Thursday, 28 December 2017

Returning from Canada-24.12.2017

I am at Toronto Airport. My return flight is scheduled to leave at 21:25 on 24th.  I am at the Airport well ahead of time amidst snow. It is 18:15 of 24th. The information board is showing 15 minutes delay in departure.

It is 20 Hrs and I am feeling hungry. I have taken two rounds of the airport in search of some food which I can consume. Food restrictions with us is a big problem. At Delhi, Haldi Ram snacks were available. But here no such snacks are seen. I knew it earlier but still hoped against hope to find something.

Then it struck to me that I have two Aaloo-prantha packed by my wife. I open the neatly packed "dinner" and start eating. These aaloo-pranthas laced with lemon pickle is a real treat. A piece of sweet packed separately in a silver foil is an icing on cake. I hurriedly finish dinner and drink water from a nearby tap. Now I am ready to board.

At 21 hrs, the boarding has started. I am in my seat hoping that plane will take off in next 40 minutes. But I was wrong. It is 22:15 and the boarding gates are still open.

The captain announced that they are waiting for the passengers from a connected flight which has  delayed due to bad weather. The wait is becoming endless. Every announcement brings nothing but a routine apology for the delay.

Some passengers has just boarded. Crew is guiding them to their seats.
It is 23:30. The boarding gates have been closed and the aircraft is being taken for deicing- a process to clean snow from the aircraft's body.

Engines have been started. The Aircraft is yet to be taken for deicing. Snow is continuing without respite. Then there is another announcement from the caption.

There is some problem with the electrical system of the aircraft. It is being taken back to the gate so that maintenance people could attend the snag.

Snag reportedly rectified. Captain is going to run the engine at gate to test and confirm. The captain announced that the test has failed.Snag still persists. Captain is now taking to the manufacturer.

No words wheather this flight will go or not.

Finally, at 1:55 am of 25th , boarding gates are closed. The Aircraft is being taken for deicing.

It is 2:30 am of 25th. The plane is on runway. Started running and is air borne now.

A complete 5 hours delay is there. Expected to land at New Delhi at 2:30 am on 26th after 12 hrs flying.

Let me catch some sleep.

Canada Diary-03.12.2017

All luggage had been packed. We had been trying to accomplish this insurmountable task for the past three days. After all, we were going to Canada to see our daughter. Her mother  painstakingly collected small kitchenware items, cloths etc. in spite of my reservation. I was worried about the total weight allowed by the Airline. 

Finally, the day had arrived for our departure. I booked a cab. Around 7:30 we left for the Airport. The flight was scheduled to go past mid-night at 00:45 Hrs. We  reached Airport within an hour. All formalities did not take much of time against my expectations. And we still had three hours with us to spend at Airport. 

We had with us home-made dinner. We also packed lunch and dinner for the next day as we were aware that the Airline would not serve us the food of our choice. We had dinner and  waited for the boarding. It was around midnight when the boarding  started. Now we had seated in plane where we were going to spend next 15 hours. 

The flight took off on time. At 1:00 AM we were air borne. We were tired and wanted to sleep but the Airline crew started serving food. It was around 2:30 AM when the passengers finished food and air crew collected garbage. The lights were  then put off. Most of the passenger were busy watching the screen in front of them. We tried to catch some sleep but it evaded us. I started seeing the map. The plane had crossed Indian territory and was flying over Lahor.

The night in India should have ended in next few hours. But our night was to stretch for another 12 hours. For us, the day of 4th was  to break after 24 hours. We kept flying in the dark over unknown and unheard territories; over unknown oceans and over Greenland before the day broke for us. A 24 Hrs night was never experienced before. This was our first flight between two-time zones. 

Half-slept and half-awoke, we landed at Toronto Pearson International Airport - some 12000 kilometer away. Immigration was fast but the baggage collection took almost an hour. Our daughter and son-in-law were waiting outside. 




While travelling to home, I saw houses with slanting roofs. These were artistically laid in a row. Almost all had four-side open architecture. In the back yard there seemed enough space for gardening. Some houses were decorated with lights and Christmas tree.

Roads were deserted in this wee morning hours. Traffic lights were in blink mode. I was surprised to see the way drivers were invariably exercising  caution at cross road. Trees had shed their leaves. Outside temperature was 4 degrees Celsius. The sun had not yet come up. 

After half an hour drive, we  reached home.

Saturday, 23 December 2017

अपना परिवेश

जब भी मैं किसी मॉल, पांच सितारा होटल या किसी आधुनिक पार्टी में  जाता हूं, अपने को इन सब में बिल्कुल अजनबी पाता हूँ। कुछ ही देर में मेरी असहजता इतनी बढ़ जाती है कि वँहा मैं बस औपचारिकता वश ही ठहर पाता हूं। मेरे अंदर से कोई मुझे बार-बार वँहा से बाहर  धकेलता है; कि चल ये कँहा आ गया! तेज आवाज़ में चलता संगीत, तेज चकाचोंध रोशनियों से चमकती दुकानें,एक बेतरतीब सी भीड़- इधर उधर जाती हुई। आधुनिकता से परिपूर्ण लिबास, नकली मुस्कराहट ओढे चेहरे - ये कँहा आ गया मैं ?

इन सब से बाहर आकर जो चैन मिलता है वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे जैसे ये शोर,लाइटे और ये नकली दुनियाँ पीछे छूटती जाती है मैं सहज़ होता जाता हूँ। कुछ कुछ ऐसा सा लगता है जैसे गाड़ी के आने पर जो शोर उठा था प्लेटफार्म पर, उसके चले जाने के बाद  रह गया है पसरा हुआ सन्नाटा और ठहरी हुई शांति । पीछे रह गई है ठंडी पटरियां और दूर सिग्नल की लाल बत्तियां। आसमान पर टँगा चाँद और समान ढोने की गाड़ी में गुड़मुड़ी मारे कम्बल लपेटे सोता कुली। ऐसा सा लगता है जैसे जैसे मैं दूर होता जाता हूँ।

शायद मैं किसी ग्रामीण परिवेश से आया हूँ। पर मेरा तो कोई गाँव ही नहीं। मेरा तो जन्म ही महानगर में हुआ था। पिछले जन्म में जरूर कँही ग्रामीण परिवेश में रहा हूंगा। उसके संस्कार अभी तक शेष हैं। मुझे मिट्टी की सोंधी सुगंध बहुत भाती है। नीम के पेड़ों से आती महक, खेतों में फूली पीली सरसों, अरहर के खेत, गन्ने की फसलें, कुंओ पर लगे रहट, कल-कल की ध्वनि कर बहती नदी, उड़ती तितलियाँ और भोरें, नाचते मोर, कुलाचें भरते हिरन, फुदकते खरगोश, दौड़ती गिलहरियां और भी बहुत कुछ मैं बस कल्पना ही करता हूँ। कँहा महानगर में बीत गई जिन्दिगी। कँहा ये चकाचौंध और कँहा वो प्रकृति। जाने लोग महानगर क्यों चले आते हैं अपना सुख चैन खोने। कितना सुख है अपने परिवेश में!

Saturday, 11 November 2017

अन्दर की सुंदरता

आज शाम आस्था चैनल पर भागवत कथा का रसास्वादन कर रहा था। कथा वाचक ने बताया कि उनके एक संत मित्र है वह अक्सर ये कहते हैं कि आजकल दिखावट का, सजावट का और बनावट का जमाना है। अच्छे हैं या नहीं, अच्छे दिखना सब चाहते है। सुंदर हैं या नहीं, सुंदर दिखना सब चाहते हैं। कितनी गहरी बात है। अच्छा होना, सुंदर होना यँहा बाहरी नहीं है वरन भीतरी है। असली सुंदरता भीतरी संस्कारो से, भीतरी गुणों से होती है न कि बाहरी आडम्बर से , वस्त्रों से या लीपा-पोती से। पर आजकल तो सौंदर्य प्रसाधनों की भरमार है और क्या लड़के क्या लड़किया सबमें एक दूसरे से अधिक सुंदर दीखने की होड़ लगी है। विज्ञापन इस प्रतिस्पर्धा को और हवा दे रहे हैं। गुण विहीन और संस्कार विहीन ये पीढ़ी कँहा जा रही है? आज़कल की आधुनिकता की कसौटी ये है कि जितने ज्यादा आपके बॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड है आप उतने ही आधुनिक है। आप  लिव-इन रेलशनलशिप में रहते हैं या उसे ग़लत नहीं मानते तो आप की  सोच फारवर्ड है वरन आप बैकवर्ड हैं। आप शराब, सिगरेट पीते है तो आप सोसाइटी में उठने-बैठने लायक़ हैं वरन आप तथाकथित उच्च सोसाइटी में शिरक़त करने लायक नहीं हैं। अधिकारियों के लिए तो ये शौक फ़रमाना बहुत ही ज़रूरी माना जाता है वरना लोग आपसे ये पूछते भी संकोच नहीं करते कि अरे आप अधिकारी कैसे बन गए। कुछ तो इससे भी आगे जा कर ये भी पूछते है कि आपने इस धरती पर आ कर कुछ किया ही नहीं जब ऊपर जाओगे तो ऊपर वाले को क्या जवाब दोगे? ये वह जमात है जो ये समझती है कि भगवान ने इन्हें यही सब करने के लिए इस धरती पर भेजा है। क्रोध भी आता है और तरस भी। पर इन सवालों के जवाब में कुछ न कह कर बस एक हल्की सी मुस्कराहट से ही काम चल जाता है। और यही इन सवालों का उचित जवाब भी है। खैर, मैं बात कर रहा था ऊपरी आडम्बर की । एक संत ने इसे बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है। उन्होंने कहा कि मल-मूत्र से भरे घड़े को बाहर से कितना ही सज़ा लो, उसके अंदर भरी गंदगी गंगा जल में तो नहीं बदल जाएगी। अच्छे से तैयार होकर रहना कोई ग़लत बात नहीं है। पर साथ-साथ हमें अपने अन्दर के गुणों को भी विकसित करना ज़रूरी है। ये वह सुगन्ध है जो कस्तूरी की सुगन्ध की भांति बिना कस्तूरी के दिखे भी चंहु और फैलती है।

Tuesday, 7 November 2017

दिल्ली - एक गैस चैंबर

नवम्बर मध्य की एक  सुबह नोएडा जाना हुआ। एक गर्डर लॉन्चिंग फंक्शन था। दिन के साढ़े दस बजे होंगे। निज़ामुद्दीन पुल पर जो कि आम तौर पर साफ़ रहता है, धुंध की गहरी चादर ढकी थी। ये सर्दियों की आम धुंध नहीं थी वरन हवा की ज़हरीली चादर थी जिसने पूरी दिल्ली को ढका हुआ है। ये इतनी घनी थी कि थोड़ी दूरी पर भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। अक्षर धाम मन्दिर की विशाल इमारत भी सड़क से नहीं दीख पड़ रही थी। ये चादर थी PM 2.5 की। इसे पार्टिकुलेट मैटर 2.5 भी कहते हैं। इन सूक्ष्म कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर या उससे भी कम होता है। यह कण ठोस या तरल रूप में वातावरण में होते हैं। इसमें धूल, गर्द और धातु के सूक्ष्म कण शामिल हैं जिसमें सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड शामिल है।

हवा में तैरते यह सूक्ष्म कण बढ़ते स्तर के साथ हमारे स्वास्थ्य पर सीधा असर डालते हैं। हमारे फेफड़े, सांस लेने की क्षमता और पूरा श्वसन प्रणाली तंत्र इस प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इसका 0-50 का स्तर सुरक्षित माना जाता है। 51-100 तक  का स्तर मॉडरेट माना जाता है। 101-200 तक का स्तर असुरक्षित माना जाता है। 201-300 तक इसे अत्यधिक असुरक्षित की श्रेणी में रखा गया है। 300 से ऊपर ये स्तर ख़तरनाक हो जाता है। उसी शाम 7 बजे दिल्ली में एक स्थान विशेष में इसका स्तर 638 मापा गया। ये एक दिन में 45 सिगरेट पीने के बराबर है। बाद के दिनों में तो ये स्तर 900 से भी ऊपर पँहुच गया था।

आप शायद अनुमान भी नहीं लगा सकते कि उसी दिन कनाडा के टोरंटो शहर में PM 2.5 का स्तर क्या था- इसका स्तर मात्र 25 था!! और वँहा इसका स्तर 5 से 46 के बीच ही रहता है।

तो क्या हम गैस चैम्बर में नहीं रह रहे हैं?क्या दिल्ली- हमारी दिल्ली रहने लायक रह गयी है? शायद नहीं। पर जाएं तो कँहा जाएं? मुझ जैसे बहुत से लोग नोकरी के चलते या फिर और पारिवारिक कारणों से दिल्ली में रहने को बाध्य हैं। पर क्या दिल्ली छोड़ कर अन्यत्र जाना कोई विकल्प है? मेरे विचार से ये कोई विकल्प नहीं है। और हम क्यों छोड़े दिल्ली? क्यों न इस स्थिति को बदलें।

आप कहेंगे कहना आसान है पर करना कठिन। ये तो सरकार का काम है । उसे करना चाहिए। और हम कर भी क्या सकते हैं? हमारे पास संसाधन ही क्या हैं? पर सच तो ये है कि ये मात्र बहाने हैं। कई सारे उपाय हैं जो बिना संसाधन आसानी से किये जा सकते है। उदाहरण के लिए, अपने घर के आस पास पानी की छिड़काव की जा सकती है जिससे धूल न उड़े। स्वेच्छा से कार पूल की जा सकती है। वृक्षारोपण किया जा सकता है। कचरा जलाने से बचा जा सकता है। यदि आप मकान बनवा रहे है या मरम्मत करा रहे हैं तो कुछ समय के लिए उसे रोका जा सकता है। और ऐसे बहुत से उपाय हैं जिन्हें हम स्वेच्छा से कर सकते हैं।

पर हम तो स्वतंत्र है। डंडे की भाषा ही समझते है। सरकार यदि ये नियम थोप दे तो उसे कोसते हुए हम इन नियमों को बाध्य होकर मानेंगे। और हम में से कुछ तो ऐसे हैं जो तब भी नहीं मानेंगे। पकड़े जाने पर गर्व से जुर्माना देंगे और अपनी बहादुरी का ढिंढोरा पीटेगें। मुझे याद है पिछले वर्ष जब ओड-इवन लागू हुआ था तो कुछ लोगों ने जानबूझकर ओड डेज में इवन नम्बर की गाड़ी निकाली और चालान दिया। और यही नहीं, मीडिया में ये भी कहा कि हम तो चलायेंगे, जितनी बार चालान काटोगे, देंगे। कुछ ने तो 8 नम्बर पर मिट्टी लगा के उसे 3 बना कर ट्रैफिक पुलिस की आंखों में धूल झोंकने की नाकाम कोशिश की।

ये सब क्या है? ये सब ये दिखाने की कोशिश है कि हम नहीं सुधरेंगें। दिल्ली होती रहे प्रदूषित, देश होता रहे विदेशों में बदनाम, हमें क्या? हम तो स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं जो जी चाहेगा करेंगे। यही सोच हमें विदेशों के नागरिकों से अलग करती है। वँहा के नागरिक अपने देश से प्यार करते हैं। नियम पालन करने में गर्व महसूस करते हैं।

मेरी बेटी जो कैलिफोर्निया में थी उसने बताया कि वँहा रेड लाइट सड़क पार करने वाले पैदल लोग नियंत्रित करते हैं। यदि आपको सड़क पार करनी है तो आप सड़क किनारे लगा बटन दबा दें तो  ग्रीन लाइट रेड हो जाती है। सड़क पर भागती गाड़ियां उसका सम्मान करती हुई थम जाती हैं। आप सड़क पार करिये, दूसरी और लगा बटन दबा कर रेड लाइट फिर से ग्रीन करिये और गाड़ियां चल पड़ेगी।

और एक हम हैं-एकदम विपरीत। रेड लाइट पर भी या तो रुकेंगे नहीं। और यदि रूक भी जाएंगे तो हम कार या बाइक को धीरे धीरे सरकाते रहेंगे और मौका देख कर रेड लाइट जम्प करके भाग जाएंगे। मुझे तो पीली लाइट पर गाड़ी रोकते हुए डर लगता है। क्योंकि मेरे पीछे आने वाला लगातार हॉर्न दे कर बता रहा होता है कि उसकी रुकने की कोई मंशा नहीं है। और यदि मैं रुका तो कुचला जाऊंगा। यँहा स्थिति ऐसी है कि आप चाह कर भी नियम पालन नहीं कर सकते।

हम नियम तोड़ने में गर्व महसूस करते हैं। समस्या ये है कि दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद हमें जो आज़ादी मिली वह बिना ज़िम्मेदारी के मिली। यँहा हम रेड लाइट जम्प करने को आज़ाद है। सड़क पर बाइक पर सर्कस करने को आज़ाद है। कूड़ा जलाने को आज़ाद है। प्रदूषण फैलाने को आज़ाद है। बिना हेलमेट बाइक चलाने को आज़ाद हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग करने को आज़ाद हैं। नदियों  में कैमिकल बहाने को आज़ाद है। वो सब कुछ करने को आज़ाद है जो करना मना है। औऱ इतना ही नहीं, हम मात्र आज़ादी का दुरुपयोग ही नहीं करते वरन उस दुरुपयोग पर गौरान्वित भी महसूस करते है। यदि बुराई बुराई के रूप में आये तो उसे सुधारा जा सकता है। पर यदि बुराई अच्छाई के रूप में सामने आये तो उसका सुधार संभव नहीं।

ऐसे में सरकारें कुछ भी क्यों न कर लें, स्थिति में आपेक्षित सुधार नहीं हो सकता। आवश्यकता है हमें ज्यादा ज़िम्मेदार बनने की। सरकार के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने की। मात्र सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। अदालतें भी कुछ खास नहीं कर पाएंगी। कितने ही ट्रिब्यूनल बन जाएं, कुछ अन्तर नहीं आने वाला जब तक हम- इस शहर के निवासी अपना आचरण न सुधारें।

केवल आज़ादी अराजकता लाती है। जिम्मेदारी के साथ आज़ादी एक ऐसे समाज का निर्माण करती है जो सम्मान के साथ रहने लायक हो। जँहा हम नियमो के पालन में गर्व करें न कि नियमो के उल्लघंन में। जँहा हम कह सके कि दिल्ली हमारी है, देश हमारा है हम ही सँवारेगे हमें ही सँवारना है।

Tuesday, 31 October 2017

मेरा गांव -एक कल्पना

मेरा छोटा सा गावँ दूर हिमाचल की पहाड़ियों के नीचे बसा है। कल ही यँहा पँहुचा हूँ। कार की इस लम्बी यात्रा के पश्चात यँहा आ बहुत सुकून मिलता है। आज की संध्या आखरी है। कल लौटना है। मैं बाहर कुछ दूर टहलने निकल आया हूँ।

मेरा घर गावँ का अंतिम घर है जिसके बाद गहन जंगल फैला है दूर दूर तक। आधुनिकता से दूर, बहुत दूर इस गाँव के लोग सीधे साधे भोले बाशिंदे है जिनकी पहाड़ो पर खेती है। कहने को खेती है पर पैदावार इतनी ही होती है जिससे गुज़ारा चल जाये। जंगली सूअर, हिरण, नीलगाय जैसे पशु और तोते जैसे पक्षी काफी फ़सल बर्बाद कर देते है। यूँ तो किसान बीच खेत में छप्पर डाल रात में रुकते भी हैं पर फिर भी फ़सल पूरी तरह से सुरक्षित नहीं रख पाते। फिर रात में अकेले रुकना निरापद भी तो नहीं।

जैसा नाम है मेरे प्रदेश का वैसा ही रुप भी है। हिम के आँचल सा फैला, उसके विशाल वक्षस्थल को मानो ढकता हुआ सा है मेरा प्रदेश। यँहा की हवा कितनी स्वच्छ है। साँस लेता हूँ तो गहरी साँस ले कर फेफड़ो में भर लेने को जी करता है। दिल्ली की दूषित हवा से काले हो चुके फेफड़े हर साँस के साथ गुलाबी रंगत पाते जाते हैं। एक ऊर्जा का संचार हो रहा लगता है। धमनियों में बहता लहू अपनी रंगत फिर से पा तेज़ी से दौड़ने लगता है।

दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है चलते चलते। पहाड़ो पर चलने की आदत कँहा रही अब! नीला अम्बर यँहा बहुत नीचे आ गया लगता है। शायद मैं ही ऊंचाई पर हूँ। ऊँचे ऊँचे देवदार और चीड़ के वृक्षों के बीच साँय-साँय करती हवा एक अजीब सा संगीत गाती प्रतीत होती है। जब ये संगीत लहरी कर्णपुटों में प्रवेश करती है तो मन उदास हो उठता है। दूर कँही कुछ महिलाएँ हिमाचली लोक संगीत उच्च स्वर में गा रही है। कोई चरवाहा शाम ढले भेड़ो का झुंड ले कर लौट रहा है ,मधुर बांसुरी की तान पर कोई लोक धुन बजाता। बीच बीच में उसका भेड़ो को हाँकने का स्वर भी सुनाई देता है। सूर्य भी अस्ताचल में लौट रहे है। घरों से धुआँ उठना शुरू हो चुका है। जल्द ही मेरा गाँव सो जाएगा।

मेरे घर का ठीक पीछे एक पानी का कुंड है। रात में बाघ वँहा पानी पीने आता है। उसके आने पर उसके शरीर की गंध जो जलते ऊन से निकली गंध से मिलती जुलती है उसकी उपस्थिति का एहसास करा देती है। वैसे भी वह तेंदुए की तरह दबे पाँव नहीं आता। हल्की हल्की दहाड़ और घुर्राहट से भी वह अपने आगमन की सूचना देता है। वैसे वह एक जेंटलमैन बाघ है यदि आपको ये संबोधन उचित लगे तो। आज तक उसने किसी ग्रामीण पर हमला नहीं किया। अधिक से अधिक बाहर अहाते में बंधे भेड़-बकरी ही उसका निशाना होते हैं यदि वह क्षुधा पीड़ित है तो। और कई बार तो गांव वाले उसके मुंह से शिकार खींच भी लेते है।

रात हो चली है। आकाश में पूर्णिमा का चांद चमक रहा है। अचानक हवा में जले ऊन की सी गंध घुल गई है।अहाते में बंधे पशु भी अचानक बेचैन हो गए हैं। शायद वह पानी पीने आ रहा है। मैं भी अंदर आ जाता हूं और कुंडी लगा लेता हूं। सुबह जल्दी ही दिल्ली के लिए निकलना है। ड्राइवर खाना खा कर सो चुका है। भोजन की इच्छा नहीं है। मैं भी अपने बिस्तर पर आ लेटता हूँ। बाहर से हल्की हल्की घुर्राहट आ रही है। शेष सन्नाटा बिखरा है। बस झींगुर अपना संगीत बजा रहे हैं। साँय-साँय करती हवा मेरी टिन की छत मानो उड़ा ले जाना चाहती है। पलकें बोझिल हैं। मैं स्वप्निल संसार में जा चुका हूँ। हिम आच्छादित चोटियों के बीच तैर रहा हूँ। देवदारों के सबसे ऊँचे वृक्ष से भी ऊपर उठ चुका हूँ मैं। सफ़ेद बादलों के रुई के गुच्छों से अठखेलियाँ करता सारी चिंताओं से मुक्त हूँ। यँहा से देख पा रहा हूँ तो बस वो है मेरा   गांव।

Friday, 20 October 2017

एक अलग दीवाली

कल दीवाली थी। पर एक अलग सी दीवाली थी। नहीं था पटाखों का शोर। नहीं थी आतिशबाजियाँ अपनी विभिन्न रंगों की रोशनी से अमावस के आकाश को आलोकित करतीं। नहीं था दम घोटने वाला धुआँ। न ही थी बारूद की चिर परिचित गन्ध। न थी फुलझडियां, न चकरी, न अनार। न ही उतरे थे घरों से नीचे लोग मिलने जुलने।  दूर कभी कभी कोई आतिशबाजी आकाश को रंगों से भर देती। कहीं कोई इक्का-दुक्का बम धमाका कर नीरवता को भंग कर देता। शान्त, अनमनी सी बत्तियां जरूर जल रही थी। पेड़ो पर लगी ये लाइटे यूँ तो देखने में सुन्दर लग रही थीं पर वह छोटी सी चिड़िया जो इन झरमुटों में अपना रैन बसेरा करती थी आज परेशान थी। इतनी रोशनी में उसे समझ नहीं आ रहा था कि अभी दिन है या रात ढल चुकी है। मच्छरों के झुंड के झुंड तेज हैलोजेन लाइट के ऊपर मंडरा रहे थे। अगली सुबह मैंने इन्हें कार्पेट की तरह नीचे बिछा पाया। प्रेम करना तो कोई इनसे सीखे।  कुछ लोग तीन पत्ती से लक्ष्मी जी को अपनी ओर लाने के प्रयत्न में थे।

पत्नी के साथ बाहर टहलते हुए अंजीर के ऊंचे पेड़ के नीचे लगे छोटे पेड़ो को देखकर मैंने कहा कि देखो ये छोटे पेड़ कितने सुरक्षित हैं कि इनके ऊपर कोई बड़ा है। घर में सबसे बड़ा होना भी कितना असुरक्षित सा लगता है। ये दीवाली अलग सी है। इसलिए भी कि यह पहली दीवाली है जब पिताज़ी साथ नहीं है। ऊंचा सा वो वृक्ष जो विगत पांच दशकों  से भी अधिक समय तक हमारे ऊपर था, आज नहीं है। अचानक लगने लगा है कि उस वृक्ष की जगह शायद मैं खड़ा हूँ। हाँ, ये दीवाली अलग थी।

Monday, 25 September 2017

आदतें कँहा छूटती हैं

आदत बहुत बुरी होती है। और आदत जितनी पुरानी होती जाती है उतनी ही जिद्दी भी हो जाती है। अंग्रेज़ी की एक कहावत भी है कि पुरानी आदतें मुश्किल से छूटती हैं। आदत चाहे अच्छी हो या बुरी जब छोड़नी पड़ती हैं तो बहुत तंग करती है। जब बेटियां विदा हुईं तो वर्षों लगे उनके बिना रहने की आदत डालने में।

पिछले कुछ ही महीनों में तीन पुरानी आदतें फिर से छोड़नी पड़ी है। पिछले तेरह वर्षों से जिसके साथ दोपहर का भोजन करने की आदत थी वो मित्र रिटायर हो गए। जिस अधिकार से वह मेरे भोजन में से हिस्सा बटाते थे और यह कहते नहीं अघाते थे कि भाभी ने मेरे लिए भी तो भेजा है, जब भी खाने बैठता हूँ याद जरूर आता है।

उसके कोई महीने बाद ही पिताज़ी चले गए। हालांकि उनसे मेरा संवाद कम ही होता था पर पिछले 58 वर्षों से उन्हें देखने की जो आदत थी अब छोड़नी पड़ रही है। उनका समान जिसे उन्होंने जीवन भर सहेजा था, उसे मैं इधर-उधर कर के हटा रहा हूँ। उनकी तस्वीर भी अभी उठा कर रख दी है। उन्हें देखने की आदत छोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ।

ऑफिस की शाम 5 बजे की चाय पिछले 12 वर्षों से जिस मित्र के साथ पीता था उनका  भी पिछले दिनों स्थानांतरण हो गया। हमारा चाय का नियम इतना पक्का था कि 5 बजे के बाद लोग उन्हें मेरे नम्बर पर फ़ोन करते थे। जब से वह गए हैं शाम की चाय पीनी बंद कर दी है। एक और पुरानी आदत छोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ।

ये कमबख्त आदतें मगर कँहा छूटती हैं आसानी से।

Monday, 18 September 2017

पहाड़ो की एक शाम

दूर पहाड़ियों की तलहटी में एक छोटा सा गांव है। बामुश्किल पचास घर होंगे। घर क्या हैं फूस की झोपड़ियां है। चारो तरफ़ ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से घिरा। शाम जल्दी घिर आई है। ऊँचे चीड़ और देवदारों के पेड़ों के पीछे सूर्य डूब रहा है। जल्द पश्चिम की पहाड़ियों में कँही अस्त हो जाएगा। सर्दियों की शाम पहाड़ो पर वैसे ही अकेली और उदास होती है। पक्षियों का कलरव बढ़ता जा रहा है। कुछ ही देर में शान्त हो जाएगा। पहाड़ो पर कटावदार खेती हो रही है। शाम के झुटपुटे में दिन भर के क्लान्त किसान घर लौट रहे है। कम्बल में लिपटी धीमी चाल से चलती ये आकृतियां बढ़ी जा रही है अपने अपने घरों की ओर। झोपड़ियों से धुआँ उठ रहा है। चूल्हे जल गए हैं। माँ रात के भोजन को तैयार करने के उपक्रम करती हुई गीली लकड़ियों को सुलगाने की कोशिश में है। पर लकड़ियां जिद पर अड़ी है। बस धुआँस रही हैं। माँ के सीने में और फूकने की ताकत नहीं बची। थक कर पीछे बैठ गई है।  धुंए से जलती आंखों को पल्लू से पोंछती हुई। लालटेन लिए बड़ी बेटी आती है। लालटेन को नियत स्थान पर टांग कर माँ के पास पड़ी फूकनी उठा लेती है। दो चार प्रयत्न से चूल्हे में आग दहक उठती है। धुँआ अब कम है। माँ पुनः भोजन बनाने में व्यस्त है। बेटी उसका हाथ बटा रही है। थोड़ी देर में परिवार जुट जाता है। पंगत में बैठे घर के चार सदस्य भोजन परोसे जाने के इंतज़ार में हैं। जल्द ही बेटी सबके आगे पीतल के कंडल वाले थाल रख देती है। सरसों का गर्म साग सफेद माखन के लोंदे से सुसज़्ज़ित है। मक्का की लाल लाल सिकी रोटी पर घी चिपडा गया है। पीतल के ही बड़े गिलासों में पानी रखा है। बेटा पिछवाड़े में जाकर कच्ची प्याज उखाड़ लाया है। अच्छी तरह से धोकर प्याज भी थाल में रख गई है बेटी। चूल्हे की गर्मी से ओसारा गर्म हो गया है। भोजन से तुष्टि, पुष्टि और क्षुधा निवृति तीनो एक साथ प्राप्त होती हैं। परिवार भोजन कर उठ चुका है और गुड़ की डली का स्वाद ले रहा है। बेटी अपना और माँ का खाना लगा रही है। चूल्हे की आग मद्धम हो चुकी है। माँ ने दूध का पतीला चूल्हे पर टिका दिया है। कई बार गर्म हो चुका दूध गाड़ा हो कर हल्की लाल रंगत ले चुका है। मलाई की मोटी परत पड़ चुकी है। रात सोने से पहले गर्म दूध गुड़ के साथ देना है। पहाड़ो की गोद मे एक और दिन समाप्ति की ओर है।

Monday, 14 August 2017

बच्चों की नानी का घर

बच्चों की नानी के घर का नीम का बरुआ भी बच्चों के साथ साथ बड़ा हो गया है। छोटा सा पौधा आज तीसरी मंजिल की बालकॉनी में आ कर झूम रहा है। बच्चे जब छोटे थे , नाना जी के साथ सुबह की सैर पर निकल जाते थे और नीम से दातुन तोड़ लाते थे। आज जब नीम स्वयं ही दातुनों की सौगात ले घर में ही खड़ा है तब न तो नाना जी ही रहे और बच्चे तो पंख आते ही उड़ गए दूर दराज़ के शहरों में, देश-विदेश में।

पास के मकानों के साथ लगे पौधे  भी पूरे परिपक्व हो दरख़्त बन गए है। पास की इमारतें और ऊंची हो गयी हैं। छत से जो पहाड़ो का सौंदर्य दीखता था कुछ कुछ इनकी ऊंचाई से बाधित हो गया है। नीचे की सड़क पर जो शांति विराजती थी अब नहीं रही। वाहनों का बेतरतीब शोर, हॉर्न की आवाजें उसे कब की खा चुकी है। आस पास मॉल बन चुके है। सारे दिन, विशेषकर शाम को यँहा जमघट लगा ही रहता है।

30-32 वर्ष पहले यँहा आ कर जो सुकून मिलता था अब नदारद है। आस पास की इमारतों पर विशालकाय मोबाइल टावर दशहरे के रावण के पुतलों की तरह खड़े हैं। कितने ही रावण दहन हो गए पर ये रावण तो और बढ़ते ही जा रहे है। गोरैया यँहा भी अब बहुत कम दिखती हैं।

पास से निकलती रेल की पटरी अभी भी वंही है। इस पर जब गाड़ी निकलती है मुझे आज भी अच्छा लगता है। रेल पटरी के किनारे अपने आप उग आया जंगल मुझे बचपन से भाता है।

जब भी यँहा आता हूं कुछ न कुछ परिवर्तन पाता हूं। एक और शहर बदल रहा है। तेज़ी से बदल रहा है। आधुनिकता की भेंट चढ़ रहा है। हाँ, मेरा ससुराल बदल रहा है।