Monday, 28 September 2015

मरघट वैराग्य

आज किसी निकट के निधन पर शमशान जाना हुआ। एक मेला सा लगा हुआ था। एक के बाद एक आता ही चला आ रहा था। मानो एक होड़ सी मची हो - कि पहले कौन। सच है जाने वाले के साथ कोई नहीं जाता। दुःख भी परिवार के निकट सम्बन्धियों को ही होता है। बाकी तो बस एक कर्तव्य निभाने के लिए आते प्रतीत होते हैं। कोई मोबाइल पर लगा है तो कोई और किसी चर्चा मेँ व्यस्त है।पर मुझे लगता है कि न आने से तो कर्तव्य पालन को आना भी ठीक ही है। दुःख तो जुड़ाव से होता है। जिसका जितना जुड़ाव उतना अधिक दुःख। किसी और की शव यात्रा मेँ आई कुछ औरतेँ जोर जोर से विलाप कर रही थीं। पर दूसरे जिनका उस व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था तटस्थ थे।
कर्म कांड करने वाला पंडित भी मात्र मशीनी मानव लग रहा था। एकदम तटस्थ और उदासीन। कोई आओ कोई जाओ उसे तो वो ही सब करना है।
मुझे किसी को गाड़ी पर विदा करने जाना पसंद नहीं है। कुछ कुछ वैसा ही लगता है मरघट मेँ आ कर। एक अजीब सा खाली पन। पास बहती हवा जलती चिताओं के धुंए को लेकर बह रही थी। यमुना भी सहजता से शांत थी । मानो शोकाकुल हो।दूर कभी कभी मेट्रो जाती दीख जाती थी। शिव शंकर की बड़ी सी प्रतिमा मानो कह रही थी -मैं ही सृजन करता हूँ और मैं ही विनाश। तेज धूप से बचने के लिए मैं एक पेड़ के नीचे आ जाता हूँ। सोचता हूँ कि पेड़ होता तो कितना सकून पाता।भावनाओं से तो परे होता। चिता की अग्नि तेज होती जा रही थी। तपत से बचने को मेँ बाहर आकर शेड मेँ बैठ जाता हूँ। कुछ और लोग भी वँहा बैठे हैं। एक कुत्ता पास पड़ी गीली रेत की ढेरी पर ठंडक में बैठा था।
शायद कार्य पूरा हो चुका था। लोग हाथ मुंह धोने जा रहे थे। मैं भी पीछे हो लिया। एक बचपन के मित्र मिले। बोले आजकल तो यह नहीं पता चलता की बीमार पहले जायेगा या फिर स्वस्थ चल देगा। मैने कहा कि एक बात तो पक्की है। जायँगे सब। कोई आगे कोई पीछे। बोले इसमें क्या शक है। एक साहिब जो बाहर से आये थे उन्हें घाट की व्यवस्था बहुत पसंद आई।
धूप प्रखर हो गयी थी। मैं विचलित सा खड़ा सोच रहा था कि क्यों इतनी भाग दौड़ करें जब सब यंही छोड़ के जाना है। फिर एक कवि की कुछ पंक्तियाँ याद हो आती है -
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का
मृत्यु एक विश्राम स्थल है
जीव जँहा से फिर चलता है
धारण कर नव जीवन संबल।
मृत्यु एक सरिता है जिसमेँ
श्रम से कातर जीव नहा कर
फिर नूतन धारण करता है
काया रूपी वस्त्र बहा कर।
कब बाहर रिंग रोड पर गाड़ी आ गई पता ही नहीं चला। मरघट वैराग्य मरघट के निकास द्वार पर ही कहीँ छूट जाता है। बाहर की दुनियां वैसे ही भाग रही है जैसे सदा के लिए इस संसार मेँ रहना हो।
दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थना लिए मैँ घर लौट आता हूँ।

Monday, 14 September 2015

वो मकान -अंतिम भाग

नल खुलने की घटना से हम आशंकित तो थे ही कि एक और घटना हो गई। एक रात दो रोटियाँ बच गयीं थी। मैनेँ उन्हें एक शीशे की प्याली मेँ रख कर ऊपर से एक बड़ा सा बर्तन उल्टा कर के ढक दिया। रात को प्याली गिर कर टूटने की आवाज आई। हम नहीँ उठे । सोचा सुबह देखेंगे। सुबह देखा तो प्याली गिर कर टूटी पड़ी थी और दोनों रोटियों के ऊपर बर्तन जस का तस उल्टा पड़ा था।
सोम ने कहा , "बिल्ली का काम है।"
पर किचन की खिड़की मेँ जाली लगी थी। बिल्ली का तो प्रश्न ही नहीं था। और बिल्ली अगर आती भी तो रोटियाँ क्यों छोड़ जाती? मैं शीशे के टुकड़े उठाते हुए सोच रहा था।

इसके कुछ दिन बात ही एक रात हम खाना खा के बैठे थे कि अचानक बिजली चली गई। घटाटोप अंधकार में सोम मुझे लगभग खींचता हुआ बाहर ले आया। टोर्च भी नहीं उठा पाये हम लोग। बाकी पूरी कॉलोनी में लाइट आ रही थी। हम लोग सीढ़ियों की तरफ गए जँहा मीटर लगा था। किसी ने कट आउट निकाल कर मीटर के ऊपर रख दिया था। मैनेँ कट आउट लगाया ,लाइट आ गई। टोर्च की रौशनी सीढ़ियों पर डाली तो वँहा केले की चटनी पड़ी थी। हम ने छत पर जा कर देखा। कहीं कोई नहीं था। बाहर का मैन गेट भी जस का तस बन्द पड़ा था। मकान मेँ और कँही से आने का रास्ता नहीं था। मैन गेट अगर कोई खोलता भी था तो उसकी सांकल इतनी आवाज करती थी कि आप अंदर वाले कमरे में भी सुन सकते थे।

"ये कोई हमें डराने की कोशिश कर रहा है",सोम ने कहा।
"पर कौन हो सकता है?हम तो यँहा किसी को जानते भी नहीं"।,मैंने कहा तो सोम ने कोई जवाब नहीं दिया।

ऐसा एक दो बार और हुआ। कोई कट आउट निकलता और हम लगा आते।

आज सोम ऑफिशल कार्य से दिल्ली गया हुआ था। उसे महीने की एक निश्चित तिथि को कुछ डेटा लेकर दिल्ली जाना पड़ता था। इस मकान मेँ आने के बाद यह पहला अवसर था। आज की रात मुझे अकेले गुजारनी थी। पहले तो मेंने सोचा कि रेस्ट हाउस चला जाऊंगा।पर फिर खाना खाते खाते रात हो गई। हिम्मत करके मैं यंही रुक गया।

सोने से पूर्व सारे घर की बतियाँ जला के छोड़ दी। मैं बाहर वाले कमरे मैं आ गया जिससे खिड़की से सड़क दिख सके। रात के 11:30 या 12:00 का समय होगा। अचानक मेरी नींद खुल गई। कोई बाहर से धीरे धीरे दरवाजा खटखटा रहा था। मै उठ बैठा। हिम्मत करके खिड़की पर आया और बाहर देखने की कोशिश करने लगा। पर अँधेरे मेँ कुछ दिखाई नहीं दिया।दरवाजे पर थाप जारी थी। "क...कौ...कौन है", मुझे अपनी ही आवाज अनजानी लगी। कोई उत्तर नहीं आया। मैनेँ साहस बटोरा। जो भी हो इससे तो निबटना ही पड़ेगा। इधर उधर देखा। नज़र ऊपर दुछत्ती पर गई। वहाँ एक फावड़ा पड़ा था। दरवाजे पर चढ़ कर मैनेँ उसे उतार लिया। पर तब तक दरवाजा पीटना बंद हो गया था। अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या करना है दरवाजा फिर पीटा जाने लगा। पर इस बार सीढ़ियों की तरफ का दरवाजा खट खटाया जा रहा था। कौन हो सकता है ये इतनी रात गए? सोचा दरवाजा खोल के बाहर जा कर देखूँ। पर हिम्मत नहीं हुई। " ये कोई भूत वूत नहीं हो सकता। दरवाजा पीटने के लिए हाथ तो चाहिए"बुद्धि ने तर्क दिया। पर मन ने मानने से इन्कार कर दिया। अब पीछे वाला दरवाजा पीटा जा रहा था। मैनेँ बाहर जाने का इरादा छोड़ दिया। कमरे का दरवाजा अंदर से बन्द कर के मैं बैठ गया। और अगली घटना का इंतज़ार करने लगा। फिर कोई सामने वाला दरवाजा पीट रहा था। मेरी समझ नहीं आ रहा था कि यदि ये कोई भूत है तो अंदर आने के लिए दरवाजा क्यों पीट रहा है। और यदि कोई चोर उचक्का है तो दरवाजा खुलवा के तो चोरी करने से रहा। ख़ैर जब अंदर आएगा तब देखा जायगा। मेरे पास सिवाय अन्दर बन्द रहने के अलावा विकल्प भी क्या था।

कब मेरी आँख लगी पता नहीं। चिड़ियों के कलरव से मेरी नींद टूट गयी। सूर्य उदय हो चुके थे। रात की घटना को याद करते हुए मैं बाहर आया। सुबह के उजाले मेँ जो चीज़ें सुंदर लगती हैं रात के अंधकार मेँ कितनी भयावह हो जाती है। तीनों दरवाज़ो पर कोई सुराग नहीं था कि रात को कोई यँहा आया था। दोपहर को सोम वापस आ गया। मैनेँ उसे इस घटना के बारे मेँ बताया। "कोई सपना देखा होगा",वो बोला। "सपना..."मुझे गुस्सा आ गया। "तो तुम कहना चाहते हो यह फावड़ा मैनेँ सपने मेँ नीचे उतार लिया"। सोम ने कुछ नहीं कहा।

मैं एक दिन के लिए दिल्ली आया तो मैनेँ माँ को इस बारे मेँ बताया। माँ के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गयीं। "तू उस मकान मेँ एक दिन भी और नहीं रहेगा"माँ का स्वर मेँ आदेश था। "पर माँ..."मैनेँ कहना चाह। "पर वर कुछ नहीं",माँ ने बात काट दी। "पर माँ मुझे कभी कुछ दिखा तो नहीं", मैं जो कहना चाहता था मैनेँ कह दिया। "जिनके ग्रह ऊँचे होते हैँ उन्हें आत्माएं दिखती नहीं",माँ ने समझाया। "पर वो हैं वँहा। शायद वो नहीं चाहती की तुम वँहा रहो",माँ ने शंका ज़ाहिर की।

"अच्छा मकान बदल लेंगें। पर पहले मिले तो सही",मैनेँ सांत्वना दी। पर माँ कँहा मानने वाली थी।
"चाहे सड़क पर सो । पर उस मकान मेँ एक दिन भी नहीं। खा मेरी कसम",माँ मुझसे पक्का वादा चाहती थी। "ठीक है । जैसा तुम कहो",मैनेँ बात समाप्त की।

ये शायद माँ की दुआओं का ही असर रहा होगा कि उसी दिन दिल्ली ऑफिस मेँ हमेँ तीन महीने की ट्रेनिंग में दिल्ली आने का आर्डर मिल गया। जोधपुर जा कर रिलीव हो कर आना था। जाते ही हमनें वो मकान खाली कर दिया। और हम दिल्ली आ गए।

आज इतने वर्षो बाद भी जब उस मकान मेँ बिताये दिनों के बारे मेँ सोचता हूँ,तो सरसरी सी होती है।

Tuesday, 8 September 2015

वो मकान - भाग 3

उस दिन जब हम आफिस से आये तो बाहर तक पानी बह रहा था। अंदर आकर देखा तो पूरे घर में पानी ही पानी था। सारे नल खुले हुए थे और पानी बह रहा था। हमने एक एक करके सारे नल बंद किए। पानी सूता और अचंभित से एक दूसरे को देखने लगे।

यह कैसे हुआ। नल तो बंद थे। और खुला भी रह जाये तो कोई एक नल खुला रह सकता था। सारे नल पूरी तरह से खुले हुए थे। कारण समझ से बाहर था। मुझे डर लग रहा था। यह पहली घटना थी कि कोई हमें यह बताना चाह रहा था कि इस घर में हमारे साथ कोई और भी रहता है। सोम ने इस घटना को ज्यादा महत्व नहीं दिया। मैंने अपना बिस्तर सोम के कमरे में ही लगा लिया।

दो चार दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। हमेँ नल खुलने की इतनी चिंता नहीं थी जितनी पानी का बिल आने की थी। इसका एक उपाय हमें मिल गया। रोज ऑफिस जाते समय हम बाहर मीटर के पास लगा मैन वाल्व बंद कर जाते। अब नल तो खुलते पर पानी नहीं बहता। कुछ दिन बाद नलों का खुलना भी बंद हो गया।

एक रात हम खाना खा कर रोज की तरह टहलने निकले। सोम अपनी लुंगी बनियान वाली पोशाक में था। गर्मी की वजह से वो अक्सर अपनी लुंगी को फोल्ड करके कमर पर बांध लेता था। बनियान भी रोल करके छाती तक चढ़ा लेता था। माचिस उसकी लुंगी के फोल्ड में बंधी रहती थी। चार साढ़े चार फुट की हाइट,पक्का रंग  व सपाट चेहरा उसे एक अलग ही व्यक्तित्व प्रदान करता था। गजब का आत्म विश्वास था उसमें। मैं तो उसके आगे बौना लगता था। डर तो उसे मानो छू ही नहीं गया था।
अभी हम कुछ ही दूर गए थे कि पड़ोस वाले एक सज्जन साथ हो लिये। कॉलोनी खत्म हो चुकी थी । अब हम कब्रिस्तान की और बढ़ रहे थे।
हमारे साथ वाले सज्जन ठिठके। "ये आप लोग आगे कहाँ जा रहे है?"
"बस उस पुरानी कब्र तक। कुछ देर बैठेंगे वँहा"
"आप लोगो का दिमाग तो ठीक है?"
"हाँ,बिलकुल दुरुस्त है।आप भी आइये। बड़ी शांति है वँहा पर।"सोम बोला
"न भई न। मैं तो आने से रहा। आपको भी कहूँगा वँहा मत जाया करिए। कँही कुछ हो गया तो मुश्किल मेँ पड़ जायेंगे।"वे बोले।
वह तो लौट लिए और हम लाईट का पोल पार करते हुये अपनी रोज वाली कब्र पर आ बैठे।

चारो तरफ घोर नीरवता का साम्राज्य था। हल्की हल्की हवा चल रही थी। पेड़ो पर लगे पत्ते हवा के साथ झूम रहे थे। हम दोनों काफी देर तक बिना कुछ बोले बैठ रहे। दूर दूसरे पोल की लाईट आज बंद थी। अचानक सोम को सिगरेट की तलब हुई। कान के पीछे लगी सिगरेट उसने निकली और ठोक कर उसका तम्बाकू ठीक किया। लुंगी मेँ उडसी हुई माचिस टटोलते हुए बोला,"पंडित जी माचिस तो रह गई। अब क्या करें। आज तो कोई दिया भी नहीं जला गया।"

अभी पिछले दिन ही कोई एक पेड़ के नीचे दो बेसन के लड्डू, कुछ पैसे और सिंदूर रख कर दिया जला गया था। सोम ने देखा तो बोला,"पंडित जी आज तो किसी का बर्थ डे लगता है यँहा।" मेरे बहुत मना करने पर भी जनाब ने लड्डू से पेट पूजा की। पैसे लुंगी मेँ उडसे और चले आये।

पर आज तो दिया भी नहीं जल रहा था। सिगरेट कैसे जलाएं। तभी दूसरी और से एक आदमी साइकल पर  चढ़ कर आता दिखा। "इसके पास जरूर माचिस होगी",मैनेँ कहा। सोम ने आवाज लगाई,"ओ भैया।" सन्नाटे में गूंजती आवाज सुन कर वो साइकल से उतर कर रुक गया। जिस तरफ से वो आ रहा था उधर के पोल पर आज अँधेरा था। अँधेरे मेँ वो हमें देखने की कोशिश कर रहा था।

उसने साइकिल वापस मोड़ ली और धीरे धीरे पैदल ही वापस जाने लगा। शायद वो डर गया था। बार बार पीछे मुड़ कर हमें देखता जाता था। इतनी रात गए उसे किसी के कब्रिस्तान मेँ होने की आशा नहीं रही होगी।

"अरे ये तो जा रहा है", सोम ने कहा और तेजी से उसकी तरफ चल दिया।
"ए भैया,माचिस है।" सोम ने आवाज दी।
उसने सोम को अपनी तरफ आते देखा। एक झटके मेँ उसने साइकल दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाई और भाग छूटा।

हम दोनों काफी देर तक हंसते रहे और फिर वापस लौट पड़े।

Saturday, 5 September 2015

वो मकान -भाग 2

गतांक से आगे-
अगले दिन हम उन गार्ड साहिब से मिले। वह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे। हमने कहा कि मकान हमें अच्छा लगा, आप किराया बताइये। उन्होंने कहा 80 रुपए महीना। सुन कर यकीन नहीं हुआ। वैसे उस समय किराये इतने ही होते थे पर हमें कुछ ज्यादा की उम्मीद थी।

अपनी प्रसन्ता को बिना जाहिर किये मैने कहा ' "कुछ कम नहीं हो सकता?" वह बोले , "तुम लोग कुछ माह रह के देख लो। किराया बाद मेँ देख लेंगे।" मुझे वो व्यक्ति भला इंसान लगा। 424 रुपए की तनखा से 40 रूपये किराया निकल ही सकता था।

हमने कहा ठीक है हम आज सफाई कर के कल से शिफ्ट हो जायँगे। किराये के 80 रुपए देते समय मैनेँ यूँ ही जिज्ञासा वश पूछा,"आप स्वयं क्यों नहीं रहते वँहा?" उन्होंने बताया कि पुराने शहर मेँ उनका पुश्तैनी मकान है वह वंही रहते हैँ फिर रात बिरात उनकी ड्यूटी ऑफ होने का भी समय नहीं है। इतनी दूर जाने का कोई साधन भी रात मेँ नहीं मिलता।   उनके जवाब में तर्क था।

शाम को हम जा पहुँचे एक बाल्टी, मग और झाड़ू के साथ। कई दिनों से बन्द मकान की जो हालत होती है वही इस की भी थी। शाम का समय था । पानी आ रहा था।हमनें अच्छी तरह से फर्श धो डाला। बाहर का पानी निकालते समय साथ वाले फ्लैट मेँ खड़े दो लड़को ने पूंछा।
"आप लोग आ रहे हैं यँहा?"
मैनेँ कहा, "हाँ"
"पढते हो?"
"नहीं। रेलवे में नोकरी करते हैं।और आप?"
"हम यँहा वाटर वर्क्स में JE हैं। पहले हम इसी मकान में आ रहे थे। पर फिर..."उसने जान बूझ कर बात अधूरी  छोड़ दी।
"फिर क्या", मेरी उत्सुकता बढ़ गयी थी।
"तो आपको कुछ नहीं मालूम"।
"क्या नहीं मालूम"।
दोनों ने एक दूसरे की और देखा," कहते है यह मकान कुछ ठीक नहीं है। तभी तो खाली पडा है। ये जो दायीं और कब्रिस्तान है , कहते है ये पहले यँहा तक फैला हुआ था। हम तो कहेंगे आप लोग भी कोई और मकान देख लें। यहीँ मिल जायेगा। "
"पर हम तो किराया भी दे चुके। अब वो वापस थोड़ी करेगा। और बिना जान पहचान के हमें कौन मकान किराये पर देगा।"
"वो सब आप देख लो।"
हाथ मिला कर वो दोनों अंदर जा चुके थे।

अँधेरा हो चुका था। मेरी तो अंदर जाने की हिम्मत नहीं पड रही थी। बड़ी मुश्किल से एक मकान मिला था और वो भी हॉन्टेड निकल आया।
"क्या करें?"मैने सोम से पूछा।
"करना क्या है । कल सामन लेकर आ रहे है। कल की रात यंही सोयंगे। तू भी पता नहीं किस किस की बातो में आ जाता है। अरे भूत वूत कुछ नहीं होते। मन का वहम है। अच्छा चल अंदर चल के देख लेते हैँ कोनसा भूत है यँहा"

हम अंदर गए । लाइटे जला दी। हर जगह घूम घूम के सोम ने आवाज लगाई, "अरे भई कोई भूत है तो मिलो आके"।
"देख लो है कोई यँहा", सोम बोला। "और कोई होगा तो मिल लेंगे उससे भी। वैसे भी मैनेँ आज तक कोई भूत देखा नहीं। इसी बहाने देख लेंगे।"

अब मैं मकान मालिक की उस बात को रिलेट कर पा रहा था जब उन्होंने कहा था की कुछ माह रह के देख लो।

मकान अच्छी तरह से बन्द करके हम उसी शार्ट कट से वापस आ गए।

अगले दिन सशंकित मन से हम उस मकान में आ पहुँचे। मैं तो केवल सोम के साथ की वजह से आया था। अकेला तो शायद कभी न आता। हालाँकि ख़ुशी तो आधी हो चुकी थी पर फिर भी बहुत अच्छा लग रहा था। खुला खुला हवादार मकान। बाहर लॉन मेँ बैठ कर शाम की चाय का आनंद। और रात के खाने के बाद कब्रिस्तान तक लंबी टहल।
सुबह का खाना सोम बनाता था और रात का मैं। पर किसी दिन यदि मैं पहले पहुँच जाता था तो बाहर ही सोम का इंतज़ार करता था। अंदर अकेले जाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी।

रात में कभी लाइट चली जाती तो हम बाहर लॉन मेँ आ जाते थे। वैसे हमेशा एक टोर्च हम अपने पास रखते थे हमें आये कुछ दिन हो चुके थे और कोई अप्रत्याशित घटना अभी तक नहीं हुई थी। हम भी इस बात को भूल से चुके थे ।

Friday, 4 September 2015

वो मकान - भाग 1

जोधपुर में क्वारों को किराये का मकान मिलना एक बड़ी समस्या थी। पहली शर्त ये होती थी कि बींदणी कँहा है। मैं और मेरा एक साथी ,जिसे मैं यँहा सोम कहूँगा , मकान ढूंढ ढूंढ कर थक चुके थे। एक दो मकान झूठ बोल कर लिए कि शादी हो चुकी है पत्नी टीचर है छुटियों में आ जायगी। पर झूठ कितने दिन चलता। सभी खाली करवा लिए गए। ऑफिस में कई लोगो से कह रखा था कि कोई मकान दिलाओ। ऐसे में मेरे पास एक मकान का प्रस्ताव आया। यह किन्ही रेलवे गॉर्ड का मकान था राजस्थान हाउसिंग बोर्ड का । ये कुछ समय पहले बना मकान प्रताप नगर मेँ था। यह कॉलोनी नई बनी थी और शहर से बाहर थी। आने जाने का साधन टेम्पो थे।
मैने सोम से बात करी और तय हुआ कि शाम को देखने चलेंगे। चाबी हमने मंगवा ली थी। शाम को ऑफिस के बाद झुटपुटे मेँ हम बताये गए पते पर पूछते हुए जा पहुँचे। मकान क्या था हमारी कल्पना से कँही बड़ा था। यह एक दो बैडरूम का सिंगल स्टोरी फ्लैट था। बाहर बनी बाउंड्री का दरवाजा खोल कर हम अंदर आ गए। दायीं ओर एक छोटा सा फ्रंट लॉन था। बाउंड्री का मैन गेट सीधे पोर्च से होकर आगे गया था ।पीछे की और पक्का आँगन था।  घर में जाने के तीन दरवाजे थे। एक सामने की ओर खुलता था। एक पोर्च के रास्ते में बनी सीढ़ियों से अंदर जाता था ओर तीसरा पीछे आँगन से था। सामने कॉलोनी की सड़क थी और आस पास सटे हुये और फ्लैट्स थे। इससे पहले के सारे मकान एक कमरे और रसोई के थे। हमारे लिए तो यह किसी बंगले से कम नहीं था। खुली साफ़ सुथरी हवादार कॉलोनी में बने इस खाली मकान को देखकर हम तो ख़ुशी से उछल पड़े।
" हम अपने साथ किसी और को नहीं रखेंगे", सोम चहकता हुआ बोला।
मैनेँ कहा,"किराया तो पता कर लो फिर तय करेंगे कि कितने लड़के मिल कर रहेंगे।" छोटी सी तनख्वाह मेँ अधिक किराया हम नहीं दे सकते थे। और इतना खुला और बड़ा मकान जरूर महंगा होगा।
"वो भी पता कर लेंगे पर हम दोनों ही रहेंगे",सोम बोला।
सामने से ताला खोलकर हम अन्दर आये। दो कमरे, डाइनिंग स्पेस, रसोई व लैट्रिन बाथ हमारे लिए जरूरत से ज्यादा थे। बाथरूम मेँ जाकर नल खोल कि धल धल करके मोटी धार गिरने लगी।
"भई मजा आ गया शावर वाला बाथरूम और किचन के सिंक मेँ भी नल" ।"ये कमरा मै लूंगा", एक बेड रूम मेँ आते हुए मैनेँ कहा तो सोम ने बिना कोई आपत्ति किये दूसरा वाला कमरा चुन लिया।
तय हुआ कि कल किराये की बात करके पेशगी दे देंगे । कल शाम आकर साफ सफाई करके  परसों से आ धमकेंगे। मकान मिलने का सुख वो ही जान सकता है जो गली गली मकान ढूंढते भटका हो।
हमने ताला मारा और निकल पड़े । अभी हम पिछले कुछ दिनों से रेस्ट हाउस मेँ अड्डा लगाये हुए थे। केअर टेकर भी रोज चिक चिक करता कि यह रहने के लिए थोड़ी है। बेड खाली करो।
"पर यार यँहा से आना जाना एक समस्या होगी",मैनेँ चिंता जताई।
"ये दायीं तरफ वाला रास्ता कँहा जा रहा है?, सोम बोला।
"चलो देखते है। हमें कौनसी जल्दी है।" मैं बोला और हम उस दिशा मेँ बढ़ गए।
"क्यों भाई साहिब यँहा से DS ऑफिस जाने का कोई रास्ता है क्या?" सोम ने एक से पूंछा।
आशा के विपरीत उत्तर मिला,"हाँ यह रास्ता TA ऑफिस निकाल देगा। वँहा से DS ऑफिस पास ही है। थोडा पैदल चलना होगा। या फिर उस तरफ से टेम्पो पकड़ लो । वो घुमा के ले जायगा। "वैसे ये रास्ता छोटा है पर है कच्चा। और कब्रिस्तान मेँ से होकर जाता है।",उसने आगे कहा।
" चल देखते हैं", सोम ने कहा और हम आगे बढ़ गए। बीच कब्रिस्तान के कुछ पुरानी कब्रों के बीच से निकलते हुए अँधेरा हो चला था।
"यँहा कितनी शांति है",सोम बोला। "हम तो रोज रात का खाना खा कर यंही आ जाया करेंगे" उसने आगे जोड़ा। मैनेँ कोई जवाब नहीं दिया।
जँहा से हम आये थे एक लाइट पोल वँहा था। और दूसरा लाइट पोल दूर दूसरी और लगा था। उनकी मद्धम पीली रौशनी उस पूरे रास्ते के लिया कम थी। बात करते करते हम बाहर निकल आये। रास्ता कच्चा था पर वँहा एक परचून की छोटी सी दुकान थी। सोम ने सिगरेट सुलगाई और एक लंबा कश लिया। " ऑफिस से आते वक्त यँहा से छोटा मोटा परचून का सामान लिया जा सकता है", उसने कहा। जल्द ही हम TA ऑफिस के सामने थे।
"ये रास्ता ठीक रहेगा। पर दिन दिन मेँ निकलना पड़ेगा" , मैनेँ कहा तो सोम बोला,"क्यों रात में क्या भूत चिपट जायँगे। पंडित जी तुम भी  बहुत डरते हो। अरे जिन्दा लोग ज्यादा खतरनाक होते हैं। ये तो बेचारे खुद ही मरे हुए है।इनसे क्या डरना? तुम्हे शायद पता नहीं है मुझे मरे हुए लोगो की आत्मा का आवाहन करना आता है।"
मैनेँ कहा , "मै नहीं मानता"।
"कर के दिखाऊंगा फिर तो मानोगे"।
"मुझे नहीं देखना"।
बात करते करते रेस्ट हाउस आ गया था। सामने शर्मा लॉज मेँ हमने खाना खाया। और अपने अपने बेड पर पसर गए । रोज हम अपना तौलिया बेड पर रख जाते। सामान लॉकर में जमा करा जाते। सामान के नाम पर था भी क्या हमारे पास।

क्रमशः

Wednesday, 2 September 2015

एक शहर का छूटना

फरबरी १९७८ का तीसरा सप्ताह था । सर्दी अभी गई नहीं थी । मेरा मेडिकल हो चुका था और मुझे नियुक्ति पत्र के लिया बड़ोदा हाउस जाना था । दिल्ली में नियुक्ति का प्रश्न ही नहीं था । मैं उत्साहित तो था पर दिल्ली छूट जाने का एक अजीब सा एहसास भी सुबह से हो रहा था । यह पहला मौका था मेरे अकेले बाहर जाने का । कहाँ जाना था पता नहीं था । १९ वर्ष की कच्ची उम्र थी । बिलकुल अनुभव हीन । अभी तक मैंने अपना शहर  भी नहीं देखा था । एक ही रास्ता मालूम था - गांधी नगर - जहाँ मेरा स्कूल था से पुरानी सब्ज़ी मंडी - जहाँ हम कुछ वर्ष पूर्व ही आये थे । क्या होगा , कैसे होगा , यही सब मन में चल रहा था । कॉलेज जाना हुआ नहीं । दिल्ली विश्वविधालय से बाह्य विधार्थी के रूप में पंजीकरण  करवा लिया था । अंतिम वर्ष बाकी  था । मन में ढेरों  सपने संजोय थे । बार बार मन को समझा रहा था - सब ठीक होगा । तू अकेला नहीं है ।

पापा ने समझा दिया था - "जोधपुर मांग लेना यदि पूंछा जाये तो । वरना कंही पंजाब में फिरोज़पुर मिल गया तो परेशान  रहेगा। मुरादाबाद है  तो दिल्ली के पास पर इलाका ठीक नहीं है। और लखनऊ तो बिलकुल ही बेकार है । "  पापा रेलवे में थे । हर मंडल उन्होंने देख रखा था । फिर राजस्थान हमारा पैतृक राज्य होने से मेरा भी लगाव स्वाभाविक था । पर क्या मुझसे पूंछा जायेगा ? इसी उहा पोह में ऑफिस आ गया। मेरी आशा के विपरीत एक एक को बुला के पूछा जा रहा था। एक बात तो पक्की थी -दिल्ली किसी को नहीं मिल रहा था। मुझे कहा गया जँहा जाना चाहोगे उसके ठीक विपरीत भेजेंगे। मेरा नम्बर आया। कुर्सी पर बैठे अधिकारी ने बिना किसी भूमिका के पूछा, " कँहा जाना चाहते हो?" पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकला," जँहा कोई न जाना चाहता हो"। शायद उन्हें इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उनकी मुखाकृति कुछ ऐसा ही बता रही थी। मैँ सोच रहा था कि ऐसा बोल कर ठीक नहीं किया। उन्होंने कहा," जोधपुर,बीकानेर कोई नहीं जाना चाहता। तुम जाओगे?" अँधा क्या चाहे । दो आँखे। तुरंत हाँ बोल दिया। उन्होंने कहा फिर बदलूंगा नहीं। सोच लो। मैंने कहा सोच लिया। बस फिर क्या था। आनन् फानन में मंडल लेखा अधिकारी ,जोधपुर के नाम पत्र और लाल रंग का सेकंड क्लास का पास थमा दिया गया।

रिजर्वेशन का सवाल ही नहीं था। रात 8:20 की जोधपुर मेल पकड़नी थी जो पुरानी दिल्ली के उस समय के मीटर गेज प्लेटफार्म से जाती थी। पैकिंग भी करनी थी। मैं घर को लौट चला। 

कोपरनिकस मार्ग पर दोनों और गुलमोहर के पेड़ लगे थे। फूलों का मौसम अभी कुछ दूर था पर फिर भी लाल रंग के फूल पेड़ो पर सज गए थे। बेमौसम की बरसात हो कर चुकी थी। फूल सड़क पर आ गिरे थे। मेरा मन उन्हें कुचलने का नहीं था इसलिए बचता हुआ चल रहा था। पर बाकी चलने वालो ने उन्हें बेदर्दी से कुचल दिया था। उनका लाल रग़ कँही कँही सडक़ से चिपक गया था। बारिश की बूंदे जो पेड़ो के पत्तों पर ठहर गयी थी, हवा के साथ मुझ पर गिर के मुझे भिगो रही थीं। मन तो आद्र था ही ,तन भी भीग रहा था। आज यह शहर मुझसे छूटने जा रहा था। ये ललित कला अकादमी, ये दूरदर्शन केंद्र, ये श्री राम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर, ये नुक्कड़ पर ब्रेड पकोड़े और चाय का स्टाल जँहा कितनी शामे मैंने गुजार दी थी ,आज छूट जायँगे। फिर पता नहीं कब आना होगा। मन हो रहा था जोर से रो लूं और मुझे कोई अपने आगोश मेँ भर ले। पर लड़के कँही रोते हैं? पता नहीं कब घर पहुँच गया। शाम को पापा स्टेशन छोड़ने आये। जैसे तैसे एक बर्थ दिला दी थी। गाड़ी चल पड़ी। पापा आँखों से ओझल हो गए। पर मैं गेट पर खड़ा रहा। और देखता रहा अपने शहर को छूटते हुए। मेरा शहर छूटता जा रहा था। दिल्ली कैंट तक मैं गेट पर ही खड़ा रहा। जब दिल्ली कैंट स्टेशन बाहर सर्द कोहरे की चादर मैं कँही खो गया तो मुझे भी सर्दी का अहसास हुआ। भारी मन से मैं अंदर आ गया। मेरी बर्थ पर तब तक कुछ और लोग कब्ज़ा कर चुके थे। मेरा शहर भी छूट चूका था।

Tuesday, 1 September 2015

एक और रात और पुरानी यादें

रात फिर आ गयी है हमें सुलाने और भुलाने वो सब दुःख दर्द, वो सारी आशंकाएं,वो सारी चिन्ताएं जिसे हम दिन भर ढोते है इस डर के साथ कि कहीं ये सच न हो जाएँ। रात ले लेती है हमेँ अपने आगोश में और भुला देती है उन सारी आशंकाओं को मीठी थपकी के साथ। रात न होती तो क्या होता? न चाँद खिड़की से झांकता। न खिड़कियों के पर्दे ठंडी हवा से उड़ते।न कोई लोरी सुनाता और न कोई सोता।
मुझे अभी भी याद है छत पर सोने का वो आनन्द। गर्म भभकती छत को शाम को पानी डाल कर ठण्डा करना।फिर दीवारों से निकलती मिट्टी की उस सोंघि सुगंध को नथुने में भर लेना। ठंडी हो चुकी छत पर बिस्तर लगा के छोड़ देना। फिर ठंडे हो चुके बिस्तरों पे लेटना। ऊपर खुला आकाश मोतियों से जड़ा। चाँद को चलते हुए देखना। हवा न चलने पर ' पुर' से समाप्त होने वाले शहरों के नाम लेना। और पता नहीं कब नींद के गहरे आगोश में समां जाना।
तब न कोई चिंता थी। न व्यर्थ की आशंकाएं। कभी कभी सोचता हूँ रात तो वही है। मैं भी वही हूँ। पर नींद वैसी नहीं रही। कहाँ क्या बदल गया है? पता नहीं।
नींद से पलकें भारी हो रही है। लिखने को तो बहुत है पर अब बस।
शुभ रात्रि।