Tuesday, 8 September 2015

वो मकान - भाग 3

उस दिन जब हम आफिस से आये तो बाहर तक पानी बह रहा था। अंदर आकर देखा तो पूरे घर में पानी ही पानी था। सारे नल खुले हुए थे और पानी बह रहा था। हमने एक एक करके सारे नल बंद किए। पानी सूता और अचंभित से एक दूसरे को देखने लगे।

यह कैसे हुआ। नल तो बंद थे। और खुला भी रह जाये तो कोई एक नल खुला रह सकता था। सारे नल पूरी तरह से खुले हुए थे। कारण समझ से बाहर था। मुझे डर लग रहा था। यह पहली घटना थी कि कोई हमें यह बताना चाह रहा था कि इस घर में हमारे साथ कोई और भी रहता है। सोम ने इस घटना को ज्यादा महत्व नहीं दिया। मैंने अपना बिस्तर सोम के कमरे में ही लगा लिया।

दो चार दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। हमेँ नल खुलने की इतनी चिंता नहीं थी जितनी पानी का बिल आने की थी। इसका एक उपाय हमें मिल गया। रोज ऑफिस जाते समय हम बाहर मीटर के पास लगा मैन वाल्व बंद कर जाते। अब नल तो खुलते पर पानी नहीं बहता। कुछ दिन बाद नलों का खुलना भी बंद हो गया।

एक रात हम खाना खा कर रोज की तरह टहलने निकले। सोम अपनी लुंगी बनियान वाली पोशाक में था। गर्मी की वजह से वो अक्सर अपनी लुंगी को फोल्ड करके कमर पर बांध लेता था। बनियान भी रोल करके छाती तक चढ़ा लेता था। माचिस उसकी लुंगी के फोल्ड में बंधी रहती थी। चार साढ़े चार फुट की हाइट,पक्का रंग  व सपाट चेहरा उसे एक अलग ही व्यक्तित्व प्रदान करता था। गजब का आत्म विश्वास था उसमें। मैं तो उसके आगे बौना लगता था। डर तो उसे मानो छू ही नहीं गया था।
अभी हम कुछ ही दूर गए थे कि पड़ोस वाले एक सज्जन साथ हो लिये। कॉलोनी खत्म हो चुकी थी । अब हम कब्रिस्तान की और बढ़ रहे थे।
हमारे साथ वाले सज्जन ठिठके। "ये आप लोग आगे कहाँ जा रहे है?"
"बस उस पुरानी कब्र तक। कुछ देर बैठेंगे वँहा"
"आप लोगो का दिमाग तो ठीक है?"
"हाँ,बिलकुल दुरुस्त है।आप भी आइये। बड़ी शांति है वँहा पर।"सोम बोला
"न भई न। मैं तो आने से रहा। आपको भी कहूँगा वँहा मत जाया करिए। कँही कुछ हो गया तो मुश्किल मेँ पड़ जायेंगे।"वे बोले।
वह तो लौट लिए और हम लाईट का पोल पार करते हुये अपनी रोज वाली कब्र पर आ बैठे।

चारो तरफ घोर नीरवता का साम्राज्य था। हल्की हल्की हवा चल रही थी। पेड़ो पर लगे पत्ते हवा के साथ झूम रहे थे। हम दोनों काफी देर तक बिना कुछ बोले बैठ रहे। दूर दूसरे पोल की लाईट आज बंद थी। अचानक सोम को सिगरेट की तलब हुई। कान के पीछे लगी सिगरेट उसने निकली और ठोक कर उसका तम्बाकू ठीक किया। लुंगी मेँ उडसी हुई माचिस टटोलते हुए बोला,"पंडित जी माचिस तो रह गई। अब क्या करें। आज तो कोई दिया भी नहीं जला गया।"

अभी पिछले दिन ही कोई एक पेड़ के नीचे दो बेसन के लड्डू, कुछ पैसे और सिंदूर रख कर दिया जला गया था। सोम ने देखा तो बोला,"पंडित जी आज तो किसी का बर्थ डे लगता है यँहा।" मेरे बहुत मना करने पर भी जनाब ने लड्डू से पेट पूजा की। पैसे लुंगी मेँ उडसे और चले आये।

पर आज तो दिया भी नहीं जल रहा था। सिगरेट कैसे जलाएं। तभी दूसरी और से एक आदमी साइकल पर  चढ़ कर आता दिखा। "इसके पास जरूर माचिस होगी",मैनेँ कहा। सोम ने आवाज लगाई,"ओ भैया।" सन्नाटे में गूंजती आवाज सुन कर वो साइकल से उतर कर रुक गया। जिस तरफ से वो आ रहा था उधर के पोल पर आज अँधेरा था। अँधेरे मेँ वो हमें देखने की कोशिश कर रहा था।

उसने साइकिल वापस मोड़ ली और धीरे धीरे पैदल ही वापस जाने लगा। शायद वो डर गया था। बार बार पीछे मुड़ कर हमें देखता जाता था। इतनी रात गए उसे किसी के कब्रिस्तान मेँ होने की आशा नहीं रही होगी।

"अरे ये तो जा रहा है", सोम ने कहा और तेजी से उसकी तरफ चल दिया।
"ए भैया,माचिस है।" सोम ने आवाज दी।
उसने सोम को अपनी तरफ आते देखा। एक झटके मेँ उसने साइकल दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाई और भाग छूटा।

हम दोनों काफी देर तक हंसते रहे और फिर वापस लौट पड़े।

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