Tuesday, 1 September 2015

एक और रात और पुरानी यादें

रात फिर आ गयी है हमें सुलाने और भुलाने वो सब दुःख दर्द, वो सारी आशंकाएं,वो सारी चिन्ताएं जिसे हम दिन भर ढोते है इस डर के साथ कि कहीं ये सच न हो जाएँ। रात ले लेती है हमेँ अपने आगोश में और भुला देती है उन सारी आशंकाओं को मीठी थपकी के साथ। रात न होती तो क्या होता? न चाँद खिड़की से झांकता। न खिड़कियों के पर्दे ठंडी हवा से उड़ते।न कोई लोरी सुनाता और न कोई सोता।
मुझे अभी भी याद है छत पर सोने का वो आनन्द। गर्म भभकती छत को शाम को पानी डाल कर ठण्डा करना।फिर दीवारों से निकलती मिट्टी की उस सोंघि सुगंध को नथुने में भर लेना। ठंडी हो चुकी छत पर बिस्तर लगा के छोड़ देना। फिर ठंडे हो चुके बिस्तरों पे लेटना। ऊपर खुला आकाश मोतियों से जड़ा। चाँद को चलते हुए देखना। हवा न चलने पर ' पुर' से समाप्त होने वाले शहरों के नाम लेना। और पता नहीं कब नींद के गहरे आगोश में समां जाना।
तब न कोई चिंता थी। न व्यर्थ की आशंकाएं। कभी कभी सोचता हूँ रात तो वही है। मैं भी वही हूँ। पर नींद वैसी नहीं रही। कहाँ क्या बदल गया है? पता नहीं।
नींद से पलकें भारी हो रही है। लिखने को तो बहुत है पर अब बस।
शुभ रात्रि।

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