Wednesday, 5 March 2025

व्रज के तीर्थ और कुम्भ.

अभी अभी महाकुम्भ का समापन हुआ. करोड़ो ने प्रयागराज में डुबकी लगाकर अपने पापों का मार्जन किया. कहा गया कि ऐसा दुर्लभ संयोग 144 वर्षों के बाद आएगा. जो नहीं जा पाए वो निराश हैं कि उनके जीवनकाल में तो अब ये सम्भव नहीं हों पायेगा. ये पोस्ट उन्हीं निराश लोगों के लिए ही है. वैसे गया तो मैं भी नहीं चाहे कारण कुछ भी रहा हो.

गर्ग संहिता के वृंदावन खंड में एक कथा आती है. पूर्व काल में शांखसुर नाम से एक राक्षस हुआ जो ब्रह्मा जी के पास से चारों वेद चुरा कर समुद्र में जा घुसा. भगवान् ने उसे मार कर चारों वेद प्रयागराज में जा कर ब्रह्मा जी को लौटा दिए. फ़िर सम्पूर्ण देवताओं के साथ श्रीहरि ने विधिवत यज्ञ का अनुष्ठान किया और प्रयागराज के अधिष्ठाता देवता को बुला कर उसे ‘तीर्थराज’ पद पर अभिषिक्त कर दिया. उसी समय जंबूदीप के सारे तीर्थ भेंट लेकर तीर्थराज के पास आए और उनकी पूजा वन्दना करके अपने अपने स्थान को चले गए.

ज़ब देवताओं के साथ श्रीहरि भी चले गए तब नारद जी आ पंहुचे और तीर्थराज से बोले. निश्चय ही तुम समस्त तीर्थो द्वारा विशेष रूप से पूजित हुए हो परन्तु व्रज के वृंदावन आदि तीर्थ तुम्हारे सामने नहीं आये. तुम तीर्थो के राजाधिराज हो. ऐसा करके उन्होंने तुम्हारा अपम्मान किया है.

तब तीर्थराज के मन में बड़ा क्रोध हुआ. और वह उसी क्षण श्री हरि के लोक में गये. श्रीहरि को प्रणाम और उनकी परिक्रमा कर सम्पूर्ण तीर्थो से घिरे हुए तीर्थराज श्री हरि से बोले. देवदेव मैं आपकी सेवा में इसलिए आया हूँ कि आपने तो मुझे ‘तीर्थराज’ बनाया और समस्त तीर्थो ने मुझे भेंट दीं, किन्तु मथुरा मंडल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये. उन प्रमादी व्रज तीर्थो ने मेरा तिरस्कार किया है. अतः ये बात आपसे करने के लिए मैं आपके मंदिर में आया हूँ.

श्री भगवान बोले, ‘मैनें तुम्हें धरती के समस्त तीर्थो का राजा ’तीर्थराज‘ अवश्य बनाया है, किंतु अपने घर का भी राजा तुम्हें ही बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं हुई है. फिर तुम तो मेरे गृहपर भी अधिकार जमाने कि इच्छा लेकर बात कैसे कर रहे हो? तीर्थराज ! तुम अपने घर जाओ. मथुरा मंडल मेरा साक्षात् परातपर धाम है, त्रिलोकी से परे है. उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता.‘ ये सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए. उनका सारा अभिमान गल गया. फिर वहां से आकर उन्होंने मथुरा के व्रज मंडल का पूजन और उनकी परिक्रमा कर के अपने स्थान को पदार्पण किया.

उपरोक्त व्रज मंडल कहीं चला थोड़े ही गया है. जाइये उन तीर्थो का सेवन करिये और महाकुम्भ में डुबकी से भी बड़ा पुण्य उपार्जन कीजिये.

Friday, 31 May 2024

एक नदी कि मौत

बात बहुत पुरानी है।  राजस्थान के अलवर जिले में सेवार नाम का एक छोटा सा गांव था। अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ।  जहाँ नीले आकाश में कपास के गुच्छों  से बादल के टुकड़े तेरते रहते थे। वहीं रहती थी वो नीली आँखों वाली सहिबी। दिन भर रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागना। दूर जाती मेघमाला से होड़ लगाना। कहीं  चुनरी को बहती हवा में  लहरना। हिरनियों सी  कुचालें भरना। कोई नहीं जानता था साहिबी के माता पिता के बारे में; कौन थी ? कहाँ से आई  थी किसी तो भी नहीं पता था। कोई दे देता तो खा लेती । ऐसे ही समय बीतता रहा। 

समय बीता और साहिबी किशोरावस्था को लांघ कर योवन की दलहीज पर आ खड़ी हुई। उसका मन अब फूलों, तितलियों में  नहीं रमता था। उसका मन करता कि सुदूर पर्वत श्रंखला से कोई आये जिससे वो अपने मन की  कह सके। और एक दिन सुदूर पहाड़ियों से सचमुच एक राजकुमार आया । साहिबी ने पूंछा, " तुम्हारा नाम क्या है ?" उसने कहा, " पहले तुम बताओ। " 

"साहिबी", उसके मुँह से निकला। उसे अपनी आवाज  ही अपिरिचित सी लगी। 

"तो मैं साहिब।" कह के वह हँस दिया। 

साहिबी को तो मानो उसके सपनों का राजकुमार मिल गया था। दोनों हरी घास की मखमली चादर पर घंटो लेटे बतियाते रहते। चाँदनी रात में पारिजात के पेड़ तले उनकी बातें समाप्त ही नहीं होने को आतीं । चाँद आकाश में धीरे धीरे सरकता रहता। भोर होती तो पारिजात अपने पुष्प गिरा के उनको जगाता। साहिब कहता , " मैं तुम्हें ले जाऊंगा, जल्द ही"। और साहिबी खिल उठती। 

फिर एक दिन भोर होने को थी। साहिब चलने को हुआ। साहिबी ने कुछ देर और रुकने की अनुनय की। मखमली घास पर बिछी  चुनरी साहिबी ने समेटी ही थी कि पास लगे रात कि रानी के झाड़ से एक सर्प तेज़ी से निकला और साहिब को डस लिया। जब  तक साहिबी कुछ समझ पाती साहिब का शरीर नीला पड़ गया और वह निष्प्राण हो गिर पड़ा। साहिबी उसको जागती रही। पर वो तो जा चुका था। साहिबी की  तो मानो दुनिया ही उजड़  गई। वो न रोयी ; न कोई विलाप किया बस पाषाण हो रही । 

ये सुबह साहिबी के लिए बहुत मनहूस थी। गाँव वाले साहिब के निर्जीव शरीर को ले चले। साहिबी के भीतर कहीं कुछ पिघलने लगा। वो उच्च स्वर में विलाप कर उठी। उसकी सूनी आंखों से इतने अश्रु बहे कि जल प्लावन हो गया। देखते ही देखते साहिबी द्रव रूप हो एक नदी में  परिणित हो बह चली। मार्ग में किसी संत का आश्रम था। संत ने साहिबी को आदेश दिया कि उसके आश्रम से हट कर बहे। पर साहिबी अपने में ही  कहाँ थी। उस आश्रम तो अपने साथ लेते हुए बहने लगी। संत ने साहिबी को श्राप दिया कि तू अधिक दूर तक नहीं बहेगी। जल्द ही विलुप्त ही जाएगी। साहिबी इसी श्राप के साथ बहती रही। 

साहिबी का जल धीरे धीरे कम   होने लगा। वो राजस्थान से होकर रेवाड़ी जिले के समीप से हरियाणा में प्रविष्ट हुई। मार्ग में कुछ सखियाँ मिलती गयीं ; दोहन , कृष्णावती, इंदोरी इत्यादि और साहिबी उन सबको अपने में समाहित कर बहती रही। फिर कोट्कासिम से होती हुई पुनः राजस्थान में आ निकली। पर साहिबी तो शापग्रस्त थी। उसे तो दिल्ली आ के नाले में  तब्दील होना था। इसलिए वो राजस्थान छोड़ जारथल गाँव के समीप से पुनः हरियाणा में प्रविष्ट हो गई। अब तो बस वर्षा ही साहिबी का एकमात्र सहारा थी । हल्की वर्षा में इसकी सूखी छाती सारा जल सोख लेती। जब  वर्षा अधिक होती तो ये जल से परिपूर्ण हो दो भागों मे विभक्त हो झझर तक आ जाती। और अंतत दिल्ली में आ कर नजफ़गढ़ नाले से मिल जाती। 40 किलोमीटर इस नाले के साथ बहते हुए ये यमुना नदी में अपना अस्तितव खो देती। 

लगभग 300 किलोमीटर के इस यात्रा में, साहिबी 157 किलोमीटर राजस्थान में, 100 किलोमीटर हरियाणा में और 40 किलोमीटर दिल्ली में बहती है। ये किसी भी नदी के लिए बहुत छोटी यात्रा है। पर साहिबी के लिए सुकून कि बात बस  ये ही है कि अंत में ये यमुना में जा मिली और इसके साथ बहती बहती कभी तो त्रिवेणी पंहुच गंगा से जा मिलेगी जो अंतत बंगाल कि खाड़ी में अपने सागर में गिरेगी। 

@आशु शर्मा 




Monday, 27 November 2023

साहित्य कम, आज तक ज्यादा

मेरी दो पुस्तकें "शब्दांकुर प्रकाशन" द्वारा पब्लिश की गई हैं। उनकी और से एक आमंत्रण के फ़लस्वरूप मेरा "साहित्य आज तक - 2023" में जाना हुआ। भीड़ तो अच्छी खासी थी पर साहित्य प्रेमी मुझे कम ही दिखायी पड़े। गेट नम्बर 5 के पास कुछ प्रकाशकों के बुक स्टाल लगे हुए थे। वहां शिरकत करने वाले कम ही थे। "शब्दांक़ुर प्रकाशन" पर के. शंकर सौम्य से मिलना हुआ। उनके स्टाल पर अपनी पुस्तकें देख कर प्रसन्नता भी हुई। श्री सौम्य बड़े प्रेम से मिले और सम्मान पत्र दे कर सम्मानित किया। सबसे ज़्यादा भीड़ एक स्थान पर देख कर हम भी वहाँ उत्सुकता वश चले गए। अंदर एक एनक्लोजर में कुछ लिपे पुते चेहरे मुझे दिखाई पड़े। ये वो ही चेहरे थे जिन्हें हम रात दिन चिल्ला चिल्ला कर तथाकथित न्यूज़ पढ़ते देख देख कर उकता चुके हैं। पर उस एनक्लोजर में आम आदमी का प्रवेश नहीं था। वहाँ कुछ विशेष व्यक्तियों को ही प्रवेश की अनुमति थी। फिर भी बहुत से लोग उस लोहे के बैरिकेड से सटे अपने अपने मोबाईल लिए इंतज़ार में थे। तभी एक महिला निकल कर बैरिकेड के पास आई। भीड़ ऐसे उतावली हो गई मानो साक्षात प्रभु ही अचानक वैकुंठ से वहाँ अवतरित हो गए हों। "मैम इधर", "मैम इधर" की आवाज़ें मुखर हो उठीं। और वो महिला नकली मुस्कराहट के साथ सेल्फ़ी के लिए पोज़ देती रही। फिर उसके अंदर लौट जाने पर भीड़ अगली सेलिब्रटी का इंतज़ार करने लगे। हम पीछे OTT स्टेज की तरफ़ लौट आये। पत्नी पीछे की खाली कुर्सी देख कर बैठ गई। स्टेज़ पर एक लड़का सभी दिशाओं में हाथ पैर पटक रहा था। तेज़, न समझ आने वाला संगीत बज रहा था। कभी कभी वो नीचे स्टेज़ पर गुलाटी भी मारता फिर खड़ा हो कर हाथ पैर पटकता। दर्शक सीटियां और तालियां बजा रहे थे। हम जल्द ही वहाँ से उठ गए। साथ के स्टेज़ पर कोई परिचर्चा चल रही थी। जिसमे किताबें लिख कर करोड़पति कैसे बना जाए ये बताया जा रहा था। हम खाने के स्टॉल की तरफ़ बढ़ लिए। जाते जाते मैंने पत्नी से कहा कि ये सब ड्रामा है। तभी साथ निकल रहे दो व्यक्तियों में से जो शायद आयोजक थे, उनमें से एक ने कहा ,"बहुत बड़ा ड्रामा है साहिब। सब पब्लिसिटी है।" मेरी पत्नी का कहना था कि ये दुनिया ही एक रंगमंच है। खैर छोड़िये। खाने की खुशबू से ही, जिसमें प्याज़ और लहसुन की मिली जुली गंध थी, रही सही भूख भी मर गई । हाँ, एक स्टाल पर गर्म जलेबी और समोसे बिक रहे थे। टोकन लेने मुझे कई स्टाल पीछे जाना पड़ा। वहाँ पता चला कि बचे हुए टोकन वापस नहीं होंगें। हिसाब लगा कर टोकन लिए और जलेबी समोसे का आनन्द लिया। पीछे सीढ़ियों पर बैठी एक लड़की अपने साथ बैठे लड़के के बालों में प्यार से हाथ फेर रही थी। सभी स्टालों पर नैपकिन माँगने पर ही मिल रहे थे। हमनें भी नैपकिन माँगे और हाथ पौंछे। सोचा एक एक कुल्फ़ी का भी आस्वादन लिया जाए। अब हम लल्लनटॉप अड्डे पर आ पँहुचे थे। आगे भीड़ ज़्यादा थी। पीछे की कुर्सियों पर हम बैठ गए। शैलेश लोढ़ा से बातचीत चल रही थी। फिर कोई स्टैंडिंग कॉमेडियन आया। एक राज्य विशेष के लोगो पर उसने भद्दी कॉमेडी की और ये कह कर बच लिया कि मैं भी उसी राज्य से हूँ। इन दिनों कॉमेडी की भी कॉमेडी बन गई है। जितनी गालियां दो, कॉमेडी के नाम पर, लोग चुपचाप सुनते ही नहीं, हँसते भी हैं। खैर, अँधेरा घिर आया था और हम भी थक गए थे। गेट नम्बर 3 भी नज़दीक़ था। निकल आये। पूरे समय में, मुझे "साहित्य" कम और "आज तक" ज़्यादा नज़र आया। शायद नज़र कमज़ोर हो चली है। 

Friday, 10 November 2023

माया और मायापति

आज धनतेरस है। सुबह से मित्रों के संदेश आ रहे है कि धनतेरस पर खूब धन धान्य की प्राप्ति हो। साथ में स्वर्ण मुद्राओं से भरा कलश भी है। मैं अपने सभी मित्रों का धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ कि वो मेरे शुभेच्छु हैं। पर इस दिवस का धन से कोई लेना देना नहीं है। आज के दिन देवताओं के वैध धन्वन्तरी समुद्र मंथन से अमृत कलश लिए प्रकट हुए थे। संयोग मात्र ही है कि उनका नाम में "धन' जुड़ा है। बहुत से लोग आज के दिन कुबेर की भी पूजा इस कामना से करते हैं कि उन्हें धन की प्राप्ति हो। मैं ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो दीवाली के दिन नोटों को और सोने चांदी के सिक्कों को पूजते हैं। मेरे विचार से इससे बड़ा आडम्बर नहीं हो सकता कि हम मायापति को छोड़ कर माया की पूजा करें। जैसे पूर्व जन्म के कर्मानुसार बिना चाहे व्यक्ति को दुख-दरिद्रता प्राप्त होती है, ठीक वैसे ही समयनुसार धन-धान्य भी प्राप्त होता है। फिर भगवान को न पूज कर धन को पूजने का औचित्य क्या है? धन संपत्ति को इतना महत्व न दें कि वो भगवान का स्थान ले ले। इस धन त्रियोदशी को देवताओं  के वैध धन्वन्तरी सब को स्वास्थ्य और निरोगता प्रदान करें, आइये इस कामना के साथ ये पर्व मनाएं।

Monday, 1 May 2023

सुखी राम के दास

आज कार्यालय में एक पुराने सहकर्मी आये। वैसे ये कोई पहली बार नहीं था। वो जब भी आस पास से गुजरते हैं, आ ही जाते हैं। अब ये कहना कठिन है कि उनका प्रेम उन्हें मुझ तक खींच लेता है या फिर एक अदद डायरी, कलेंडर आदि की चाह उन्हें मुझ तक ले आती है। मेरे पास ये चीजें न चाहने पर भी कहीं न कहीं से आती रहती हैं। मेरा इन सब से न तो कभी लगाव रहा और न ही अब है। डायरियां तो पड़े पड़े पुरानी हो जाती हैं। कलेंडर भी कुछ महीने बीतने के साथ रद्दी हो जाते है और डस्ट बिन में जगह पाते हैं। बैग इत्यादि मैं या तो स्वीकार ही नहीं करता या फिर किसी को दे देता हूँ। वो सहकर्मी जब भी आते हैं, एक अदद डायरी तो ले ही जाते हैं। आज भी बोले, " साहब, आप इतनी बड़े पद पर हो, एक आध डायरी तो दो।" मैं भी इस मांग का इंतज़ार ही कर रहा था। मैंने पूछा कि आख़िर डायरी का करते क्या हो? बोले, गाँव जा रहा हूँ। लोग मांगते हैं। मैंने कहा आख़िर वो क्या करते हैं। तो बोले, " कोर्ट कचहरी की तारीख़ लिखते हैं, ट्यूब वैल की बिजली का हिसाब रखते हैं, पैसे का लेन देन रखते हैं, आदि आदि। मैं सोचने लगा कि गाँव के लोग तो कमाल के हैं। फिर बोले, " फ़सल तैयार है, बच्चे हैं कि गाँव जाना ही नहीं चाहते। बड़ा बेटा तो विदेश में ही है। उसके दो बच्चे हैं। बेटी बड़ी है तो बेटा पाँच का हो चला है। जानते हैं आज सुबह जब वीडियो कॉल पर हमने पोते से बात करनी चाही, तो अंग्रेज़ी में बोला कि टाइम नहीं है। बड़ा बेटा कहता है यहाँ आ जाओ । मैं टिकिट करा देता हूँ। साहब, हमारा तो मन नहीं लगता। कैद है। क्या बतायें कैद से भी बदतर है। कैद में आप साथी कैदियों से बात तो कर सकते हो। वहाँ किस से बात करें। आ जा कहीं सकते नहीं। हम तो यहीं खुश हैं। हाँ, उसकी माँ कहती है कि जब टिकट करा रहा है तो जाने मैं क्या हर्ज है! जाएंगे। पर अभी तो गाँव जा रहे है।वैसे छोटा वाला भी कनाडा जाने के चक्कर में है। हमने कहा पहले अपना केस तो निबटने दो।" वो अपनी व्यथा सुनाते ही जा रहे थे। मैंने पूछा, "कौनसा केस?" बोलो, "डाइवोर्स का केस चल रहा है।" मैंने कहा, कोई बाल बच्चा है? बोले, "नहीं। ब्याह के एक वर्ष भीतर ही अनबन हो गई थी। तभी से अलग रहते हैं। खाना बाहर से मंगवा लेता है।" मैंने कहा तो तुम साथ क्यों नहीं रहते? कहने लगे, "हमें तो गाँव आना जाना लगा ही रहता है। हम तो जहां हैं वहीं ठीक हैं।" वो चलने को हुए तो मैंने एक डायरी थमा दी। उन्होंने उसे अपने बैग में रखा। और बोले, कोई अच्छा सा बैग वैग दिलवाए। मैंने कहा अब मैंने कोई बैग की एजेंसी तो ले नहीं रखी ! कहने लगे, "कॉम्पलेमेंट्री तो मिल ही जाते होंगे।" मैंने कहा तुम्हें तो पता है मैं कॉम्पलेमेंट्री किसी से कुछ नहीं लेता!  बोले सो तो है। मैं आपको जानता नहीं क्या! वो तो चले गए और मैं सोचने लगा, किसी ने ठीक ही कहा है, "कोई तन दुःखी, कोई मन दुःखी, कोई धन बिन रहत उदास। थोड़े थोड़े सब दुःखी, सुखी राम के दास।"


Thursday, 25 November 2021

स्वाति का जन्म

विवाह को पाँच वर्ष हो चुके थे। बड़ी बेटी अब चार की हो चली थी। मेरा मानना था कि एक ही बच्चा बहुत है। पर पत्नी का आग्रह था कि क्योंकि अकेला बच्चा एकाकी हो कर रह जाता है इसलिए दो तो बहुत जरूरी है। मैं अवाक था। भगवान ने स्त्री को कितनी हिम्मत दी है! पिछली पीड़ा भूल वह फिर वही पीड़ा सहने को सहर्ष  तैयार हो जाती है जिससे उसके बच्चे को अकेले होने का एहसास न हो। जो भी हो ,दूसरी सन्तान का निर्णय हम दोनों का था। प्रभु ने हम दोनों को ही पुत्र मोह से दूर ही रखा है। तो ये कहना ठीक न होगा कि पुत्र मोह के कारण हमने दूसरे बच्चे का निर्णय लिया। बस एक ही इच्छा थी बेटा हो या बेटी जो भी हो स्वस्थ हो। 

समय तो पंख लगा के उड़ गया। जल्द ही वो दिन आ गया जब पत्नी को रेलवे अस्पताल भर्ती करना पड़ा। वैसे वो ठीक थी बस डॉक्टर उसे अपनी निगरानी में रखना चाहते थे।   ये 24 नवम्बर का दिन था। रात आठ बजे मैं पत्नी को अकेले डॉक्टरों के भरोसे छोड़ घर आ गया।  शरीर घर पर था पर मन पत्नी के साथ अस्पताल में। उन दिनों फ़ोन की सुविधा आम नहीं थी। रेलवे का अपना नेटवर्क होता है। रेलवे कॉलोनी में रहने के कारण हमारे ऊपर वालों के क्वाटर में रेलवे फ़ोन लगा था। उसका नम्बर मैं पत्नी को दे आया था जिससे किसी आपातकाल में वो हमें संदेश दे सके। 

रात के दो बजे होंगे कि हमारे दरवाज़े की घन्टी रात का सन्नाटा तोड़ती बज उठी। मैं हड़बड़ा कर उठा और दरवाज़ा खोला। सामने ऊपर वाले पड़ोसी थे। बोले,' क्या आपका कोई अस्पताल में भर्ती है?" मेरे हाँ कहने पर बोले, " आपके लिये अस्पताल से फोन है।"
सीढ़ियां चढ़ते मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप रहा था। फ़ोन उठाने पर दूसरी तरफ से एक नर्स ने पहले मेरा नाम पूछ के पहचान पक्की की। फिर कहा, "बधाई हो। बेटी ने जन्म लिया है।" मैंने पूछा, "पत्नी कैसी है?" पर तब तक फोन रख दिया गया था। मेरा डर काफ़ूर हो गया। मज़बूत कदमों से नीचे उतरा। तब तक मां भी जाग गईं थीं। मैंने उन्हें सूचित किया।  माँ ने कहा, "चल, अस्पताल चलना है।" 

मैंने अपना बजाज सुपर निकाला। माँ को पीछे बिठा हम अस्पताल चल दिये। सड़को पर सन्नाटा बिखरा था। ईदगाह की चढ़ाई पर स्कूटर के साइलेंसर से एक एक कर कई पटाख़े फूटने जैसी जोर की आवाज़ हुई और स्कूटर बन्द हो गया। सड़क किनारे सोये कुत्ते भोंकते हुए हमारे चारों ओर आ डटे। जैसे तैसे हम अस्पताल पहुँचे तो ऊपर जाने का रास्ता सब तरफ़ से बंद था। आपातकालीन द्वार की तरफ से हम ऊपर पहुँचे। पत्नी को तब स्ट्रेचर पर वार्ड में ले जाया जा रहा था। पास लेटी थी एक नन्हीं परी, पतले पतले गुलाबी होंठ थे जिसके। मैंने पत्नी से पूछा, "ठीक हो?" वो हल्के से मुस्करा दी। उसकी फीकी सी मुस्कान बता रही थी कि वह दर्द में थी।

तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। उस दिन जोर की बारिश से दिल्ली की सड़कें जल प्लावित थीं। पानी सुबह से बरस रहा था। थ्री व्हीलर पर उसे ले जाना मुझे उचित नहीं लगा। टैक्सी बुक कर मैं अपने स्कूटर के साथ पोर्च में ले आया। मेरी छोटी बहन की गोद में मेरी बिटिया थी। अस्पताल की सीढ़ियां उतरते हुए मेरी बहन के कदम लड़खड़ाए और उसकी गोद से नवजात शिशु छिटकते हुए बचा। एक घड़ी को मेरा कलेजा मुँह को आ गया। टैक्सी के पीछे  मैं अपने स्कूटर को चलाते हुए, माँ और बच्चे को घर ले आया। घर आते आते मैं पूरी तरह से भीग गया था। पर संतोष था कि माँ और बेटी सुरक्षित थे। 

आज इस बात तो 32 वर्ष हो चुके हैं। मेरी बेटी अब एक और प्यारी सी बेटी की माँ है। आज उस का जन्मदिन है। मुझे लगा कि उसके जन्म की कहानी से अच्छा और क्या तोहफ़ा हो सकता है इस दिन पर देने के लिए। 

बड़ी बेटी के जन्म की घटनाएं भी मेरे मानस पटल पर साफ़ साफ़ अंकित हैं। उसके अगले जन्म दिवस पर उसे उसके जन्म की कहानी सुनाऊँगा। 
  

Sunday, 21 November 2021

पापा का पर्स

आज एक सहकर्मी की अंतिम क्रिया में जाना हुआ। वापस आते ही गुसल में घुसा, सारे कपड़े भिगोये और नहा लिया। गीले वस्त्रों को वाशिंग मशीन में डाल भोजन किया और सो गया। शाम को जब बाजार जाने लगा तो पर्स की खोज हुई। आमतौर पर मैं पर्स ब्रीफकेस में रखता हूँ या फिर दराज़ में डाल देता हूं। नहीं तो क्रॉकरी रैक पर छोड़ देता हूँ। पर आज तो पर्स नदारद था। सोचा गाड़ी में तो नहीं रह गया पर वहाँ भी नहीं मिला। तो घटनाओं की कड़ियों को पीछे से जोड़ना शुरू किया। अंतिम बार पर्स घाट पर जाते समय पेंट की पिछली जेब में था। तो कहीं पेंट के साथ वाशिंग मशीन में तो नहीं चला गया! मशीन तो अपना वाशिंग साइकल पूरा कर कब से रुक चुकी थी। जल्दी से मशीन खोल कपड़े निकाले। जिसकी आशंका थी वही हुआ। पेंट के साथ उसकी पिछली जेब मे पड़ा पर्स भी धुल चुका था। कुछ पांच सौ के नोट थे जो गीले होकर एक दूसरे से चिपक गए थे। चंद पुराने नोट भी थे उनकी हालत तो बयां करने काबिल ही नहीं थी। दो डेबिट कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड और ड्राइविंग लाईसेंस की भी हालत अच्छी नहीं थी। पर्स तो पूरी तरह से बूझी बन चुका था। पांच सौ के नोट तो इस्त्री कर सुखा लिए। पर अजीब तरह से कड़क हो गए हैं। पता नहीं चलेंगे या नहीं। कार्ड भी प्रयोग के बाद ही पता चलेंगे कि बदलने पड़ेंगे या नहीं।

समस्या थी पर्स की। इस समय पर्स कहाँ से लाया जाये। अचानक पापा के ब्रीफकेस की याद आई। पिछली बार उनके पुराने कागज़ात संभालते हुए एक Benetton का लेदर का नया पर्स डिब्बे में रखा देखा था। पापा कभी पर्स नहीं रखते थे। उनके पैसे उनकी शर्ट या पेंट की जेब में ही रहते थे। आई कार्ड के बीच में या पॉलीथिन में लिपटे हुए। उनका मानना था कि पिछली पॉकेट में रखा पर्स जेब कतरों को आकर्षित करता है। दुःख तब होता था जब इतनी सावधानी के बाद भी उनकी जेब से पैसे या तो गिर जाते थे या कोई बस में निकाल लेता था। पर वो पर्स कभी नहीं रखते थे। ये पर्स भी शायद उनकी पोती ने गिफ्ट दिया था जिसे उन्होंने बिना प्रयोग किये संभाल कर उसके ऑरिजिनल पैकिंग में रख छोड़ा था। शायद मेरे लिए! आज उनके जाने के इतने वर्ष बाद मुझे उस पर्स की ज़रूरत हुई तो मैंने निकाल लिया। पापा जहाँ कहीं भी होंगें जरूर खुश होंगे कि उनकी संभाल के रखी चीज़ आज मेरे काम आ ही गई। वह हमेशा अपनी चीज़े हमें दे कर खुश होते थे।