Monday, 14 September 2015

वो मकान -अंतिम भाग

नल खुलने की घटना से हम आशंकित तो थे ही कि एक और घटना हो गई। एक रात दो रोटियाँ बच गयीं थी। मैनेँ उन्हें एक शीशे की प्याली मेँ रख कर ऊपर से एक बड़ा सा बर्तन उल्टा कर के ढक दिया। रात को प्याली गिर कर टूटने की आवाज आई। हम नहीँ उठे । सोचा सुबह देखेंगे। सुबह देखा तो प्याली गिर कर टूटी पड़ी थी और दोनों रोटियों के ऊपर बर्तन जस का तस उल्टा पड़ा था।
सोम ने कहा , "बिल्ली का काम है।"
पर किचन की खिड़की मेँ जाली लगी थी। बिल्ली का तो प्रश्न ही नहीं था। और बिल्ली अगर आती भी तो रोटियाँ क्यों छोड़ जाती? मैं शीशे के टुकड़े उठाते हुए सोच रहा था।

इसके कुछ दिन बात ही एक रात हम खाना खा के बैठे थे कि अचानक बिजली चली गई। घटाटोप अंधकार में सोम मुझे लगभग खींचता हुआ बाहर ले आया। टोर्च भी नहीं उठा पाये हम लोग। बाकी पूरी कॉलोनी में लाइट आ रही थी। हम लोग सीढ़ियों की तरफ गए जँहा मीटर लगा था। किसी ने कट आउट निकाल कर मीटर के ऊपर रख दिया था। मैनेँ कट आउट लगाया ,लाइट आ गई। टोर्च की रौशनी सीढ़ियों पर डाली तो वँहा केले की चटनी पड़ी थी। हम ने छत पर जा कर देखा। कहीं कोई नहीं था। बाहर का मैन गेट भी जस का तस बन्द पड़ा था। मकान मेँ और कँही से आने का रास्ता नहीं था। मैन गेट अगर कोई खोलता भी था तो उसकी सांकल इतनी आवाज करती थी कि आप अंदर वाले कमरे में भी सुन सकते थे।

"ये कोई हमें डराने की कोशिश कर रहा है",सोम ने कहा।
"पर कौन हो सकता है?हम तो यँहा किसी को जानते भी नहीं"।,मैंने कहा तो सोम ने कोई जवाब नहीं दिया।

ऐसा एक दो बार और हुआ। कोई कट आउट निकलता और हम लगा आते।

आज सोम ऑफिशल कार्य से दिल्ली गया हुआ था। उसे महीने की एक निश्चित तिथि को कुछ डेटा लेकर दिल्ली जाना पड़ता था। इस मकान मेँ आने के बाद यह पहला अवसर था। आज की रात मुझे अकेले गुजारनी थी। पहले तो मेंने सोचा कि रेस्ट हाउस चला जाऊंगा।पर फिर खाना खाते खाते रात हो गई। हिम्मत करके मैं यंही रुक गया।

सोने से पूर्व सारे घर की बतियाँ जला के छोड़ दी। मैं बाहर वाले कमरे मैं आ गया जिससे खिड़की से सड़क दिख सके। रात के 11:30 या 12:00 का समय होगा। अचानक मेरी नींद खुल गई। कोई बाहर से धीरे धीरे दरवाजा खटखटा रहा था। मै उठ बैठा। हिम्मत करके खिड़की पर आया और बाहर देखने की कोशिश करने लगा। पर अँधेरे मेँ कुछ दिखाई नहीं दिया।दरवाजे पर थाप जारी थी। "क...कौ...कौन है", मुझे अपनी ही आवाज अनजानी लगी। कोई उत्तर नहीं आया। मैनेँ साहस बटोरा। जो भी हो इससे तो निबटना ही पड़ेगा। इधर उधर देखा। नज़र ऊपर दुछत्ती पर गई। वहाँ एक फावड़ा पड़ा था। दरवाजे पर चढ़ कर मैनेँ उसे उतार लिया। पर तब तक दरवाजा पीटना बंद हो गया था। अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या करना है दरवाजा फिर पीटा जाने लगा। पर इस बार सीढ़ियों की तरफ का दरवाजा खट खटाया जा रहा था। कौन हो सकता है ये इतनी रात गए? सोचा दरवाजा खोल के बाहर जा कर देखूँ। पर हिम्मत नहीं हुई। " ये कोई भूत वूत नहीं हो सकता। दरवाजा पीटने के लिए हाथ तो चाहिए"बुद्धि ने तर्क दिया। पर मन ने मानने से इन्कार कर दिया। अब पीछे वाला दरवाजा पीटा जा रहा था। मैनेँ बाहर जाने का इरादा छोड़ दिया। कमरे का दरवाजा अंदर से बन्द कर के मैं बैठ गया। और अगली घटना का इंतज़ार करने लगा। फिर कोई सामने वाला दरवाजा पीट रहा था। मेरी समझ नहीं आ रहा था कि यदि ये कोई भूत है तो अंदर आने के लिए दरवाजा क्यों पीट रहा है। और यदि कोई चोर उचक्का है तो दरवाजा खुलवा के तो चोरी करने से रहा। ख़ैर जब अंदर आएगा तब देखा जायगा। मेरे पास सिवाय अन्दर बन्द रहने के अलावा विकल्प भी क्या था।

कब मेरी आँख लगी पता नहीं। चिड़ियों के कलरव से मेरी नींद टूट गयी। सूर्य उदय हो चुके थे। रात की घटना को याद करते हुए मैं बाहर आया। सुबह के उजाले मेँ जो चीज़ें सुंदर लगती हैं रात के अंधकार मेँ कितनी भयावह हो जाती है। तीनों दरवाज़ो पर कोई सुराग नहीं था कि रात को कोई यँहा आया था। दोपहर को सोम वापस आ गया। मैनेँ उसे इस घटना के बारे मेँ बताया। "कोई सपना देखा होगा",वो बोला। "सपना..."मुझे गुस्सा आ गया। "तो तुम कहना चाहते हो यह फावड़ा मैनेँ सपने मेँ नीचे उतार लिया"। सोम ने कुछ नहीं कहा।

मैं एक दिन के लिए दिल्ली आया तो मैनेँ माँ को इस बारे मेँ बताया। माँ के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गयीं। "तू उस मकान मेँ एक दिन भी और नहीं रहेगा"माँ का स्वर मेँ आदेश था। "पर माँ..."मैनेँ कहना चाह। "पर वर कुछ नहीं",माँ ने बात काट दी। "पर माँ मुझे कभी कुछ दिखा तो नहीं", मैं जो कहना चाहता था मैनेँ कह दिया। "जिनके ग्रह ऊँचे होते हैँ उन्हें आत्माएं दिखती नहीं",माँ ने समझाया। "पर वो हैं वँहा। शायद वो नहीं चाहती की तुम वँहा रहो",माँ ने शंका ज़ाहिर की।

"अच्छा मकान बदल लेंगें। पर पहले मिले तो सही",मैनेँ सांत्वना दी। पर माँ कँहा मानने वाली थी।
"चाहे सड़क पर सो । पर उस मकान मेँ एक दिन भी नहीं। खा मेरी कसम",माँ मुझसे पक्का वादा चाहती थी। "ठीक है । जैसा तुम कहो",मैनेँ बात समाप्त की।

ये शायद माँ की दुआओं का ही असर रहा होगा कि उसी दिन दिल्ली ऑफिस मेँ हमेँ तीन महीने की ट्रेनिंग में दिल्ली आने का आर्डर मिल गया। जोधपुर जा कर रिलीव हो कर आना था। जाते ही हमनें वो मकान खाली कर दिया। और हम दिल्ली आ गए।

आज इतने वर्षो बाद भी जब उस मकान मेँ बिताये दिनों के बारे मेँ सोचता हूँ,तो सरसरी सी होती है।

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