गतांक से आगे-
अगले दिन हम उन गार्ड साहिब से मिले। वह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे। हमने कहा कि मकान हमें अच्छा लगा, आप किराया बताइये। उन्होंने कहा 80 रुपए महीना। सुन कर यकीन नहीं हुआ। वैसे उस समय किराये इतने ही होते थे पर हमें कुछ ज्यादा की उम्मीद थी।
अपनी प्रसन्ता को बिना जाहिर किये मैने कहा ' "कुछ कम नहीं हो सकता?" वह बोले , "तुम लोग कुछ माह रह के देख लो। किराया बाद मेँ देख लेंगे।" मुझे वो व्यक्ति भला इंसान लगा। 424 रुपए की तनखा से 40 रूपये किराया निकल ही सकता था।
हमने कहा ठीक है हम आज सफाई कर के कल से शिफ्ट हो जायँगे। किराये के 80 रुपए देते समय मैनेँ यूँ ही जिज्ञासा वश पूछा,"आप स्वयं क्यों नहीं रहते वँहा?" उन्होंने बताया कि पुराने शहर मेँ उनका पुश्तैनी मकान है वह वंही रहते हैँ फिर रात बिरात उनकी ड्यूटी ऑफ होने का भी समय नहीं है। इतनी दूर जाने का कोई साधन भी रात मेँ नहीं मिलता। उनके जवाब में तर्क था।
शाम को हम जा पहुँचे एक बाल्टी, मग और झाड़ू के साथ। कई दिनों से बन्द मकान की जो हालत होती है वही इस की भी थी। शाम का समय था । पानी आ रहा था।हमनें अच्छी तरह से फर्श धो डाला। बाहर का पानी निकालते समय साथ वाले फ्लैट मेँ खड़े दो लड़को ने पूंछा।
"आप लोग आ रहे हैं यँहा?"
मैनेँ कहा, "हाँ"
"पढते हो?"
"नहीं। रेलवे में नोकरी करते हैं।और आप?"
"हम यँहा वाटर वर्क्स में JE हैं। पहले हम इसी मकान में आ रहे थे। पर फिर..."उसने जान बूझ कर बात अधूरी छोड़ दी।
"फिर क्या", मेरी उत्सुकता बढ़ गयी थी।
"तो आपको कुछ नहीं मालूम"।
"क्या नहीं मालूम"।
दोनों ने एक दूसरे की और देखा," कहते है यह मकान कुछ ठीक नहीं है। तभी तो खाली पडा है। ये जो दायीं और कब्रिस्तान है , कहते है ये पहले यँहा तक फैला हुआ था। हम तो कहेंगे आप लोग भी कोई और मकान देख लें। यहीँ मिल जायेगा। "
"पर हम तो किराया भी दे चुके। अब वो वापस थोड़ी करेगा। और बिना जान पहचान के हमें कौन मकान किराये पर देगा।"
"वो सब आप देख लो।"
हाथ मिला कर वो दोनों अंदर जा चुके थे।
अँधेरा हो चुका था। मेरी तो अंदर जाने की हिम्मत नहीं पड रही थी। बड़ी मुश्किल से एक मकान मिला था और वो भी हॉन्टेड निकल आया।
"क्या करें?"मैने सोम से पूछा।
"करना क्या है । कल सामन लेकर आ रहे है। कल की रात यंही सोयंगे। तू भी पता नहीं किस किस की बातो में आ जाता है। अरे भूत वूत कुछ नहीं होते। मन का वहम है। अच्छा चल अंदर चल के देख लेते हैँ कोनसा भूत है यँहा"
हम अंदर गए । लाइटे जला दी। हर जगह घूम घूम के सोम ने आवाज लगाई, "अरे भई कोई भूत है तो मिलो आके"।
"देख लो है कोई यँहा", सोम बोला। "और कोई होगा तो मिल लेंगे उससे भी। वैसे भी मैनेँ आज तक कोई भूत देखा नहीं। इसी बहाने देख लेंगे।"
अब मैं मकान मालिक की उस बात को रिलेट कर पा रहा था जब उन्होंने कहा था की कुछ माह रह के देख लो।
मकान अच्छी तरह से बन्द करके हम उसी शार्ट कट से वापस आ गए।
अगले दिन सशंकित मन से हम उस मकान में आ पहुँचे। मैं तो केवल सोम के साथ की वजह से आया था। अकेला तो शायद कभी न आता। हालाँकि ख़ुशी तो आधी हो चुकी थी पर फिर भी बहुत अच्छा लग रहा था। खुला खुला हवादार मकान। बाहर लॉन मेँ बैठ कर शाम की चाय का आनंद। और रात के खाने के बाद कब्रिस्तान तक लंबी टहल।
सुबह का खाना सोम बनाता था और रात का मैं। पर किसी दिन यदि मैं पहले पहुँच जाता था तो बाहर ही सोम का इंतज़ार करता था। अंदर अकेले जाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी।
रात में कभी लाइट चली जाती तो हम बाहर लॉन मेँ आ जाते थे। वैसे हमेशा एक टोर्च हम अपने पास रखते थे हमें आये कुछ दिन हो चुके थे और कोई अप्रत्याशित घटना अभी तक नहीं हुई थी। हम भी इस बात को भूल से चुके थे ।
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