Friday, 4 September 2015

वो मकान - भाग 1

जोधपुर में क्वारों को किराये का मकान मिलना एक बड़ी समस्या थी। पहली शर्त ये होती थी कि बींदणी कँहा है। मैं और मेरा एक साथी ,जिसे मैं यँहा सोम कहूँगा , मकान ढूंढ ढूंढ कर थक चुके थे। एक दो मकान झूठ बोल कर लिए कि शादी हो चुकी है पत्नी टीचर है छुटियों में आ जायगी। पर झूठ कितने दिन चलता। सभी खाली करवा लिए गए। ऑफिस में कई लोगो से कह रखा था कि कोई मकान दिलाओ। ऐसे में मेरे पास एक मकान का प्रस्ताव आया। यह किन्ही रेलवे गॉर्ड का मकान था राजस्थान हाउसिंग बोर्ड का । ये कुछ समय पहले बना मकान प्रताप नगर मेँ था। यह कॉलोनी नई बनी थी और शहर से बाहर थी। आने जाने का साधन टेम्पो थे।
मैने सोम से बात करी और तय हुआ कि शाम को देखने चलेंगे। चाबी हमने मंगवा ली थी। शाम को ऑफिस के बाद झुटपुटे मेँ हम बताये गए पते पर पूछते हुए जा पहुँचे। मकान क्या था हमारी कल्पना से कँही बड़ा था। यह एक दो बैडरूम का सिंगल स्टोरी फ्लैट था। बाहर बनी बाउंड्री का दरवाजा खोल कर हम अंदर आ गए। दायीं ओर एक छोटा सा फ्रंट लॉन था। बाउंड्री का मैन गेट सीधे पोर्च से होकर आगे गया था ।पीछे की और पक्का आँगन था।  घर में जाने के तीन दरवाजे थे। एक सामने की ओर खुलता था। एक पोर्च के रास्ते में बनी सीढ़ियों से अंदर जाता था ओर तीसरा पीछे आँगन से था। सामने कॉलोनी की सड़क थी और आस पास सटे हुये और फ्लैट्स थे। इससे पहले के सारे मकान एक कमरे और रसोई के थे। हमारे लिए तो यह किसी बंगले से कम नहीं था। खुली साफ़ सुथरी हवादार कॉलोनी में बने इस खाली मकान को देखकर हम तो ख़ुशी से उछल पड़े।
" हम अपने साथ किसी और को नहीं रखेंगे", सोम चहकता हुआ बोला।
मैनेँ कहा,"किराया तो पता कर लो फिर तय करेंगे कि कितने लड़के मिल कर रहेंगे।" छोटी सी तनख्वाह मेँ अधिक किराया हम नहीं दे सकते थे। और इतना खुला और बड़ा मकान जरूर महंगा होगा।
"वो भी पता कर लेंगे पर हम दोनों ही रहेंगे",सोम बोला।
सामने से ताला खोलकर हम अन्दर आये। दो कमरे, डाइनिंग स्पेस, रसोई व लैट्रिन बाथ हमारे लिए जरूरत से ज्यादा थे। बाथरूम मेँ जाकर नल खोल कि धल धल करके मोटी धार गिरने लगी।
"भई मजा आ गया शावर वाला बाथरूम और किचन के सिंक मेँ भी नल" ।"ये कमरा मै लूंगा", एक बेड रूम मेँ आते हुए मैनेँ कहा तो सोम ने बिना कोई आपत्ति किये दूसरा वाला कमरा चुन लिया।
तय हुआ कि कल किराये की बात करके पेशगी दे देंगे । कल शाम आकर साफ सफाई करके  परसों से आ धमकेंगे। मकान मिलने का सुख वो ही जान सकता है जो गली गली मकान ढूंढते भटका हो।
हमने ताला मारा और निकल पड़े । अभी हम पिछले कुछ दिनों से रेस्ट हाउस मेँ अड्डा लगाये हुए थे। केअर टेकर भी रोज चिक चिक करता कि यह रहने के लिए थोड़ी है। बेड खाली करो।
"पर यार यँहा से आना जाना एक समस्या होगी",मैनेँ चिंता जताई।
"ये दायीं तरफ वाला रास्ता कँहा जा रहा है?, सोम बोला।
"चलो देखते है। हमें कौनसी जल्दी है।" मैं बोला और हम उस दिशा मेँ बढ़ गए।
"क्यों भाई साहिब यँहा से DS ऑफिस जाने का कोई रास्ता है क्या?" सोम ने एक से पूंछा।
आशा के विपरीत उत्तर मिला,"हाँ यह रास्ता TA ऑफिस निकाल देगा। वँहा से DS ऑफिस पास ही है। थोडा पैदल चलना होगा। या फिर उस तरफ से टेम्पो पकड़ लो । वो घुमा के ले जायगा। "वैसे ये रास्ता छोटा है पर है कच्चा। और कब्रिस्तान मेँ से होकर जाता है।",उसने आगे कहा।
" चल देखते हैं", सोम ने कहा और हम आगे बढ़ गए। बीच कब्रिस्तान के कुछ पुरानी कब्रों के बीच से निकलते हुए अँधेरा हो चला था।
"यँहा कितनी शांति है",सोम बोला। "हम तो रोज रात का खाना खा कर यंही आ जाया करेंगे" उसने आगे जोड़ा। मैनेँ कोई जवाब नहीं दिया।
जँहा से हम आये थे एक लाइट पोल वँहा था। और दूसरा लाइट पोल दूर दूसरी और लगा था। उनकी मद्धम पीली रौशनी उस पूरे रास्ते के लिया कम थी। बात करते करते हम बाहर निकल आये। रास्ता कच्चा था पर वँहा एक परचून की छोटी सी दुकान थी। सोम ने सिगरेट सुलगाई और एक लंबा कश लिया। " ऑफिस से आते वक्त यँहा से छोटा मोटा परचून का सामान लिया जा सकता है", उसने कहा। जल्द ही हम TA ऑफिस के सामने थे।
"ये रास्ता ठीक रहेगा। पर दिन दिन मेँ निकलना पड़ेगा" , मैनेँ कहा तो सोम बोला,"क्यों रात में क्या भूत चिपट जायँगे। पंडित जी तुम भी  बहुत डरते हो। अरे जिन्दा लोग ज्यादा खतरनाक होते हैं। ये तो बेचारे खुद ही मरे हुए है।इनसे क्या डरना? तुम्हे शायद पता नहीं है मुझे मरे हुए लोगो की आत्मा का आवाहन करना आता है।"
मैनेँ कहा , "मै नहीं मानता"।
"कर के दिखाऊंगा फिर तो मानोगे"।
"मुझे नहीं देखना"।
बात करते करते रेस्ट हाउस आ गया था। सामने शर्मा लॉज मेँ हमने खाना खाया। और अपने अपने बेड पर पसर गए । रोज हम अपना तौलिया बेड पर रख जाते। सामान लॉकर में जमा करा जाते। सामान के नाम पर था भी क्या हमारे पास।

क्रमशः

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