसानी से स्मार्ट फ़ोन पर उंगलियां चला व्हाट्सएप, फेसबुक आदि का इस्तेमाल करते हैं, हम नहीं जानते कि इस छोटे से डिवाइस में इतनी कम्प्यूटिंग पॉवर भरने के पीछे का क्रमिक विकास क्या है। तो उस विकास यात्रा के प्रारम्भ में, चलते है 1880 में।

1880  में अमेरिका की आबादी इतनी बढ़ चुकी थी कि जनसंख्या की गणना में सात साल लग गए। अमेरिका कोई ऐसा तरीका अपनाना चाह रहा था जिससे ये काम जल्द हो सके। इसी बीच फ्रांस में जोसेफ़ मैरी ने एक ऐसी बुनाई मशीन ईज़ाद की जिसमें लकड़ी के बोर्ड को एक अलग पैटर्न में छेद कर इस्तेमाल करने से बुनाई में वो डिज़ाईन अपने आप बुन जाता था। बाद में यही विधि कार्ड पंचिग से डेटा तैयार करने का आधार बनी। 

1890 में, हरमन होलिरीथ ने इसी पंच कार्ड सिस्टम को अमेरिकी जनसँख्या की गणना के लिए प्रयोग कर सात वर्ष का कार्य मात्र तीन वर्ष में पूरा कर दिखाया जिसे अमेरिकी सरकार की कई बिलियन डॉलर की बचत हुई। कम्प्यूटर की आधार शिला रख दी गई थी।

1953 में पहली कम्प्यूटर भाषा कोबोल COBOL बनाई गई। जो लिखने में साधारण अंग्रेज़ी की तरह थी पर कम्पाइल होने पर मशीनी भाषा में परिवर्तित हो जाती थी। इससे कम्प्यूटर को निर्देश देने के लिए मशीनी भाषा में कोडिंग की आवश्यकता नहीं रही। 1954 में फ़ोर्टरान FORTRAN भाषा का विकास हुआ। 1958 आते आते, इंटिग्रेटेड सर्किट IC कम्प्यूटर चिप के रूप में प्रयोग में आने लगे। पर अभी कम्प्यूटर आम आदमी के लिए तैयार नहीं था। इसका प्रयोग बड़े संस्थानों, वैज्ञानिक कार्यशालाओं तक ही सीमित था। 

1960 के अंत तक भारतीय रेल में कम्प्यूटर आ गया था जब 9 ज़ोनल रेलवे, तीन प्रोडक्शन यूनिट्स और रेलवे बोर्ड में IBM 1401 मेन फ्रेम लगाए गए। वो अलग बात है कि आरक्षण के कंप्यूटर युग का प्रारम्भ इसके काफ़ी बाद हुआ। बहरहाल मेरे इस दुनियां में आने तक कम्प्यूटर की विकास यात्रा इतनी आगे बढ़ चुकी थी।

1969 में बेल कम्पनी ने एक नया ऑपरेटिंग सिस्टम पेश किया जिसका नाम UNIX रखा गया। ये 'C' भाषा में लिखा हुआ था और विभिन्न कम्प्यूटरों पर चल सकता था। ये OS पोर्टेबिलिटी में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसके एक वर्ष बाद ही नई बनी इंटेल कंपनी ने एक ऐसी मेमोरी  चिप ईज़ाद की जो डेटा की हर बिट को एक छोटे से मेमोरी सेल जो कैपेसिटर और ट्रांजिस्टर से बना हो, में स्टोर करने की क्षमता रखती थी। इसके कपैसिटर को चार्ज या डिस्चार्ज किया जा सकता था। चार्ज का अर्थ होता है - 1 और डिस्चार्ज का 0 - बाइनरी के इन्हीं दो अंको को कम्प्यूटर समझता है। इसे DRAM चिप के नाम से जाना गया जिसका अर्थ है - डायनामिक रेंडम एक्सेस मेमोरी। फिर तो  विकास की गति तेज होती चली गई।

 1971 में फ्लॉपी डिस्क का अविष्कार हुआ जिससे दो कम्प्यूटरों में डेटा शेयर किया जाना संभव हुआ। 1973 में, रॉबर्ट मेटकॉफ ने ईथरनेट बना लिया जिससे दो या इससे ज़्यादा कम्प्यूटर आपस में जोड़े जाने सम्भव हुए।

1975 में बिल गेट्स ने अपने एक सहपाठी के साथ मिल कर माइक्रोसॉफ्ट नाम से कंपनी बनाई। इसके अगले ही वर्ष स्टीव जॉब्स ने एप्पल कंप्यूटर शुरू किया। एप्पल का विंडो बेस्ड ग्राफ़िक यूजर इंटरफ़ेस होने के बाबजूद भी एप्पल आम आदमी का कंप्यूटर नहीं बन पाया। 1981 में IBM ने पहला पर्सनल कम्प्यूटर बाज़ार में उतारा। ये MS-DOS ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलता था और इसमें दो फ्लॉपी ड्राइव थीं। इसी के साथ माइक्रोसॉफ्ट का MS-DOS ऑपरेटिंग सिस्टम आम आदमी तक पँहुचा और खूब चला। पर अभी भी ये ग्राफ़िक में एप्पल से बहुत पीछे था।

 1985 में माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज की घोषणा की। पर ये अभी भी MS-DOS पर ही चलता था। फिर धीरे धीरे MS-DOS इतिहास हो गया। और इसकी जगह विंडोज ने ले ली। आज विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम से सभी परिचित हैं। 

15  मार्च 1985 में ही पहला डॉट कॉम डोमेन नेम symbolics.com रजिस्टर्ड किया गया। इसके कोई चार वर्ष बाद 1989 में , ब्रिटिश वैज्ञानिक बर्नरस ली ने www का अविष्कार किया। जिसे आज हम सब परिचित हैं। इसके पीछे जो सोच थी ,वह तेज़ी से उभरती तकनीक को जिसमें कंप्यूटर, डेटा नेटवर्क और हाइपरटेक्स्ट शामिल थे, एक ताकतवर विश्वव्यापी सूचना तंत्र के रूप में समाहित करने की थी , जिसे आसानी से प्रयोग में लाया जा सके। इंटरनेट की शुरुआत हो चुकी थी हालांकि ये आम आदमी की पँहुच से दूर था। मुझे याद है विदेश संचार निगम लिमिटेड से इंटरनेट कनेक्शन लेना होता था जो टेलीफोन लाइन के जरिये मिलता था और जिसकी स्पीड बहुत कम होती थी। हमारे ऑफिस में ये सुविधा कुछ उच्च अधिकारियों तक ही सीमित थी। 

मैं 1980 से कंप्यूटर की इस विकास यात्रा का साक्षी रहा हूँ। 1980 के प्रारंभ तक मेरा इससे पाला नहीं पड़ा था पर इस क्षेत्र में हाथ आज़माने की उत्कट अभिलाषा थी। पर मैं ठहरा कॉमर्स का छात्र, मुझे कौन इस क्षेत्र में आने देता! और जैसे तैसे घुस भी जाऊं तो क्या मैं इस तकनीकी क्षेत्र में अपने को साबित कर पाऊंगा? पर जहाँ चाह, वहाँ राह। मैं इस क्षेत्र में कैसे घुसा और क्या मैं अपने आप को साबित कर पाया? ये सब अगली कड़ी में।


Sunday, 6 September 2020

बदलते युग की साक्षी ये पीढ़ी - 1

अभी कल  ही मैं अपनी जन्म तिथि किसी क्रेडिट कार्ड की साइट पर डाल रहा था तो मुझे अपना जन्म वर्ष चुनने को 61 वर्ष पीछे जाना पड़ा। अचानक एहसास हुआ कि कितना लम्बा जीवन काल निकल गया। इन बीते वर्षो में कितना कुछ बदल गया! तकनीक बदली, शहर बदले, सोच बदली, व्यक्ति भी बदल गए। जीने का तरीका बदल गया। नदियां बदली। हवा बदली। और भी बहुत कुछ बदल गया। आज पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ इस बदलाव में कितना कुछ पीछे रह गया। जो भी हो जीवन का रस चला गया इस बदलने की दौड़ में। यदि आज के परिपेक्ष्य में इस बदलाव को देखें तो पाएंगे कि बदलते जमाने की आंधी में क्या कुछ नहीं उड़ गया।

जब मेरा जन्म हुआ तो हमारे यँहा बिज़ली नहीं थी। लालटेन जलती थी। माँ तो कभी कभी कहती थी कि इसीलिए मुझे अँधेरा अच्छा लगता है। जब तक मैंने होश संभाला , घर मे बिज़ली आ गई थी। एक रेडियो था बड़ा सा। जिसमें वाल्व लगे थे। वाल्व गर्म होने में समय लगता था इसलिए ऑन करने में और आवाज़ आने में कुछ समय का अंतराल होता था। उसमें एक हरे रंग की मैजिक लाइट थी जो सही स्टेशन ट्यून होने पर पूरी हरी हो जाती थी। उन दिनों रेडियो का लाईसेंस बनता था जिसका समय समय पर नवीनीकरण करवाना पड़ता था। इंस्पेक्टर घर घर जाकर उसकी जाँच करते थे। 

ऐसे ही साईकल का भी रोड टैक्स जमा होता था। एक गोल टीन का टोकन मिलता था जिसे साईकल पर लगाना अनिवार्य था। कुछ शौकीन लोग अपनी साईकल पर सामने लाइट भी लगाते थे जो पिछले पहिये के टायर से सट कर चलने वाले छोटे से डायनुमा से बिजली लेती थी। स्कूटर तो किसी किसी के पास होता था। कार की तो बात ही क्या थी। चँद गिने चुने सम्पन्न लोगों के पास ही हुआ करती थी। उन दिनों लम्ब्रेटा स्कूटर आता था जो आज के स्कूटरों से लम्बा होता था। बाद में बज़ाज़ ने अपने स्कूटर बाज़ार में उतारे। आम जन तो साईकल पर ही चलता था। पैंट सूती होती थी और नीचे से बाहर की ओर मुड़ी हुई। उन की खुली, चौड़ी मोहरी पर लगाने को स्टील के क्लिप मिलते थे जिससे साईकल की चैन से वे गन्दी न हों। 

टेलीविजन तो तब आया नहीं था। इसके बाद जब टेलिविज़न आये तो वे ब्लैक एंड व्हाट थे। भारतीय बाज़ार में वेस्टन का टेलेविज़न ज़्यादा बिकता था। सेमीकंडक्टर का उतना प्रचलन नहीं था या वो तकनीकी तब विकसित हो रही थी। अतः टेलेविज़न में भी वॉल्व प्रयोग में आते थे और इसलिए  उनका आकार अपेक्षाकृत बड़ा हुआ करता था। कुछ सम्पन्न घरों में ही टेलेविज़न हुआ करते थे। और इनके प्रसारण का समय भी दिन के कुछ ही घँटे था। प्रसारण में बाधा भी आ जाया करती थी और तब "असुविधा के लिए खेद है" कैप्शन स्क्रीन पर दिखाया जाता था। रविवार को कोई फ़िल्म प्रसारित होती थी। हम बच्चे आस पड़ोस में उस फ़िल्म को देखने जाते थे। कभी बैठा लिए जाते तो कभी भगा दिए जाते। फ़िल्म के बीच में विज्ञापनों और समाचारों के लिए अंतराल होता था। पर हम इस लालच में कि बाद में पता नहीं आने दें या न आने दें, अंतराल में भी बैठे ही रहते।

बाद में सेमीकंडक्टर का युग आया। ट्रांज़िस्टर और डायड का प्रयोग शुरू हुआ जो बाद में इंटीग्रेटेड सर्किट (IC) में बदल गया। हाइब्रिड टेलेविज़न बनने लगे और फिर वॉल्व को सदा के लिए विदा कर दिया गया। रेड़ियो और टेलेविज़न का आकार पहले से छोटा हो गया। ये एक बहुत बड़ी क्रांति थी जो मेरी उम्र के लोगों ने देखी है। इसका प्रभाव और विस्तार इतना व्यापक था जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। एशिया 72 प्रगति मैदान में लगने वाला मेला था। जँहा पहली बार मैंने रँगीन टेलिविज़न पर समाचार प्रसारित होते हुए देखे।

टेलिफ़ोन, जी हाँ दूर संचार के इस माध्यम ने भी इसी समय मे बहुत परिवर्तन देखा है। आज़कल मोबाईल से देश विदेश बात करने और वीडियो कॉल करने वाली पीढ़ी को क्या पता कि उस जमाने में दिल्ली से जयपुर भी बात करनी हो तो ट्रंक कॉल बुक करनी पड़ती थी। STD और  ISD की सुविधा तो बहुत बाद में जा कर देखने में आई। घर में टेलीफोन लगवाने के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। लोग सांसद कोटे से फ़ोन लेने के लिए सांसदों के चक्कर काटा करते थे। हमारा ही फोन बुकिंग के 13 वर्ष बाद लग पाया था। सूचना लेकर आने वाले डाकिए ने इनाम मांगा। फ़ोन  लगाने पर लाईन मेन ने इनाम लिया। कनेक्शन शुरू करने पर फिर मिठाई के पैसे भेंट किये। और लाईन चालू रहे इसके लिए लाईन मेन से बना कर रखनी भी ज़रूरी थी। इस क्रांति में जब मोबाईल का युग आया तो सबसे पहले पेज़र आये। उसमें संदेश का आदान प्रदान ऑपरेटर के माध्यम से होता था। जिनके पास पेज़र थे वो बड़ी शान से अपनी बेल्ट में लगा कर घूमते थे।देखते ही देखते पेज़र इतिहास हो गए और उनकी जगह मोबाईल ने ले ली। फिर आया स्मार्ट फ़ोन जिसने की बोर्ड वाले मोबाईल को पीछे धकेल दिया। फोल्डिंग फ़ोन भी आये मग़र टिके नहीं। स्मार्ट फोन ही मार्किट में छा गए और आज भी अग्रणी बने हुए हैं।

स्मार्ट फोन की इस सफ़लता के पीछे इंटरनेट का बड़ा योगदान रहा है। अगली पोस्ट में इंटरनेट और कम्प्यूटर के क्रमिक विकास की बात करेंगे।



Tuesday, 1 September 2020

पहले सी दुनियां

एक कलाकार ने आत्महत्या क्या कर ली, सारे समाचार चैनलों को मानो जीवन दान मिल गया हो। सूखे पड़े खेतों में मानो वर्षा की रिमझिम फुहारें गिर गई हों। पुरानी बासी खबरों को पीछे छोड़ सभी में इस मुद्दे को भुनाने की मानो अंधी दौड़ लगी हो। नित नई कहानियां, नित नए साक्षात्कार, मुंबई पुलिस, पटना पुलिस, केंद्रीय जाँच आयोग, अंकिता, रिया, संदीप और भी न जाने कितने नाम इन्होंने रात दिन, चौबीस घँटे दर्शकों को परोसे। सारे चैनल एक ही गीत गा रहे थे, गा रहे हैं और अभी न जाने कब तक गाते रहेंगे - सुशांत को न्याय। जबकि सुशांत से इन्हें कोई हमदर्दी नहीं।  

सोशल मीडिया को ही ले लो। वो कैसे इससे अछूता रह सकता था। फेस बुक, ट्विटर, व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम सभी पर यही चल रहा है। न जाने कौन कौन से चहरे जिन्हें हम आज से पूर्व नाम से भी नहीं जानते थे, रातो रात सोशल मीडिया पर छा गए। सभी एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं बिना ये जाने कि इसके छीटें तो उन पर भी गिर रहे हैं। पर अपना दामन कौन देखे! वो तो दूसरे का दामन मैला करने में वयस्त हैं। किसी को कोई मतलब नहीं है मरने वाले के पिता या परिवार से। इन्हें तो बस अपनी वियूइंग बढ़ानी है। कुछ तो फीता लेकर मृतक के पलंग से छत की ऊंचाई नाप रहे हैं ये बताने को कि ये आत्महत्या नहीं, हत्या है। इन्हें तो किसी जांच एजेंसी में होना चाहिए था, समाचार चैनल में पता नही क्या कर रहे हैं। सारे चैनल एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। न कोई उन्नीस न ही बीस। 

मुझे इस पत्रकारिता से न तो ऊब होती है न ही घृणा। मुझे तो उन दर्शकों पर तरस आता है जो इस तरह के घटिया समाचार देखते, सुनते हैं। फिर उन पर टीका टिप्पणी करते हैं। सोचता हूँ कितना गिर गया है पत्रकारिता का स्तर! इन सब के बीच आज भी दूरदर्शन समाचार अपना स्तर बनाये हुए है। विविध भारती से प्रसारित समाचार आज भी अपनी गरिमा बनाये हुए हैं। मेरे जमाने के लोगों ने बी बी सी न्यूज़ तो रेडियो पर जरूर सुनी होगी। शार्ट वेव के बैंड पर बड़ी मुश्किल से ये रेडियो स्टेशन लगा करता था।

 ब्लैक एंड व्हाइट टी वी पर जब सलमा सुल्तान बालों में फूल लगा समाचार वाचन करती थी तो पूरे दिन के समाचार बिना चेहरे पर कोई भाव लाये पढ़ जाती थी। न कोई शोर, न बहस, न आरोप प्रत्यारोप। बस विशुद्ध समाचार। जब से ये समाचार चैनलों का युग आया है, इसने समाचारों की, उसके प्रसारण के तरीके की धज़्ज़िया उड़ा दी। आज समाज़ में जो अशांति व्याप्त है, जो मूल्यों का ह्यास देखने में आता है, उसके लिए बहुत हद तक ये समाचार चैनल दोषी हैं। और क्यों न हो, इन्हें पैसा ही इसी का मिलता है। कुछ दिन पहले मैं कँही इनको मिलने वाली तन्खाह के बारे में पढ़ रहा था। अगर वो ख़बर ठीक है तो इन्हें माह का एक करोड़ से लेकर पचास लाख तक मिलता है। जो जितने दर्शक बटोर सके उसे उतना ही अधिक मेहनताना। 

ये समाज़ को पता नहीं कहाँ ले जाएंगे! आज कल समाचार देख मन विचलित हो जाता है। और ऐसा नहीं है कि ये केवल उल्टे सीधे समाचार ही परोसते हों। इसके अलावा और भी बहुत कुछ ऐसा दिखाते हैं जिनका समाचारों से दूर दूर तक का नाता नहीं होता। मसलन बिल्ली को कैट वॉक करते, चीतों को कम्बल ओढ़ सोते, पार्क में भूत की झूला हिलाते। 

यदि शांति चाहिए तो न्यूज़ चैनलों से और सोशल मीडिया से परहेज़ करें। आप पायेंगे कि सर्वत्र शांति है। दुनिया सुरक्षित है। कोरोना का भय कम हो गया है। दुनियां फिर पहले सी हो गई है।

बादल

दो ऊँची इमारतों के बीच एक बादल का टुकड़ा फंस गया है । इमारतें तो ठहरी सीमेंट और लोहे की। भला उस बादल की क्या औकात कि इन से उलझे! बेचारा चुपचाप टँगा हुआ है। मैं बहुत देर से इस बादल की विवशता देख रहा हूँ। पर क्या करूँ? इसे इन गगन चुम्बी इमारतों से मुक्ति दिलाना मेरे बस में नहीं है। नीले आकाश की पृष्ठभूमि में कई बादलों के दुकड़े तैर रहे है, कुछ काले, कुछ रुई से उजले तो कई स्लेटी रंग लिए। पर इस विवश टुकड़े के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है। कितने कृतघ्न हैं ये। तभी हवा बह चली इस बादल के टुकड़े को लिए हुए। हवा में तैरता हुआ ये इन इमारतों से आज़ादी की और बढ़ चला। दोनों इमारतों ने इसे पकड़ कर रखने की बहुत कोशिश की पर ये तो निकल ही गया इनके चुंगल से। अब बस अंतिम छोर बचा है। देखो ! वो भी निकल गया। इमारतों के बीच अब बस नीला आकाश है जिस पर पक्षी मंडरा रहे हैं। पीछे से एक और घने काले बादल का टुकड़ा तैरता आ रहा है। इस बात से अनजान कि इमारतों के बीच फंस सकता है। इमारतें चुपचाप किसी शिकारी की भांति खड़ी है। प्रतीक्षा में। पर ये क्या ! ये तो जैसे आया था वैसे ही आगे बढ़ गया। इमारतें खड़ी रह गईं ठगी सी।  अब बादल बेचारे को क्या पता किस राह जाना है ! बादल की इसी दीवानगी को, निदा फ़ाज़ली ने क्या शब्द दिए हैं -

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने

किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है