जब मेरा जन्म हुआ तो हमारे यँहा बिज़ली नहीं थी। लालटेन जलती थी। माँ तो कभी कभी कहती थी कि इसीलिए मुझे अँधेरा अच्छा लगता है। जब तक मैंने होश संभाला , घर मे बिज़ली आ गई थी। एक रेडियो था बड़ा सा। जिसमें वाल्व लगे थे। वाल्व गर्म होने में समय लगता था इसलिए ऑन करने में और आवाज़ आने में कुछ समय का अंतराल होता था। उसमें एक हरे रंग की मैजिक लाइट थी जो सही स्टेशन ट्यून होने पर पूरी हरी हो जाती थी। उन दिनों रेडियो का लाईसेंस बनता था जिसका समय समय पर नवीनीकरण करवाना पड़ता था। इंस्पेक्टर घर घर जाकर उसकी जाँच करते थे।
ऐसे ही साईकल का भी रोड टैक्स जमा होता था। एक गोल टीन का टोकन मिलता था जिसे साईकल पर लगाना अनिवार्य था। कुछ शौकीन लोग अपनी साईकल पर सामने लाइट भी लगाते थे जो पिछले पहिये के टायर से सट कर चलने वाले छोटे से डायनुमा से बिजली लेती थी। स्कूटर तो किसी किसी के पास होता था। कार की तो बात ही क्या थी। चँद गिने चुने सम्पन्न लोगों के पास ही हुआ करती थी। उन दिनों लम्ब्रेटा स्कूटर आता था जो आज के स्कूटरों से लम्बा होता था। बाद में बज़ाज़ ने अपने स्कूटर बाज़ार में उतारे। आम जन तो साईकल पर ही चलता था। पैंट सूती होती थी और नीचे से बाहर की ओर मुड़ी हुई। उन की खुली, चौड़ी मोहरी पर लगाने को स्टील के क्लिप मिलते थे जिससे साईकल की चैन से वे गन्दी न हों।
टेलीविजन तो तब आया नहीं था। इसके बाद जब टेलिविज़न आये तो वे ब्लैक एंड व्हाट थे। भारतीय बाज़ार में वेस्टन का टेलेविज़न ज़्यादा बिकता था। सेमीकंडक्टर का उतना प्रचलन नहीं था या वो तकनीकी तब विकसित हो रही थी। अतः टेलेविज़न में भी वॉल्व प्रयोग में आते थे और इसलिए उनका आकार अपेक्षाकृत बड़ा हुआ करता था। कुछ सम्पन्न घरों में ही टेलेविज़न हुआ करते थे। और इनके प्रसारण का समय भी दिन के कुछ ही घँटे था। प्रसारण में बाधा भी आ जाया करती थी और तब "असुविधा के लिए खेद है" कैप्शन स्क्रीन पर दिखाया जाता था। रविवार को कोई फ़िल्म प्रसारित होती थी। हम बच्चे आस पड़ोस में उस फ़िल्म को देखने जाते थे। कभी बैठा लिए जाते तो कभी भगा दिए जाते। फ़िल्म के बीच में विज्ञापनों और समाचारों के लिए अंतराल होता था। पर हम इस लालच में कि बाद में पता नहीं आने दें या न आने दें, अंतराल में भी बैठे ही रहते।
बाद में सेमीकंडक्टर का युग आया। ट्रांज़िस्टर और डायड का प्रयोग शुरू हुआ जो बाद में इंटीग्रेटेड सर्किट (IC) में बदल गया। हाइब्रिड टेलेविज़न बनने लगे और फिर वॉल्व को सदा के लिए विदा कर दिया गया। रेड़ियो और टेलेविज़न का आकार पहले से छोटा हो गया। ये एक बहुत बड़ी क्रांति थी जो मेरी उम्र के लोगों ने देखी है। इसका प्रभाव और विस्तार इतना व्यापक था जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। एशिया 72 प्रगति मैदान में लगने वाला मेला था। जँहा पहली बार मैंने रँगीन टेलिविज़न पर समाचार प्रसारित होते हुए देखे।
टेलिफ़ोन, जी हाँ दूर संचार के इस माध्यम ने भी इसी समय मे बहुत परिवर्तन देखा है। आज़कल मोबाईल से देश विदेश बात करने और वीडियो कॉल करने वाली पीढ़ी को क्या पता कि उस जमाने में दिल्ली से जयपुर भी बात करनी हो तो ट्रंक कॉल बुक करनी पड़ती थी। STD और ISD की सुविधा तो बहुत बाद में जा कर देखने में आई। घर में टेलीफोन लगवाने के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। लोग सांसद कोटे से फ़ोन लेने के लिए सांसदों के चक्कर काटा करते थे। हमारा ही फोन बुकिंग के 13 वर्ष बाद लग पाया था। सूचना लेकर आने वाले डाकिए ने इनाम मांगा। फ़ोन लगाने पर लाईन मेन ने इनाम लिया। कनेक्शन शुरू करने पर फिर मिठाई के पैसे भेंट किये। और लाईन चालू रहे इसके लिए लाईन मेन से बना कर रखनी भी ज़रूरी थी। इस क्रांति में जब मोबाईल का युग आया तो सबसे पहले पेज़र आये। उसमें संदेश का आदान प्रदान ऑपरेटर के माध्यम से होता था। जिनके पास पेज़र थे वो बड़ी शान से अपनी बेल्ट में लगा कर घूमते थे।देखते ही देखते पेज़र इतिहास हो गए और उनकी जगह मोबाईल ने ले ली। फिर आया स्मार्ट फ़ोन जिसने की बोर्ड वाले मोबाईल को पीछे धकेल दिया। फोल्डिंग फ़ोन भी आये मग़र टिके नहीं। स्मार्ट फोन ही मार्किट में छा गए और आज भी अग्रणी बने हुए हैं।
स्मार्ट फोन की इस सफ़लता के पीछे इंटरनेट का बड़ा योगदान रहा है। अगली पोस्ट में इंटरनेट और कम्प्यूटर के क्रमिक विकास की बात करेंगे।
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