फरबरी १९७८ का तीसरा सप्ताह था । सर्दी अभी गई नहीं थी । मेरा मेडिकल हो चुका था और मुझे नियुक्ति पत्र के लिया बड़ोदा हाउस जाना था । दिल्ली में नियुक्ति का प्रश्न ही नहीं था । मैं उत्साहित तो था पर दिल्ली छूट जाने का एक अजीब सा एहसास भी सुबह से हो रहा था । यह पहला मौका था मेरे अकेले बाहर जाने का । कहाँ जाना था पता नहीं था । १९ वर्ष की कच्ची उम्र थी । बिलकुल अनुभव हीन । अभी तक मैंने अपना शहर भी नहीं देखा था । एक ही रास्ता मालूम था - गांधी नगर - जहाँ मेरा स्कूल था से पुरानी सब्ज़ी मंडी - जहाँ हम कुछ वर्ष पूर्व ही आये थे । क्या होगा , कैसे होगा , यही सब मन में चल रहा था । कॉलेज जाना हुआ नहीं । दिल्ली विश्वविधालय से बाह्य विधार्थी के रूप में पंजीकरण करवा लिया था । अंतिम वर्ष बाकी था । मन में ढेरों सपने संजोय थे । बार बार मन को समझा रहा था - सब ठीक होगा । तू अकेला नहीं है ।
पापा ने समझा दिया था - "जोधपुर मांग लेना यदि पूंछा जाये तो । वरना कंही पंजाब में फिरोज़पुर मिल गया तो परेशान रहेगा। मुरादाबाद है तो दिल्ली के पास पर इलाका ठीक नहीं है। और लखनऊ तो बिलकुल ही बेकार है । " पापा रेलवे में थे । हर मंडल उन्होंने देख रखा था । फिर राजस्थान हमारा पैतृक राज्य होने से मेरा भी लगाव स्वाभाविक था । पर क्या मुझसे पूंछा जायेगा ? इसी उहा पोह में ऑफिस आ गया। मेरी आशा के विपरीत एक एक को बुला के पूछा जा रहा था। एक बात तो पक्की थी -दिल्ली किसी को नहीं मिल रहा था। मुझे कहा गया जँहा जाना चाहोगे उसके ठीक विपरीत भेजेंगे। मेरा नम्बर आया। कुर्सी पर बैठे अधिकारी ने बिना किसी भूमिका के पूछा, " कँहा जाना चाहते हो?" पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकला," जँहा कोई न जाना चाहता हो"। शायद उन्हें इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उनकी मुखाकृति कुछ ऐसा ही बता रही थी। मैँ सोच रहा था कि ऐसा बोल कर ठीक नहीं किया। उन्होंने कहा," जोधपुर,बीकानेर कोई नहीं जाना चाहता। तुम जाओगे?" अँधा क्या चाहे । दो आँखे। तुरंत हाँ बोल दिया। उन्होंने कहा फिर बदलूंगा नहीं। सोच लो। मैंने कहा सोच लिया। बस फिर क्या था। आनन् फानन में मंडल लेखा अधिकारी ,जोधपुर के नाम पत्र और लाल रंग का सेकंड क्लास का पास थमा दिया गया।
पापा ने समझा दिया था - "जोधपुर मांग लेना यदि पूंछा जाये तो । वरना कंही पंजाब में फिरोज़पुर मिल गया तो परेशान रहेगा। मुरादाबाद है तो दिल्ली के पास पर इलाका ठीक नहीं है। और लखनऊ तो बिलकुल ही बेकार है । " पापा रेलवे में थे । हर मंडल उन्होंने देख रखा था । फिर राजस्थान हमारा पैतृक राज्य होने से मेरा भी लगाव स्वाभाविक था । पर क्या मुझसे पूंछा जायेगा ? इसी उहा पोह में ऑफिस आ गया। मेरी आशा के विपरीत एक एक को बुला के पूछा जा रहा था। एक बात तो पक्की थी -दिल्ली किसी को नहीं मिल रहा था। मुझे कहा गया जँहा जाना चाहोगे उसके ठीक विपरीत भेजेंगे। मेरा नम्बर आया। कुर्सी पर बैठे अधिकारी ने बिना किसी भूमिका के पूछा, " कँहा जाना चाहते हो?" पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकला," जँहा कोई न जाना चाहता हो"। शायद उन्हें इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उनकी मुखाकृति कुछ ऐसा ही बता रही थी। मैँ सोच रहा था कि ऐसा बोल कर ठीक नहीं किया। उन्होंने कहा," जोधपुर,बीकानेर कोई नहीं जाना चाहता। तुम जाओगे?" अँधा क्या चाहे । दो आँखे। तुरंत हाँ बोल दिया। उन्होंने कहा फिर बदलूंगा नहीं। सोच लो। मैंने कहा सोच लिया। बस फिर क्या था। आनन् फानन में मंडल लेखा अधिकारी ,जोधपुर के नाम पत्र और लाल रंग का सेकंड क्लास का पास थमा दिया गया।
रिजर्वेशन का सवाल ही नहीं था। रात 8:20 की जोधपुर मेल पकड़नी थी जो पुरानी दिल्ली के उस समय के मीटर गेज प्लेटफार्म से जाती थी। पैकिंग भी करनी थी। मैं घर को लौट चला।
कोपरनिकस मार्ग पर दोनों और गुलमोहर के पेड़ लगे थे। फूलों का मौसम अभी कुछ दूर था पर फिर भी लाल रंग के फूल पेड़ो पर सज गए थे। बेमौसम की बरसात हो कर चुकी थी। फूल सड़क पर आ गिरे थे। मेरा मन उन्हें कुचलने का नहीं था इसलिए बचता हुआ चल रहा था। पर बाकी चलने वालो ने उन्हें बेदर्दी से कुचल दिया था। उनका लाल रग़ कँही कँही सडक़ से चिपक गया था। बारिश की बूंदे जो पेड़ो के पत्तों पर ठहर गयी थी, हवा के साथ मुझ पर गिर के मुझे भिगो रही थीं। मन तो आद्र था ही ,तन भी भीग रहा था। आज यह शहर मुझसे छूटने जा रहा था। ये ललित कला अकादमी, ये दूरदर्शन केंद्र, ये श्री राम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर, ये नुक्कड़ पर ब्रेड पकोड़े और चाय का स्टाल जँहा कितनी शामे मैंने गुजार दी थी ,आज छूट जायँगे। फिर पता नहीं कब आना होगा। मन हो रहा था जोर से रो लूं और मुझे कोई अपने आगोश मेँ भर ले। पर लड़के कँही रोते हैं? पता नहीं कब घर पहुँच गया। शाम को पापा स्टेशन छोड़ने आये। जैसे तैसे एक बर्थ दिला दी थी। गाड़ी चल पड़ी। पापा आँखों से ओझल हो गए। पर मैं गेट पर खड़ा रहा। और देखता रहा अपने शहर को छूटते हुए। मेरा शहर छूटता जा रहा था। दिल्ली कैंट तक मैं गेट पर ही खड़ा रहा। जब दिल्ली कैंट स्टेशन बाहर सर्द कोहरे की चादर मैं कँही खो गया तो मुझे भी सर्दी का अहसास हुआ। भारी मन से मैं अंदर आ गया। मेरी बर्थ पर तब तक कुछ और लोग कब्ज़ा कर चुके थे। मेरा शहर भी छूट चूका था।
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