Sunday, 29 December 2019

रिकार्ड तोड़ सर्दी

दिल्ली में  रिकॉर्ड तोड़ ठंड पड़ रही है। ऐसे में सबसे मुश्किल काम है सुबह के दैनिक कार्य से निवृत  होना और नहाना। टॉयलेट की सीट भी इतनी ठंडी होती है कि उस पर बैठते ही 440 वोल्ट का झटका लगता है। और यदि आप से पहले कोई नहा कर उसे गीला कर गया हो तो ये झटका 1000 वोल्ट का हो जाता है। गीज़र का पानी भी क्या करे ! जब तक ठंडा पानी मिले और वो नहाने लायक तापमान पर आए तब तक तो शॉवर से ठंडा पानी आना शुरू हो लेता है।

 एक मित्र बता रहे थे कि यदि ठंडा पानी कोई सीधा सिर पर डाल लें तो स्वर्ग जाने का नम्बर लग सकता है। तो दूसरे ने कहा कि टॉयलेट के जेट के पानी से इतना करंट लगता है कि उससे भी व्यक्ति स्वर्ग सिधार सकता है। अब समझ आ रहा है ये अंग्रेज़ पानी की जगह पेपर का प्रयोग क्यों करते हैं! अब तो लगता है जापान की तरह यहाँ भी टॉयलेट और गीज़र के पानी का तापमान अपनी सुविधानुसार रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। 

यदि आप गर्म खाने के शौकीन हैं तो इन दिनों एक ही तरीका है कि आप गैस पर तवा रख कर उस पर बैठे और खाना खाएं। वर्ना गैस से उतर कर आप की थाली तक आते आते खाना तो गर्म रह ही नहीं सकता।

अभी तो कहा जा रहा है ठंड और कहर बरपा करेगी। दारू के शौकीन तो फिर भी झेल लेंगें, लौंग खा कर सर्दी भगाने वाले मुझ जैसे पंडित क्या करेंगे? 

इसी पर याद आया कि बहुत वर्ष पहले हम तीन मित्र मसूरी में थे। बर्फ इतनी पड़ी थी कि पूरी घाटी देहरादून से कट गई थी। जिस होटल में हम ठहरे थे वहाँ न अलाव था न कोई हीटर ही। बिस्तर इतना ठंडा कि मानो बर्फ की सिल्ली पर सो रहे हों। ज्यादातर कमरे खाली थे। जब ठंड के मारे दाँत बजने लगे तो मेरे दो साथियों ने पेग लगा लिया। मैंने दो लौंग चबा लीं पर उनसे क्या होना था। मैंने रूम सर्विस को कॉल किया तो एक गोरखा सा दिखने वाला व्यक्ति आया। मैनें बड़ी आशा से कहा कि बिस्तर बहुत ठंडा है कोई हीटर-वीटर की व्यवस्था हो सकती है क्या? उसने मेरी और अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा। मैंने समझा शायद पैसे चाहता है। मैंने कहा मैं रात भर के किराए के हिसाब से पैसे अलग से दूंगा। वो बोला वो तो ठीक है शाब पर ऑफ सीज़न है न। सब नीचे चली गईं हैं। वरना मैं जरूर  कोई न कोई इंतजाम कर देता। जब तक मुझे समझ में आया, वो जा चुका था और मेरे दारू मित्र मुझ पर हँस रहे थे।

अभी तो दिल्ली शिमला से भी ठंडा हो रहा है। मेरे एक मित्र हैं जो 118 वर्ष की रिकॉर्ड तोड़ ठंड में निरुद्देश्य दिल्ली की सड़कों पर घूमने निकल पड़े। वैसे स्वभाव से वो घुमक्कड़ी ही हैं। पर उनकी हिम्मत की मैं दाद देता हूँ। उन्होंने फेस बुक पर अपनी तस्वीरें पोस्ट करी थीं। 

अपनी तो सुबह शाम की टहल इस सर्दी की भेंट चढ़ चुकी है। मैं तो फिर कम्बल छोड़ दूं पर ये कमबख़्त कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ रहा है। अब तो लिखते लिखते उँगली भी जम रही है। चलिए अलविदा। अपना ख्याल रखें इस सर्दी में। 

Wednesday, 25 December 2019

अनत कँहा सुख पावे।

वैसे तो मैं धर्म पर लिखने से परहेज़ करता हूँ। कारण कि मैं अपने को इसका अधिकारी नहीं मानता। धर्म जैसे गूढ़ विषय पर मैं निपट अज्ञानी हूं। दूसरे, धर्म जैसे विषय पर आपके विचार, वैमनस्य का कारण हो सकते हैं। पर आज सुबह से मुझे मेरे मित्रों से क्रिसमस की शुभकामनाओं के इतने संदेश मिल रहे हैं कि मुझे लगने लगा कि कँही रातों रात मेरा धर्म तो परिवर्तित नहीं हो गया! एक समय था जब मैं भी कुछ ऐसा ही था।

बात उन दिनों की है जब मैं  किशोरावस्था और यौवन की  वय:संधि पर था। परिपक्वता किसे कहते हैं कँहा जानता था! बस लीक से हट कर चलने की ठान रखी थी। जो सब करते हैं उससे अलग कुछ करना था। क्या करना था पता नहीं था। बस कुछ अलग सा करना था । मन उद्वेलित रहता था। कल्पनाओं के पंख उग आए थे और आशाओं का अंनत आकाश खुला था उड़ान के लिए। 

ऐसे ही किसी दिन मेरा परिचय इसाई धर्म से हुआ। कैसे हुआ, किसने कराया, याद नहीं। बस इतना याद है कि एक छोटी सी पुस्तक हाथ आई थी ईशु मसीह पर , जिसमें कुछ कहानियां थी। मैं कैसे इसका सदस्य बना, ये भी याद नहीं। बस कुछ साहित्य मुफ़्त में डाक से मिलने लगा। माँ को पता लगा तो उन्होंने मुझे समझाने का प्रयास किया पर बेकार। मुझे तो कुछ अलग सा करना था। सभी धर्म अच्छे हैं और सभी को अपनाया जाना चाहिए ऐसा मेरा मानना था। ये साहित्य बढ़ता चला गया और मैं इसमें आगे चलता गया। इसके चलते एक दो बार चर्च भी गया। कभी ये जानने की आवश्यकता नहीं हुई कि आखिर कौन इस साहित्य को उपलब्ध करवा रहा है। इसके लिए पैसा कँहा से आ रहा है। ये सब प्रश्न निर्रथक थे उस समय।

इसी बीच मैं गीता प्रेस गोरखपुर के संपर्क में आया। सनातन धर्म से मेरा परिचय तभी  हुआ। जैसे जैसे परिपक्वता आती गई मुझे अपने धर्म के बारे में और ज़्यादा जानने की उत्सुकता बढ़ती गई। मेरा जन्म हिन्दू धर्म के ब्राह्मण परिवार में ही क्यों हुआ ? मैं कँही किसी और धर्म को मानने वाले परिवार में भी तो जन्म ले सकता था। मैं किसी अन्य देश जैसे सुदूर अफ़्रीकी देश में भी पैदा हो सकता था। मैं मनुष्य ही क्यों बना? किसी और योनि में भी तो जा सकता था। क्या ये मात्र संयोग था या उस सृष्टि कर्ता का किसी  सोची  समझी योजना के तहत ऐसा हुआ था ? मैं ये सोचने पर विवश था। 

फिर ऐसे ही किसी एक दिन मुझे "गीता" मिली। बिना समझे मैंने उसका हिंदी अनुवाद पढ़ना शुरू किया। यधपि मेरी माँ मेरे गीता पढ़ने से सहमत नहीं थीं। उन्हें लगता था कि मैं कँही संन्यासी न हो जाऊं। पर मैंने पढ़ना जारी रखा। फ़िर एक दिन एक श्लोक पढ़ने में आया। 

"प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।"

अर्थात , योगभ्रष्ट मनुष्य, पुण्य कर्म करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं उन्हें प्राप्त करके और उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र और धन सम्पन्न व्यक्तियों के घर में जन्म ग्रहण करता है।

मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल गया था। जैसे जैसे मैं सनातन धर्म को जानता गया मुझे लगने लगा कि मैं अपने ही धर्म के बारे में कितना अज्ञानी हूँ। इसे जानने के लिए तो कई जन्म कम पड़ जाएंगे और मैं किसी ओर धर्म को जानने में समय नष्ट कर रहा हूँ ! मुझे स्वयं से वितृष्णा सी हो आई। सूरदास जी की पंक्तियां "परम् गंग को छाड़ि पियासों, दुर्मति कूप खनावै " वाली बात सार्थक हो उठी। पास ही निर्मल पवित्र गंगा बह रही थी  और मैंं प्यास बुझाने को कुुुँँआ खोद रहा था। क्या कर रहा था मैं ?

ये ठीक है कि कोई भी धर्म बुरा नहीं है। हो सकता ही नहीं। पर जो जिस धर्म में स्थित है, उसके लिए वो अपना स्वयं का धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। कहते हैं - "धर्मो रक्षति रक्षितः" अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा । स्वयं के धर्म में स्थिर रहना ही धर्म की रक्षा है। गीता भी कहती है -  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।  अर्थात अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।  और सनातन धर्म तो एक ऐसा धर्म है जो अन्य सभी धर्मों को आत्मसात करने की क्षमता रखता है।   
इसे छोड़ कँही अन्यत्र भटकना तो "सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावे" वाली बात होगी। 

यदि कोई ये कहता है कि वह सभी धर्मों का आदर करता है तो वह महान है। पर यदि कोई ये कहता है कि वह सभी धर्मों को मानता है, तो मेरा मानना है कि वह किसी भी धर्म को नहीं मानता। वह कोरा नास्तिक ही है। 

उपरोक्त विचार मेरे अपने विचार हैं और कोई भी इन्हें मानने को बाध्य नहीं है। इन विचारों से किसी की भावनाएं यदि आहत हुई हों, तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

Thursday, 19 December 2019

कारों की गुफ्तगू

सर्दी के मारे सुबह शाम का टहलना कई दिनों से बंद था। आज रात्रि का भोजन कर सोचा कुछ चहल कदमी कर ली जाए। कनटोप लगा गर्म शॉल से लिपटा हाथों को बगल में दबाए,  मैं बाहर निकल आया। 

बाहर आते ही सर्द झोंके ने खुल कर स्वागत किया। गोया पूंछ रहा हो, "मियां, बड़े दिन बाद दिखे।" मैंने कनटोप नीचे किया औऱ आगे बढ़ गया। पैरों में बिना मोजों के चप्पल थी। ठंड पैरों से होती ऊपर चढ़ रही थी। मैंने भी ठान लिया अब निकल ही आया हूं तो बीस- पच्चीस मिन्ट तो घूमूँगा ही। 

सर्दी से ध्यान हटाने के लिए मैंने आसपास देखना शुरू किया। बड़े बड़े गमलों में ऊँचे ऊँचे पौधे लगे थे। नीचे जो पत्ते थे वो ऊपर के पत्तो से ढके थे। मैंने सोचा कि ऊपर वाले पत्तो को ज्यादा सर्दी लग रही होगी। जो नीचे हैं, उनकी छत्र छाया में हैं वो मजे में है। तभी गमले में लगी लाल फूलो की घास पर नज़र पड़ी। ये ढेरो कलियों से लदी थी जो सुबह होते होते निश्चित रूप से लाल चटक फूलों में बदलने वाली थीं। ये तो और भी सुरक्षित है सर्दी से। इसका मतलब जो जितना नीचे है वो उतना सुरक्षित है । जिसके ऊपर जितने ज़्यादा बड़े हैं वो उतना ही सुरक्षित है।  

आगे नीम के दो बृहद वृक्ष खड़े थे । दोनों वैसे तो काफ़ी दूरी पर थे पर उनकी टहनियां इतनी बढ गई थी कि एक दूसरे से आ मिली थीं। मुझे लगा सर्दी की वजह से एक दूसरे से लिपट कर सो रही हैं। पास के पेड़ के झुरमुट में एक छोटी काली चमकदार चञ्चल चिड़िया का बसेरा है। मैंने पास जा कर झांक के उसे देखना चाहा पर अँधेरे में मुझे वो नज़र नहीं आई। मुझे मालूम है कि वो इसी झुरमुट में सोई है। उसकी नींद में बाधा पहुँचाने की मेरी कतई मंशा नही थी। मैंने कंधों से सरकते शॉल को संभाला और आगे चल दिया। 

आज पीपल के पेड़ के नीचे गणेश लक्ष्मी बिना दिए और अगरबत्ती के थे। वरन और दिन तो दिए के प्रकाश से इन्हें गर्मी मिलती थी।  कार पार्किंग में शेड के नीचे खड़ी कारों को देख कर मुझे अच्छा लगा। चलो ये तो रात में गिरने वाली ओस से बची। 

कुछ ही दूरी पर दो सफेद कारें जिनमें से एक  पर "भारत सरकार" लिखा था खुले में दीवार की ओट लिए खड़ी थीं। दोनों के मुंह एक दूसरे की और थे। धीरे धीरे कुछ बतिया रही थीं। मैं ठिठक गया। सुनु तो सही क्या बाते हो रही हैं।

"और सुना सखी, आज का दिन कैसा बीता?" पहली ने कहा।

"न ही पूंछो तो अच्छा है।" दूसरी का मुँह बिसरा हुआ था 

"क्यों। क्या हुआ?"

"अब क्या बताऊँ। आज तो पूरी दिल्ली में मानो आग लगी थी। पता नहीं क्या मामला था। जँहा देखो, पुलिस ही पुलिस। लोगों के हुजूम ही हुज़ूम। जगह जगह बेरिकेडिंग।"

"अरे सखी, तुझे नही पता? ये कोई 'नागरिकता बिल' लाई है सरकार। इसी का विरोध हो रहा है।"

"ये मुआ क्या है?"

"ये तो मुझे भी नहीं पता। वो तो साहब बात कर रहे थे तो मैंने सुन लिया। पर तुझे क्या दिक्क़त हुई? तुझ पर तो "भारत सरकार" लिखा है।"

"वो ही तो साहब  कह रहे थे पुलिस वालों से। पर वो कँहा किसी की सुनते हैं। सारी गाड़िया चैक कर रहे थे। और तू सुना। तू कँहा कँहा हो आई आज?"

"अरी सखी! मैं तो 'गुरुग्राम' गई थी।"

"ये मरी कौनसी जगह है?"

"अरे वही जो 'गुडगांव' हुआ करता था। अब इनका नाम बदल के 'गुरुग्राम' कर दिया है।"

"मैंने भी सुना है। साहब  एक दिन किसीसे कह रहे थे जब से ये सरकार आई है कई जगहों के नाम बदल दिये गए हैं।"

"सुन सखी, मेरा भी नाम 'डिज़ायर' से 'बी एम डब्ल्यू' हो जाये तो कितना अच्छा हो न। अरे हाँ, तू वो 'गुरुग्राम' के बारे में बता रही थी।"

"अरे वँहा का हाल न पूंछ। कोई चार किलोमीटर लंबा जाम लगा था टोल पर। एक तो बेरिकेडिंग दूसरे ये 'फ़ास्ट टैग'। सारा दिन वंही लग गया आज तो। बहुत थक गई हूँ। ऊपर से ये कमबख्त सर्दी। ये ड्राईवर हमें शेड में क्यों नहीं पार्क करता?"

"शेड में जगह हो तो वँहा पार्क करे न। हमारी किस्मत में तो रात भर ओस में भीगना लिखा है। मिश्रा जी की गाड़ी देखो। शेड में रहती है और मोटे कवर से भी ढकी रहती है। क्या मजाल की सर्दी छू भी जाये।"

"शी, शी, शी। जरा धीरे बोल। ये मरदुआ काफ़ी देर से खड़ा हमारी बातें सुन रहा है।"

"अरे! ये मर्द होते ही ऐसे हैं। औरतों की बातें सुनने को इनके कान लगे ही रहते हैं। "

"और देखने को दीदे! देख तो सही कैसे टेढ़ी टेढ़ी नज़रो से देख रहा है।"

मैंने तो वँहा से खिसकने में ही भलाई समझी। तेज़ तेज़ कदम चलता हुआ मैं अंदर आ गया।

Tuesday, 17 December 2019

अपने ही देश में शरणार्थी

कल विगत 16 वर्षों में सबसे ठंडा दिन था। ऐसा आज का अख़बार लिखता है। जरूर रहा होगा। इतनी सर्दी दिसंबर के माह में मैंने दिल्ली में विगत कई वर्षों से नहीं महसूस की। अपनी कार में चलते हुए यमुना बाज़ार के ऊपरगामी सेतु से निकलते हुए मेरी दृष्टि बरबस उन पर चली जाती है जो खुले आसमान के नीचे इस हाड़ कंपाने वाली सर्दी में एक जर्जर हो चुके कम्बल में फुटपाथ पर गठरी बने पड़े हैं। पूरी दिल्ली में ऐसे कितने ही बेघर हैं जो सर्दी और बरसात में रोज़ जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ते हैं। सरकार के उपलब्ध कराए गए रैन बसेरे कम हैं और ऐसे बेघरों की संख्या अधिक है। कितने लोगो को आसरा मिल सकता है! थोड़ा आगे इसी सड़क पर "मजनू का टीला" है। वंही एक झुग्गी बस्ती है जिसमें वर्षो से पाकिस्तान से विस्थापित शरणार्थी रहते हैं। मिट्टी और फूस से बनी चार दीवारी जिस के ऊपर फूस की छत है, पीछे बहती यमुना से कोई 50 मीटर दूर होगी। कई झुग्गियों की तो एक तरफ़ दीवार भी नहीं है। पास बहते नाले की बदबू और मच्छरों के आतंक और उस पर यमुना की सर्द हवा। कैसे कटेगी रात? वर्षो से ये विस्थापित हिन्दू परिवार अपने ही देश में शरणार्थी होने का दंश झेल रहे हैं। पर आज इनके चहरे पर खुशी है। इन्हें लगने लगा है कि जल्द ही इन्हें इस देश की नागरिकता मिलेगी। नागरिक होने के नाते सभी बुनियादी सुविधाओं के अब वो भी अधिकारी हो जाएंगे। उनके बच्चों को वो पीड़ा नहीं झेलनी होगी जो उन्होंने जीवन पर्यन्त झेली है। इन सब में कितना समय लगेगा, पता नहीं। पर आशा बंधी है। पर उन्हें जो इन सब का विरोध कर रहे हैं, इनकी आशाओं से क्या लेना देना?  उनका तो उद्देश्य है विरोध करने के लिए विरोध करना। क्या कोई एक भी कारण बताएगा इस विरोध का! 

Thursday, 5 December 2019

पत्नी की छुट्टी

इन दिनों पत्नी बेटी के पास गई हुई है। वो कैसे लोग होते हैं जो पत्नी के मायके जाने पर स्वतन्त्रता दिवस मनाते हैं ! मैं तो इन दिनों जो भुगत रहा हूँ, मैं ही जानता हूँ। ऐसी ही एक सुबह की झलक आप की नज़र है। खुश हो जाइए कि आपकी श्रीमती जी घर पर हैं।

अल्ल सुबह अलार्म ने मीठी नींद से जगा दिया। एक तकिया सिरहाने लगा और दूसरा बगल में दबा मैं फिर कम्बल में और अंदर घुस गया। पाँच मिनट और । बस, अभी उठता हूँ।

ये कौन सुबह सुबह दरवाज़े की घण्टी बजा रहा है। अभी तो कामवाली के आने का भी समय नहीं हुआ। कम्बल से मुँह निकाल उनींदी आंखों से घड़ी पर नज़र डाली। अरे ! पौने सात ! अभी तो साढ़े पाँच का अलार्म बजा था। पांच मिनट ही तो बीते होंगें। आंखे फाड़ कर फिर से घड़ी पर नज़र डाली। तभी दरवाज़े की घण्टी फिर बज उठी - डिंग डांग। डिंग डांग। जरूर कामवाली ही होगी। उसी का समय हो रहा है। "आता हूँ।" ,कह कर कम्बल फेंक के उठ खड़ा हुआ। कँही लौट ही न जाए, नहीं तो बर्तन भी मुझे ही रगड़ने पड़ेंगे।  जमीन पर पाँव रखे तो लगा बर्फ की सिल्ली पर पैर पड़ गया हो। ये कमबख्त चप्पलें कँहा चली गईं। एक तो वंही मिल गई पर दूसरी नदारद थी। शायद पलँग के नीचे चली गई थी। डिंग डांग - घन्टी फिर बजी। "इस को भी सब्र नहीं है।" बड़बड़ाता सा नंगे पैर ही दौड़ा दरवाज़ा खोलने।

पहले चप्पलें ढूंढ लूं। झाड़ू ला कर पलँग के नीचे मारी तो चप्पल और अंदर चली गई। बड़ी मशक्कत के बाद बाहर निकाल पाया। पर्दा हटा कर देखा तो पूर्व में लालिमा थी। चलो कम से कम  आज तो धूप खिलेगी। जरा बाहर का मौसम का मिज़ाज़ तो लें। दरवाज़ा खोलते ही ठंडी हवा के झोंके ने पूरी नींद खोल दी। वैसे मैं अभी भी एक घन्टा और सो सकता था। चाय की इच्छा बलवती हो उठी थी। पर बनाओगे तभी तो पियोगे। इस घड़ी का क्या करूँ। ये तो बहुत जल्दी में है। बाबा रामदेव का दन्त कांति ब्रश पर लगा , ब्रश करता मैं बॉलकनी में आ गया। चिर परिचित कट्टो गिलहरी बचे खुचे बाजरे के दाने कुतर रही थी। जैसे ही मुझे देखा कूद कर आम के पेड़ पर जा चढ़ी। मैंने झरने में पानी भरा और पौधों में देने लगा। आम के पेड़ की सबसे ऊपर की फुनगी पर रशिम प्रभा आ कर टँग गई थी। मैना का जोड़ा पास हो फुदक रहा था। नर गोल गोल घूम कर मादा को रिझाने में व्यस्त था। प्रकृति को जागे तो दो घन्टे बीत गए थे। पर मुझे ये सब देखने का कँहा अवकाश ? बर्तन मंज चुके थे। किचन मेरी प्रतीक्षा में थी। गैस जला कर मैंने चाय का पानी चढ़ा दिया। अदरक कूट के डाली और दूध, पत्ती डाल कर चाय तैयार करी। सुबह की ठंड में चाय के प्याले से उठता धुंआ ही गर्मी दे जाता है। जब से इस नामुराद मधुमेह ने पकड़ा है, चाय में चीनी तो बंद है। और आप कितनी ही अदरक, इलायची, लौंग चाय में डाल लें, बिना चीनी के वो सब बेकार हैं। 

चाय खत्म कर जल्दी जल्दी दाढ़ी बनाई। दाढ़ी के लिए गर्म पानी लेते समय याद आया कि गीज़र तो चलाया ही नहीं। अब पता नहीं नहाते वक्त भी गर्म पानी मिलेगा या नहीं! जैसे तैसे बर्फ से ठंडे पानी से ही दाढ़ी बनाई या कहना चाहिए, खुर्ची ! न भी खुरचते तो चलता पर जब से दाढ़ी सफ़ेद हुई है, एक दिन बाद ही चमकने लगती है। इसलिए अगर बीमार सा नहीं लगना हो तो इसे खुरचना लाज़मी है। 

नहाने के लिए शावर खोल कर एक मिनट तो गर्म पानी आने की प्रतीक्षा की पर गीज़र में पानी गर्म हो तो आये न। फिर ठंडे पानी के नीचे ही घुस गया। ठंड में ठंडे पानी से नहाने का एक लाभ तो है और वो ये कि भजन अपने आप होने लगता है ! अब तक कामवाली अपना काम खत्म कर जा चुकी थी। जाते जाते दरवाज़े पर पड़ा अख़बार उठा कर मेज़ पर रख गई थी। जिस अख़बार का इंतज़ार मैं हर सुबह बेसब्री से करता था, इन दिनों उसे उठाने की भी फुर्सत नहीं है। पढ़ना तो छोड़िए।

धोती बनियान डाल में किचन में आ गया। अभी बहुत काम बाकी है, आठ बजने को आये। फ्रिज में से रात की सब्ज़ी निकाली और गर्म होने रख दी। वो मैं जो सुबह की सब्ज़ी शाम को नहीं खाता था अब रात की बनाई सब्ज़ी सुबह ऑफिस ले जाता हूँ। दूध की थैली फ्रिज में रखी थी जिससे टोंड दूध डबल टोंड बन गया था। जो भी क्रीम थी सब थैली में ही चिपक के रह गई। जब तक दूध उबालता, सब्ज़ी जल गई। 
 
डिंग डांग। घन्टी फिर बज उठी। गैस सिम पर कर दरवाज़े पर आया। ड्राइवर था। उसे कार की चाबी पकड़ा, फिर किचन में आया। दूध की गैस बंद की। सब्ज़ी उतार कर टिफिन में डाली। अच्छा भला माइक्रोवेव था। फेंक दिया कि इस्तेमाल तो होता नहीं है। क्योंकि हम सुबह की शाम और शाम की सुबह बची सब्ज़ी डस्ट बिन के हवाले कर दिया करते थे। गर्म करने की ज़रूरत ही नहीं थी। ताज़ा बनाओ, ताज़ा खाओ। पर इन दिनों तो शाम बनाओ, सुबह उसीसे गुज़ारा चलाओ वाला नियम जारी था। 

फुल्के बनाने का तो सवाल ही नहीं था। ऑफिस कैंटीन से मंगा लेंगे। जैसे तैसे आधा अधूरा टिफ़िन पैक किया। एक दो फल साथ में रखे। कुछ ड्राई फ्रूट्स डाले। और तैयार होते न होते आठ पचीस  हो लिए। दो ब्रेड पीस दूध के साथ निगलते निगलते घड़ी की सुइयां साढ़े आठ बजा चुकी थी। ये घड़ी इन दिनों कुछ तेज़ मालूम होती है। ताला लगा ही रहा था कि धोबी आ गया। 
"कितना हुआ?" ताले में चाबी घुमाते घुमाते पूछा। 
"पचास रुपए।" उसने कहा
"तुमसे कहा है, थोड़ा जल्दी आया करो।" पर्स से पचास का नोट देते हुए मैंने कहा। 
"और ये कपड़े गार्ड को दे जाओ। मैं शाम को ले लूंगा।" मेरे स्वर में झल्लाहट थी।
आठ पैंतीस पर कार कॉलोनी के गेट से निकली। पच्चीस मिनट में मुझे ऑफिस पहुंचना था। 

एक और दिन शुरू हो रहा था, पत्नी के बिना। बहुत मुश्किल है रे बाबा!

Sunday, 17 November 2019

गोवर्धन यात्रा - गतांक से आगे

12 किलोमीटर की बड़ी परिक्रमा समाप्त कर अब हम 9 किलोमीटर की छोटी परिक्रमा की और जा रहे थे। रात होने के बावजूद यात्रियों की भीड़ बनी हुई थी। उबड़ खाबड़ सड़क से होते हुए जल्द ही हम परिक्रमा मार्ग पर आ गए। इस मार्ग में गिरिराज के दर्शन उतने सुलभ नहीं हैं जितने बड़ी परिक्रमा मार्ग में हैं। अभी तो अँधेरा था पर दिन में भी गिरिराज के दर्शन सुलभ नहीं हैं। मान्यता ये है कि प्रतिदिन गिरिराज तिल तिल कर के भूमि में समाते जा रहे हैं। और मैं इसे मानता भी हूँ क्योंकि आज से 50 वर्ष पूर्व इस स्थान पर गिरिराज की ऊंचाई काफी थी जो अब देखने को नहीं मिलती। हमारे बाईं और खेत थे और दाहिने हाथ की तरफ गिरिराज। बैटरी रिक्शा बिना कोई आवाज़ किये फ़र फ़र आगे बढ़ रहा था। उस मार्ग पर कुछ गौ शालाएं भी हैं जो रात में बंद थीं। दिन के समय यँहा गय्या को चारा, गुड़ और चूरी खिलाने की अपनी ही संतुष्टि है। गौर धाम से पहले एक छोटी नहर आती है जिसे मेरे दिवंगत श्वसुर साहिब "बम्बा" कहते थे। कभी इसके  पानी में लताएं पड़ी रहती थीं और पानी खड़ा प्रतीत होता था। अब कुछ समय से इसे साफ़ कर दिया गया है। पैदल परिक्रमा पर इसके मुंडेरों पर बैठ कर मैं कुछ विश्राम करता था। अब हम गौर धाम के आगे से निकल रहे थे। ये गौड़ सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा बनाया गया विस्तृत कॉम्प्लेक्स है। जिनमें अधिकतर बंगाली है। ये चैतन्य महाप्रभु को मानते है। इससे आगे बढ़ने पर हम राधा कुंड आ गए। रिक्शा वाले ने हमें बाहर ही उतार दिया क्योंकि अंदर रिक्शा प्रतिबन्धित थी। करीब 750 मीटर की दूरी चल कर हम राधा कुंड आ पँहुचे। ये दो कुंड हैं जिन्हें राधा और कृष्ण कुंड के नाम से जाना जाता है। कहते हैं अरिष्टासुर के वध के बाद श्री राधा ने कृष्ण से कहा कि आपको जो हत्या लगी है उससे स्न्नान से ही निवृत्त हो सकते हैं । तब श्री कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे मात्र से ये कुंड खोदा था। इस पर श्री राधा ने अपने कंगन से पास ही में एक और कुंड खोद दिया था। श्री कृष्ण के आवाह्न से समस्त तीर्थो ने मूर्तिमान हो अपना जल इन कुंडों में डाला था। आज भी निःसन्तान दंपति अहोईअष्टमी को सन्तान प्राप्ति के लिए इन कुंडों में स्न्नान करते हैं।  यँहा कछुए बहुत हैं। मैंने नीचे उतर कर देखा तो समस्त ओर काई की मोटी परत थी। बड़ी मुश्किल से काई हटा कर थोड़ा जल ले सिर पर छिड़का। यँहा बाज़ार में काफ़ी रौनक थी। तुलसी की कंठी, रुद्राक्ष माला, सुन्दर तस्वीरें, धोती, बगल बन्दी औऱ भी भांति भांति की पोशाकों से बाजार अटा पड़ा था। मेरी पत्नी ने मेरे लिए पीले रंग की एक धोती और बगल बन्दी ली जिसे मैंने अगले दिन पहना। बाहर रिक्शा वाला बेचैन था। जैसे ही उसने हमें आते देखा उसके चहरे पर शांति के भाव आ गए। हम फिर से उसमें सवार हुए और आगे चल पड़े। अब हम वापस लौट रहे थे। गिरिराज एक बार पुनः दृष्टि गोचर होने लगे। हमनें एक बार फिर वो नहर पार की। जगह जगह दुकानदार पैरो की थकान दूर करने की मशीनें लिए बैठे थे। कुछ यात्री उनमें पैर डाल कर परिक्रमा की थकान मिटा भी रहे थे। इसी मार्ग पर गिर्राज की तलहटी में ग्वाल पोखरा है। पिछली बार जब मैं यँहा गया था तो इस स्थल का जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा था। ये मुख्य मार्ग से अंदर जा कर है। एक छोटे से मंदिर के अलावा यँहा एक पोखर है । नीचे जाने के लिए चारों और सीढ़िया बनी है। बन्दर इस पोखर में कूद कर खूब नहाते हैं। यँहा श्री कृष्ण ग्वाल बालों के संग गय्या चराते हुए आते थे । श्री राधा जी भी यँहा सखियों के संग आया करती थीं। रात में अंदर जाना उचित नहीं था। हम आगे निकल आये। इसी मार्ग में थोड़ा आगे कुसुम सरोवर के पश्चिम में उद्धव कुंड है। यँहा की लताओं में उद्धव जी आज भी निवास करते हैं। यहीं पर पुरातन समय में भागवत की कथा में जब कीर्तन हो रहा था लताओं के मध्य से उद्धव जी प्रकट हो गए थे। आज भी रात्रि के समय गोविंद कुंड और उद्धव कुंड में आचमन व स्न्नान वर्जित है। 

हम अब कुसुम सरोवर के सामने थे। यह सरोवर  450 फीट लंबा और 60 फीट गहरा है। यह चारों तरफ से सीढ़ियों से घिरा है। सरोवर के आस पास कई कदम्ब के पेड़ हैं।श्री राधारानी की सखी कुसमा के नाम पर इस सरोवर का ये नाम पड़ा। यहां भगवान श्री कृष्ण राधाजी के श्रृंगार के लिए फूल एकत्र कर मालायें गुंथा करते थे। इसमें कई छत्रियां भव्य कलात्मकता को लिए खड़ी हैं। जाट राजा सूरजमल ने इसका जीर्णोद्धार कराकर इसे ये कलात्मक रूप प्रदान किया था।

अभी हम कुछ ही आगे बढे थे तो देखा कि चाची जी अपने बेटे के साथ पैदल परिक्रमा कर रही थीं। हमने रिक्शा रुकवाई और चाची जी से थोड़ी सी शेष बच गई परिक्रमा रिक्शा से करने को कहा। पर उन्होंने शेष परिक्रमा भी पैदल ही करने की जिद की। हम कान वाले गिरिराज के सामने रुके। मंदिर खुला था । हमनें दर्शन का लाभ लिया, परिक्रमा की। इस गिरिराज शिला में एक कान जैसी आकृति होने से इसे "कान वाले गिरिराज" के नाम से जाना जाता है। भक्त गण इनके कान में अपनी मनोकामना कहते हैं और वह पूरी भी होती है। यँहा से मानसी गंगा कुछ ही दूरी पर है जँहा आ कर ये 21 किलोमीटर की परिक्रमा पूर्ण होती है। हमारी परिक्रमा समाप्त ही गई थी। हम अपने कमरों में वापस लौट आये। थके होने के कारण शीघ्र ही नींद आ गई।

 इस परिक्रमा मार्ग पर कई ऐसे स्थल हैं जिन्हें हम नहीं जानते। ये भूमि वास्तव में विलक्षण है। बृज की ये 84 कोस की भूमि जिसके अंतर्गत वृन्दावन, बरसाना, मथुरा, गोकुल व गोवेर्धन जैसे क्षेत्र आते हैं, राजस्थान व हरियाणा जिले के कई गांवों से होकर गुजरती है। करीब 268 किलोमीटर परिक्रमा में  कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी 1100 सरोवरें, 36 वन-उपवन, पहाड़-पर्वत पड़ते हैं। बृज  की ये भूमि श्री राधा रानी के लिए विशेष रूप से श्री कृष्ण गोलोक से लाये हैं।  इस भूमि का प्रलय काल में भी नाश नहीं होता क्योंकि ये पुनः गोलोक में चली जाने वाली है। इसकी अधिष्ठात्री स्वयं श्री राधा रानी हैं। ऐसी महिमा है इस भूमि की !

अगले दिन हम सुबह जल्दी नहा कर  तैयार हो गए। हमें गय्या के चारे के लिए गोशाला जाना था। श्री वल्लभ गोशाला बड़ी परिक्रमा के मार्ग के अंत से कुछ दूरी पर है। जब तक हम लौट कर आये, पुरोहित ने पूजा की व्यवथा कर ली थी। हमने मानसी गंगा के तट पर स्थित मंदिर में पूजा सम्पन्न की। मंदिर के बिल्कुल पास श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक जी हैं। हमनें वँहा दर्शन किये। झारी जल और प्रसाद लिया और लौट आये। होटल के सामने ही स्थित हमारे समाज की धर्मशाला है जिसमें अन्नकूट का आयोजन था। हमारे आने का एक उद्देश्य ये भी था कि इस भव्य आयेजन में सम्मिलित हो सकें। यँहा अन्नकूट के दर्शन किये। पंगत में बैठ प्रसाद ग्रहण किया। अब बस लौटने की तैयारी थी। संध्या चार बजे के आसपास हम गोवर्धन- मथुरा मार्ग पर दिल्ली के लिए बढ़ रहे थे। 21 किलोमीटर का मार्ग तय करके हम गोवर्धन चौक पँहुचे जँहा से हम नेशनल हाई वे 2 पर मुड़ गए। सूर्य अपना दिन भर का सफ़र समाप्त कर अस्ताचल की ओर चल दिये थे। और हमारा भी दो दिन की इस यात्रा का अंत हो रहा था। पीछे छूटती जा रही थी श्री कृष्ण की लीला स्थली जँहा आज से कोई 5000 वर्ष पूर्व श्री कृष्ण के चरण पड़े थे। 

Friday, 15 November 2019

गोवर्धन यात्रा वृत्तांत

कार्तिक पूर्णिमा आने वाली थी। इस पर्व पर बड़ा स्न्नान होता है। लाखों श्रद्धालु तीर्थों पर जमा होते हैं। इस पर्व पर गोवर्धन भी श्रद्धालुओं से भरा था। ऐसे में हम वँहा पँहुचे। बस अड्डे से ही भीड़ से सामना हुआ। कार का परिक्रमा मार्ग पर जाना निषेध था। हमने बाहर ही बस अड्डे के पास की पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर दी। अब समस्या थी कि सामान के साथ धर्मशाला तक कैसे जाएं। बैटरी से चलने वाली रिक्शाओं की लाइन लगी थी पर कोई भी अंदर जाने को तैयार नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से एक  रिक्शे वाला राजी हुआ। उसने एक मोटरसाइकिल पर एक छकड़े जैसी कार्ट बांध रखी थी जिसमें आमने सामने 6 लोग बैठ सकते थे। जैसे तैसे हम सामान के साथ उसमें ठुसें। छोटी संकरी गलियों से आड़े तिरछे होते हुए वो जुगाड़ चला। हमें ऐसा लग रहा था कि अब मोटर साईकिल निकली तब निकली। जैसे तैसे हम धर्मशाला पँहुचे। भीड़ अपने चरम पर थी। लोग नीचे लेट कर दंडोति परिक्रमा कर रहे थे। बिना ये परवाह किये कि जुगाड़ की रिक्शा से वो कुचले जा सकते हैं। मुकुट के सामने भारी भीड़ जमा थी। लाउडस्पीकर पर लगातार भक्तों से कहा जा रहा था कि अंदर आएं और दर्शन का लाभ लें। बाहर दूध के नाम पर पतला दूध मिला पानी बेचने वालों की दुकानें सजी थी। आते जाते लोगों के सामने जल से भरी झारी बढ़ा कर हाथ "ख़ासा" करने को कह रहे थे। हमारा जुगाड़ आगे बढ़ चुका था। चकलेश्वर से कुछ पहले धर्मशाला के आगे हम उतरे। सामने के होटल में दो बड़े कमरे लिए और सामान रखा। अंधेरा घिर आया था। सुबह का हल्का नाश्ता ही किया था। भूख लग आयी थी। अख़बार बिछा के घर से लाई पूरियां और पराँठे, सब्ज़ी आचार के साथ खोल लिए। सभी ने खाना खाया ।यही रात का भोजन था। भोजनोपरांत मैं पास ही बने अपने पुरोहित के घर गया और अगले दिन की पूजा की व्यवस्था की। कोई पचास वर्ष पहले जब मैं नाना जी के साथ यँहा आता था तो वह इसी घर में ठहरते थे। आँगन में जो कुंआ था वो आज भी है। आँगन भी क़रीब क़रीब वैसा ही है। सामने बरामदे में बना गिरिराज गोवर्धन का मंदिर भी अपनी जगह ही है। अलबत्ता नीचे और छत पर बने कमरे जीर्ण शीर्ण हो गए हैं। समय की दीमक इसकी दीवारों को खा गई है। पुरोहित के पिता को गुज़रे भी जमाना बीत गया। अब तो उनका पुत्र ही हमारी पुरोताही करता है। इसने विवाह नहीं किया। छोटे भाई के परिवार है। सब इसी मकान में रहते हैं। मुझे अच्छे से याद है जब हम यँहा ठहरते थे तो हमारे कमरे की खिड़की से मानसी गंगा दिखती थी। ये मकान बिल्कुल मानसी गंगा के तट पर बना है। इसकी लहरे इस मकान की दीवारों से टकराती थी। आँगन में पड़ी खाट पर मैं बैठ गया और पुरोहित से अगले दिन की पूजा के बारे में चर्चा की। हमें परिक्रमा पर निकलना था। मैंने पुरोहित से विदा ली और वापस अपने कमरे में आ गया। मैं, मेरी पत्नी, छोटा भाई और उसकी पत्नी और बेटा - हम पांच जने परिक्रमा के लिए निकल पड़े। बीच वाले भाई और उसकी पत्नी दोपहर में ही परिक्रमा कर चुके थे। हम पैदल चलते हुए मुकुट के मंदिर तक आये। दर्शन किये और मानसी गंगा से आचमन लिया फिर पैदल ही चलते हुए बाहर थाने तक आए। वँहा गिरिराज मिष्ठान भंडार पर गर्मा गर्म कढ़ाई का दूध पिया और एक बैटरी रिक्शा तय करी। हम सभी इसमें बैठे और परिक्रमा को चल पड़े। पैदल परिक्रमा अब होती नहीं है। घुटने, कमर और पैर सब उम्र के चलते साथ छोड़ने लगे हैं। रिक्शा शीघ्र ही परिक्रमा मार्ग पर आ चुका था। आसमान पर चाँद चमक रहा था। हवा के साथ ठंड बढ़ गई थी। मेरी पत्नी ने शॉल लिया हुआ था और मैंने पूरी बाजू की जैकेट पहन रखी थी। छोटा भाई और उसका बेटा मात्र टी शर्ट ही पहने था। उन्हें ठंड लग रही थी। गिरिराज पर्वत की ओर दीपों की कतार जग मगा रही थी। लोग उच्च स्वर में भजन गाते हुए पैदल परिक्रमा कर रहे थे। दोंनो ओर जंगल और रात का समय। ठंडी हवा तेज़ी से बहने लगी थी। दिन भर के थके होने से मुझे नींद आ रही थी। मन करता था कि ये रिक्शा सब तरफ़ से ढक जाए और अंदर के गर्म वातावरण में मैं सो जाऊं। आन्यौर कब आ गया पता नही पड़ा। दिन का समय होता तो अंदर जा कर सद्दू पांडे की बैठक के दर्शन करते। उनके वंशज आज भी यँहा निवास करते हैं। पर रात में ये संभव नहीं था। जल्द ही हम संकर्षण कुंड के सामने थे। कुछ समय पहले ये कुंड जर्जर अवस्था में था। अभी एक आध वर्ष पूर्व ही इसका जीर्णोद्धार हुआ है। अब ये एक दर्शनीय स्थल है। इसके पास ही कुम्भनदास जी की समाधि है जो खस्ता हाल है। टूटे कुल्हड़ और जीर्ण शीर्ण अवस्था। पता नहीं इसकी सुध क्यों नहीं ली ? फिर भी यँहा आकर शीश झुकाने से परम् शांति का अनुभव होता है। रात होने के कारण हम यँहा रुके नहीं और आगे बढ़ गए। हमनें पूँछरी के लौठा में रिक्शा रुकवाई। हम सभी वँहा उतरे, मंदिर की परिक्रमा कर दण्डवत की।एक हट्टा कट्टे साधु महाराज ललाट पर भभूत लगाए वँहा तख्त पर विराजमान थे। ऐसे साधु अधिकतर कुम्भ के मेले में देखे जाते हैं। लोग उनके चरणस्पर्श कर आशिर्वाद ले रहे थे। हम मंदिर के चबूतरे से नीचे उतर आए और रिक्शा में जा बैठे। एक अदद कम्बल की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी के पास अंदर एक भव्य मंदिर बना हुआ है। यँहा नयनाभिराम छवियां है और यात्रियों के ठहरने की उचित व्यवस्था भी है। ये बिल्कुल गोवर्धन की तलहटी से लगा है। दिन का समय ही तो इसके बाहर से गिरिराज पर्वत के सुंदर दर्शन होते हैं। गिरिराज को अपने दायें रखते हुए हम आगे बढ़ते हैं। जगह जगह दीप दान किया हुआ है। दीपों की लंबी कतार बहुत सुंदर लग रही थी। जतीपुरा से पहले, यदि दिन में आप गोवर्धन की तलहटी से परिक्रमा कर रहे हैं तो एक और स्थान पड़ता है जँहा इंद्र का मान प्रभु ने तोड़ा था और इंद्र ने फिर प्रभु के चरणों में पूजा सामग्री भेंट कर अपना अपराध क्षमा करवाया था। यँहा जतीपुरा जैसी न तो गहमागहमी ही है और न ही दुकानें। एक असीम शांति है यँहा , जो बीच बीच में पेड़ो की डालों पर उछल कूद करते बंदरों की आवाज़ से भंग होती है। या फिर कँही दूर, मोर की कूक सुनाई पड़ जाती है। दोपहर के समय तो पर्वत पर चढ़ी गय्या औऱ बकरियां भी पेड़ो के बीच नज़र आ जाती हैं। पर अभी तो रात है और हम तलहटी से बाहर सड़क पर हैं तो दूर से ही सिर झुका कर प्रणाम कर लेते हैं। जल्दी ही हम जतीपुरा आ पँहुचे। जतीपुरा इस 21 किलोमीटर की यात्रा में एक बड़े स्टेशन जैसा है। यँहा हमेशा - दिन हो या रात, आपको श्रद्धालुओं की भीड़ मिल जाएगी। मुख्य परिक्रमा मार्ग से अंदर आते हुए मिष्ठानों की महक से आप सरोबार हो जाते हैं। आलू की जलेबियां जो चाशनी में लिपटी हैं, कलाकन्द, केसर पेड़ा, बूरा से लिपटा पेड़ा, और न जाने क्या क्या है भोग लगाने को। कड़ाहे का गर्म दूध, दही की लस्सी , समोसे, कचौरी, ब्रेड पकौड़ा और भी बहुत कुछ है यँहा अपनी क्षुधा मिटाने को। यात्री यँहा खाते पीते हैं, मुखार बिंद पर दूध चढ़ाते हैं, भोग लगाते हैं और कुछ विश्राम कर परिक्रमा की थकान मिटाते हैं और आगे की परिक्रमा के लिए तरोताज़ा हो लेते हैं। इसके सामने ही महाप्रभु श्री  वल्लभाचार्य जी की बैठक जी हैं। अभी तो उसमें ताला लगा था। हमनें मुखारविंद पर ढोक लगाया, बैठक जी की परिक्रमा की और बाहर जाने के लिए चल पड़े। तभी छोटे भाई की पत्नी की जलेबी की इच्छा हुई। भतीजे को भेज कर जलेबी मंगवाईं, उसका आस्वादन किया और बढ़ गए। कुछ आगे जा कर ही दंडोति शिला है। उसीके पास से पर्वत के ऊपर बने मंदिर को रास्ता जाता है। इसी शिला में महाप्रभु श्री  वल्लभाचार्य जी का  तेज़  समा गया था। इस शिला की सात परिक्रमा करने से गिरिराज की सात कोस की एक परिक्रमा का फल मिलता है। हमनें इसकी परिक्रमा की, दण्डवत किया और बाहर की और चल पड़े। दिन के समय आज्ञा लेकर ऊपर बने मंदिर में जाना एक अलग सा अनुभव है। मैंने कई बार इसके दर्शनों का लाभ लिया है। चढ़ने में फिसलने का भय तो रहता है क्योंकि शिलाएँ काफी चिकनी हैं, पर पकड़ पकड़ कर चढ़ना हो ही जाता है। यूँ तो गिरिराज पर चरण रखना अपराध की श्रेणी में आता है, परन्तु आज्ञा मांग कर यँहा चढ़ा जा सकता है। ऊपर मंदिर में एक शय्या सुसज़्ज़ित है जिस पर प्रभु विश्राम करते हैं। और भी बहुत कुछ दर्शन के योग्य है। अंदर से एक गुप्त मार्ग है जिसमें से प्रभु आज भी रथ पर अस्वार ही रोज़ रात्रि में नाथद्वारा जाते है। हम अब तक बाहर आ गए थे जँहा रिक्शा हमारी प्रतीक्षा में था। हम पुनः चल पड़े।  शीघ्र ही हमनें बड़ी परिक्रमा समाप्त कर ली थी। अब हम बीच बाज़ार से होते हुए राधा कुंड की परिक्रमा की और अग्रसर थे।

Saturday, 2 November 2019

दिल्ली का पॉल्युशन

अजीब सा मौसम हो गया है दिल्ली का। कई दिनों से सूर्य के दर्शन दुर्लभ हैं। आप कहेंगें , इसमें क्या बात है! सर्दियों में तो ऐसा ही रहता है। पर साहब, सर्दी कहाँ हैं! सर्दियों की भी खूब कही। दिल्ली की सर्दी तो वो ही जान सकता है जो हमारी उम्र का हो। आज की पौध क्या जाने कि कैसी कड़ाकेदार ठंड पड़ती थी यहाँ। अब तो कहाँ सर्दी और कहाँ वो मौसम! अब तो यहाँ घुटन ही घुटन है। भीतर घुटन, बाहर घुटन। जहाँ देखो दम घोंटू वातावरण हैं। कहते हैं, पराली जलने से ऐसा हुआ है। अरे! क्या पहले पराली नहीं जलती थी? पर ऐसी घुटन जो पिछले 8- 10 वर्षों से दिल्ली और आसपास के लोगों का दम घोट रही है, नहीं हुआ करती थी। उन दिनों तो घर घर में अंगीठी सुलगाई जाती थी, जिसका गाढ़ा सफेद काला धुंआ सुबह शाम खूब उठता था। चूल्हे में लकड़ियां सुलगे बिना खाना कहाँ बनता था? फूंक मार मार के या गत्ते से हवा कर बड़ी मुश्किल से लौं पकड़ती थीं। स्टीम इंजन से खूब धुंआ उड़ता था। ये इन्द्रप्रस्थ के पावर प्लांट की चिमनियां रात दिन धुंआ उगलती थीं। पर इन सबके बावजूद भी ऐसा दम घोटने वाला वातावरण नहीं था। आप कह सकते हैं कि वाहन बहुत कम थे। लोग अधिकतर साईकल पर चलते थे। अब तर्क तो पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ से दिया जा सकता है। पर एक बात तो आप मानेंगे कि दिल्ली को किसी की नज़र लग गई है। देखते देखते बहुत बदल गई है हमारी दिल्ली।  कुछ तो हवा में ज़हर घुला है और रही सही कसर इन मीडिया वालों ने पूरी कर दी है। रोज़ एयर क्वालिटी इंडेक्स बताया जा रहा है। जो कि खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। जिस इंडेक्स को 50 से नीचे होना चाहिए वो 478 का स्तर छू रहा है। कहा जा रहा है कि आप रोज 20 सिगरेट पीने के बराबर धुंआ अपने फेफड़ो में ले रहे हैं। मुझे तो ये पता होता तो शायद मैं कब से सिगरेट पीना शुरू कर देता। अरे जब बिना पिये भी पीने का नुकसान झेलना पड़ रहा है तो पी के ही क्यों न मज़ा लिया जाय। कल बता रहे थे कि इस पॉल्युशन की वजह से दिल्ली के लोगों का जीवन 10 वर्ष कम हो चुका है। अब मेरा तो ये मानना है कि व्यक्ति की मृत्यु का समय, स्थान और तिथि जन्म के साथ ही निश्चित होती है। इसमें कैसी फ़ेर बदल! खैर तर्क कुतर्क यँहा भी किया जा सकता है। और मेरे निजी विचार आप जरूर मानें ही, ऐसा भी मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। मैं तो बस इस धुँए से भरे, घुटे घुटे से निराश मौसम की बात कर रहा था, जिसमें न घर में चैन न बाहर चैन। इस पर सुबह सुबह फेस बुक पर किसी सम्बन्धी के दुनियां से चले जाने की खबर मिल जाये तो मन और बोझिल हो जाता है। "जौक' ने कहा था - "इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी कदर-ए-सुखन। कौन जाए "जौक" पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर" । आज होते तो यक़ीनन कहते, - " क्यूँ रहें "जौक" दिल्ली की गलियों में यहाँ। चल चलें हम तो दकन में साफ़ है आबो हवा।" दिल्ली वास्तव में रहने योग्य नहीं रह गई है। कल मेरी बेटी से बात हो रही थी। उसने कहा कि आप लोग कनाडा आ जाओ, यहाँ कोई पॉल्युशन नहीं है। मुझे उत्सुकता हुई कि देखें वहाँ का एयर क्वालिटी इंडेक्स  क्या  है। जब चैक किया तो मात्र 17 था। पर वहाँ की सर्दी भी हमारी तो बर्दाश्त की सीमा से बाहर है। कोई दो वर्ष पहले हम दिसंबर में वँहा थे। तापमान था -35 डिग्री सेल्सियस। पर यहाँ भी तो अति हो चुकी है। कब तक झेलेंगे। दिल्ली छोड़ने के अलावा कोइ और विकल्प नज़र नहीं आता। मौसम कुछ साफ़ हो तो बाहर निकलें। घर में भी कब तक बंद रहा जा सकता है!

Thursday, 24 October 2019

ये दिल मांगे मोर!

सुपर कंप्यूटर का नाम सुनते ही एक ऐसी मशीन जहन में आती है जिससे कोई भी गणना पलक झपकते ही हो जाए। आज के बहुत से अविष्कार सुपर कंप्यूटर के बिना संभव नहीं थे। पर यदि कोई ये कहे कि सुपर कंप्यूटर से भी तेज गणना की जा सकती है तो ये अविश्वसनीय लग सकता है। पर सच्चाई तो ये है कि वैज्ञानिकों ने ऐसी मशीन बना ली है। इसका नाम दिया गया है "साइकामोर"। ये क्वांटम कप्यूटिंग के सिद्धांत पर आधारित है। और इसकी गति का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इस मशीन ने वह जटिल गणना मात्र 200 सेकेंड में कर दी जिसे करने में सुपर कंप्यूटर को 10,000 वर्ष का समय लगता। तो अब क्या? अब ये कि कप्यूटिंग में एक नए युग का आरम्भ हो चुका है जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को अकल्पनीय ऊँचाई देगा। मेडिसन की खोज में एक नया आयाम जोड़ेगा। अंतरिक्ष कार्यक्रम को बहुत आगे ले जाएगा। स्पेस तकनीक के क्षेत्र में अनजाने ग्रहों की खोज में सहायक होगा। संभावनाए असीमित है। बैल्ट बांध लीजिये और तैयार हो जाइए एक नई क्रांति को जन्म लेते देखने के लिए। 

Monday, 14 October 2019

मन वृन्दावन

मौसम एक बार फिर से करवट ले  रहा है। वातावरण में ग़ुलाबी ठंडक है। फ़िज़ा में एक खुशबू सी है जो अल्ल सुबह या फिर देर रात को बाहर निकलो तो रन्ध्रों को छूते हुए हवा में तैरती हुई आगे बढ़ जाती है।

कल शरद पूर्णिमा थी। चाँद अपने पूरे यौवन पर कीकर के पेड़ के पीछे जल्दी ही आ गया था। कुछ कुछ पत्तियों के पीछे छिपा था ,पर उसकी सिंदूर मिश्रित लालिमा हल्का सा पीताभ रंग लिए उसे आज एक अलग ही रूप दे रही थी। उसकी चमक के आगे तारागण अपनी चमक खो कर बहुत ही मद्धम से दीख रहे थे। अपने पूर्ण गोलाकार मंडल के चंहु ओर आभा की छटा बिखेरता वो कब कीकर के पेड़ के पीछे से सरक कर ऊंचा उठ आया, पता ही नहीं चला। अब वो काले आकाश में आ टँगा था। सिंदूरी रंग लाली त्याग कर पूर्णतया पीताभ हो आया था। कितनी शांति है इस चन्द्र मंडल में! कितनी शीतलता है इसमें! ठीक सूर्य के विपरीत ! मन वृन्दावन बढ़ चला है। जँहा महारास की तैयारी है।

बृज की गोपियों का विरह बढ़ाता शरद पूर्णिमा का ये पूर्ण चन्द्र वृन्दावन के आकाश पर उदित हो रहा है। पास ही बहती यमुना में दृष्टिगोचर होता उसकी लहरों में प्रतिबिम्बित हो उस अगाध जल राशि के साथ क्रीड़ा करने लगा है। ऐसा लगता है मानो ढेर सा सिंदूर यमुना जल में घुल गया है। यमुना तट पर बिछी शीतल बालू पर बिखरे कण इसके प्रकाश में चांदी से चमकने लगे हैं।

अभी थोड़ी देर में श्री कृष्ण पधारेंगे। गोपियों के कई जन्मों की तपस्या का फल आज फलीभूत होने वाला है। यमुना तट पर मन्द मन्द समीर बह चली है। रात-की-रानी, चम्पा और बेला के पुष्पों की महक से सारा प्रदेश सुवासित हो उठा है। पूर्णिमा का चन्द्र आकाश में पूरी तरह से उदित हो चुका है। प्रकृति ने मानो महारास के लिए सारी तैयारी कर दी है। ये वातावरण में वंशी की तान किसने छेड़ दी? स्वर लहरी दूर से पास आती जा रही है। गोपियां विस्मित हो स्वर लहरी की दिशा में देखने लगी हैं। कँहा है वो जो ये जादुई तान छेड़ रहा है?

मृग और मृगी अपने अपने छोनो के संग खिंचे चले आये हैं। अपने बड़े बड़े नयनों से निर्मिमेष देखते हुए अपने कानों के दोनो को स्वर की दिशा में खड़े कर उस स्वर माधुरी को पी रहे हैं। यमुना जल की गति मंथर पड़ गई है। जल राशि आगे बहना नहीं चाहती।

तभी अचानक से गहन वन से श्री कृष्ण प्रकट हुए। घुँघराली नीली अलकें, कानों में मकराकृत कुण्डल, बिम्बा फल के सदृश होंठ, सुन्दर विशाल नयन, सिर पर मयूर पिच्छ, मोतियों सी दन्तावली, गले में वैजयन्ती माल, पुष्पों का क्षृँगार ओर पीताम्बर धारण किये, करोड़ो कामदेवों के मद को चूर करते हुए, धीमी सी मधुर तान वंशी के रन्ध्रों से छेड़ते सबके बीच श्री कृष्ण के प्रकट होते ही सब ठगे से रह गए। पूर्ण चन्द्र ने भी अपनी गति मानो रोक दी हो। पूरी प्रकृति विस्मित सी हो रुक गई है। सभी पाषाण मूर्ति हो गए। चन्द्र की चमक भी फीकी पड़ गई।

तभी मेख सी गम्भीर वाणी में श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा, "अरी गोपियों! मध्य रात्रि का समय है। इस समय तुम सब को घर से बाहर नहीं रहना चाहिए। अतः अपने अपने घर लौट जाओ। तुम्हारे पति, सास, श्वसुर, और बालक चिंतित होंगे। तुम्हारी बाट देखते होंगे। तुम सब घर लौट जाओ।

अपने आराध्य, अपने प्रियतम के मुख से ऐसी निष्ठुर वाणी सुन गोपियों के दुःख की सीमा न रही। उनकी आंखों से अश्रु बह चले। उनके होंठ शुष्क पड़ गए। उन्होंने भांति भांति से श्री कृष्ण को समझाया। अपने लौकिक पति और सगे संबंधियों  के संबंधों की असारता बताई। और फिर जब श्री कृष्ण ने देखा कि गोपियों का अनुराग सच्चा है, लौकिक वासना से परे है, तब वँहा प्रारम्भ हुआ दिव्य महारास।

जो आज भी होता है। कल की शरद पूर्णिमा पर भी हुआ था। बस अंतर इतना है कि हम अपने सीमित नेत्रों से उसे देख नहीं पाते। क्योंकि हम उस दिव्य लीला में प्रवेश के अधिकारी नहीं है। आज भी उच्च आत्माओं को, सन्तों को सुबह कुछ आभूषण मिलते हैं जो रात्रि की रास लीला के नृत्य करते समय यमुना की बालू में गिर पड़े थे। धन्य हैं वे संत जिन्हें ऐसा कुछ अनुभव हुआ है।

और जँहा तक महारास के वर्णन का प्रश्न है, मैं तो क्या, स्वयं शेष भी अपने मुख से इसका पूर्ण वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाते है। फिर भी श्री भागवत के पाँच अध्यायों में इसका वर्णन शुकदेव जी ने किया है। रास में दोष बुद्धि रखने वालों से मेरा आग्रह है कि इसे न पढ़े।

Sunday, 22 September 2019

जन्म स्थान

एक दिन उत्कट इच्छा हुई कि जँहा मेरा जन्म हुआ वो घर देखकर आऊँ।  आज साठ वर्ष बीतने पर कैसा होगा वह मकान। शायद जीर्ण शीर्ण हो गया हो। खोजते खोजते मैं उस स्थान पर जा पँहुचा। बहुत कुछ बदल गया था। यमुना का लोहे वाला पुल पार करके जो पोखर था, जिसमें भैंसे अक्सर पड़ी रहती थीं वो अब वँहा नहीं था। वो चौड़ी सी पोल् अलबत्ता मुझे मिल गई जँहा से मुख्य सड़क से अन्दर जाते थे। कुछ भी जाना पहचाना नहीं था।  जँहा वो मकान था उसकी जगह कोई और ही भवन खड़ा था। मैं ठगा सा खड़ा उसे देखता रहा। मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने आ गया। स्मृतियां जी उठीं। चल चित्र चलने लगा। पुराना समय जीवंत हो उठा।

मैं तब बहुत छोटा था। पांच- छह वर्ष का रहा होऊँगा। वो घर जिसमें मेरा जन्म हुआ , उसी में मैं  पला बड़ा  था। एक कमरे  और रसोई का ये किराए का घर मुझे बहुत प्रिय था। शायद इसलिए भी की मेरी गर्भ नाल इसी आँगन में गड़ी थी या शायद इसलिए कि मैंने इसमें ही होश संभाला था।

दूसरे कमरे के नाम पर इसमें एक छोटा आयताकार स्टोर था, जिसके ऊपर लकड़ी के पट्टो से बनी एक दुछत्ती थी जिस पर कबाड़ भरा था। उसी स्टोर की एक दीवार तोड़ कर रसोई घर में जाने का रास्ता बनाया गया था। वैसे इस छोटी सी रसोई का एक दरवाज़ा बाहर आंगन की तरफ़ भी खुलता था।

माँ बताती थी जब मेरा जन्म हुआ तो इस घर में बिजली नहीं थी। लालटेन से ही काम चलता था। पर जब से मैंने होश संभाला, यँहा बिजली आ चुकी थी। हमारे कमरे से एक बड़ी सी खिड़की पीछे सड़क की और खुलती थी, जिस पर हल्का पर्दा टँगा था। गर्मियों की दोपहरी में पीछे वाले खाली प्लाट पर बना हैंड पंप जब कोई चलाता था, तो उसकी चुरम्म चूँ की लय बद्ध आवाज़ मुझे लोरी जैसी लगती। ठंडी हवा से वो झीना पर्दा उड़ता रहता और मुझे नींद आने लगती।

आंगन में कबूतरों का जमावड़ा रहता। गुटूर गूँ करते जब वो अपनी गर्दन फुलाते तो मैं ध्यान से उन्हें देखता। वो भी अपनी गोल गोल लाल आँखों से मुझे ताकते रहते। अचानक मैं भाग कर उनके बीच पँहुचता और वो पंख फड़फड़ाते झुंड में उड़ कर छत की मुंडेर पर जा बैठते।

मेरे पास एक तिपहिया साईकल थी जो नाना जी ने दी थी। पूरे आँगन में मैं उसे गोल गोल भगाता। पीछे की सीट पर छोटे भाई को बिठा लेता। या फिर कभी वो धक्का लगाता और मुझे पैडल नहीं मारने पड़ते। घर से हथौड़ी,प्लास और तेल की कुप्पी ले मैं आँगन के  एक कोने में अपनी दुकान जमा लेता। छोटा भाई तिपहिया साईकल मरम्त के लिए मेरी दुकान पर लाता, और मैं उसे उल्टी खड़ी कर एक दो जगह हथोड़े से ठोकता, प्लास से इधर उधर कसता, कुप्पी से पहियों में तेल देता और कागज़ के बने नकली नोट ले कर साईकिल उसे दे देता। बचपन हमारा इतना ही सरल था।

कुछ समय बाद जब पीछे के प्लाट पर मकान बना तो पीछे वाली खड़की बन्द हो गई। उसकी जगह तीन खाने वाला एक आला निकाल दिया गया। पीछे से आती हवा और हैंड पम्प का संगीत दोनों ही बन्द हो गए।

साथ वाले कमरे में जाजी अपने परिवार के साथ रहते थे। उनकी पत्नी मेरी माँ की अच्छी सहेली थीं। उनके बच्चे उम्र में मुझसे खासे बड़े थे। गर्मियों की शाम जाजी छत पर बैठ अपने परिवार के साथ झाँझ मंजीरों संग भजन गाया करते थे। 

सामने वाले कमरे में एक पंजाबी परिवार रहता था। उन में जो घर की बुजुर्ग महिला थीं, वो आँगन में बैठ अक्सर चरखा कातती थीं। रुई की पूनियों से कैसे सूत बनता जाता था, मैं कुतूहल वश देखता रहता। उम्र ने उनके शरीर पर असंख्य झुर्रियां डाल दी थीं। कानों में वह बड़ी बड़ी सी बालियां पहने रहती थीं, जिससे उनके कान के छेद लंबे हो गए थे। सूत कातने से अवकाश मिलता तो वह खाट पर बैठ सेवईयां बनातीं या फिर अपने पोते की मालिश करतीं।

उससे सटे हुए कमरे में एक महिला अकेली रहती थी जिसका एक मात्र बेटा भूटान में कार्यरत था। वो कभी कभी माँ के पास आता था। बस ये चार परिवार रहते थे उस मकान में।

हमारे घर में हमारे अलावा भी कई और बिन बुलाए मेहमान थे। कबूतरों का जिक्र तो मैं कर ही चुका हूँ। उनके अतिरिक्त, गौरेया, चूहे,छिपकलियां, ततैये और मधु मक्खियां भी थीं। कभी कभार भूले भटके तोते भी आ जाते थे। हाँ, बाहर बनी कोयले की कोठरी में सांप और बिच्छु भी रहते थे। ये सब पूरे अधिकार से इस घर में रहते थे। स्टोर की ऊपर की दुछत्ती तो चूहों के लिए सबसे निरापद स्थान था। दिन में वंही जा छिपते और रात में पूरे घर मे धमा चौकड़ी मचाते।

प्रत्येक चैत्र के आगमन से गौरेया भी आ धमकती। रौशनदान, ऊपर टँगे पंखे का कप या फिर छत और लकड़ी की सोट के बीच का स्थान इन्हें सबसे ज़्यादा पसन्द था। शायद इसलिए भी क्योंकि वँहा तक बिल्ली की पँहुच नहीं थी। इन्हीं जगहों में से कोई एक जगह चुन कर ये अपना घोंसला बना ही लेती थी। इस बात से बिल्कुल अंजान की छत पर लगा पँखा इनके लिए साक्षात  काल ही था। जब भी ये आतीं, मेरा बाल ह्रदय कांप उठता कि कँही पँखे की चपेट में आ कर कट न जाएं! कई बार ये अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी। एक बार ये घोंसला बना लें फिर माँ उसे हटाने नहीं देती थी। कहती थीं पाप लगेगा। किसी का घर तोड़ना अच्छी बात नहीं है।

शाम को छत पर माँ पानी डाल आती थी। जिससे दिन भर की तपत शांत हो जाय। रात तक छत ठंडी हो जाती थी। खुली छत पर बिस्तर लगा हम खूब धमा चौकड़ी करते। आसमान पर चाँद धीरे धीरे सरकता जाता और हम कहानी सुनते सुनते गहरी नींद में सो जाते। रात में प्यास लगने पर माँ सिरहाने रखी सुराही से पानी देती। मिट्टी की महक लिए वो ठंडा मीठा जल अमृत तुल्य लगता।

सोचते सोचते मैं मुख्य सड़क पर आ चुका था। ड्राइवर कार लिए मेरी प्रतीक्षा में था। बैठते ही मैंने कहा- चलो। अब मैं घर लौट रहा था। भूत से वर्तमान में। ऐसी असंख्य यादों को समेटता हुआ जो गांधी नगर के उस मकान से जुड़ी थीं जो आज समय की भेंट चढ़ गया था।

Sunday, 18 August 2019

चातुर्मास और वैराग्य

चातुर्मास चल रहा है। 12 जुलाई, 2019 से प्रारंभ हो कर, कार्तिक मास में 9 नवम्बर, 2019 को समाप्त होगा। इन दिनों संत, मुनि, साधु, भिक्षु आदि जो शेष 8 माह भृमण करते हैं, एक स्थान पर ठहर जाते हैं। नदियां उफनती हैं, मेघ बरसते हैं। स्थान स्थान पर जल प्रलय सी होने लगती है। ऐसे में जल प्लावित स्थानों का भृमण न करके किसी एक सुभीते की जगह पर रुक जाना हर दृष्टि से ठीक लगता है। पर संतो का ये ठहराव मात्र इसलिए नहीं है कि इन दिनों यात्रा सुगम नहीं। ये तो हमें बस दिखता है। इस ठहराव का एक आध्यात्मिक कारण भी है । ये समय है अंतर्मुखी होने का। स्वयं से संवाद का। स्वयं को जानने की एक प्रक्रिया है ये ठहराव।

मेरी समझ में ये रुकना, ये ठहराव हम सभी की जिंदगी में आवश्यक है। पर हम कँहा रुकते हैं। हमारा तो मानना है कि रुकेंगे तो पीछे रह  जाएंगे। बिना ये जाने कि जीवन में रुक कर स्वयं से संवाद उतना ही आवश्यक है जितना श्वास लेना। पर हमें कँहा किसी ने ये समझाया। कब किसने ये बताया कि स्वयं से संवाद कैसे होता है और कितना आवश्यक है! बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ लीं। तथा कथित उच्च संस्थानों से डिग्रियां हांसिल कर लीं। पर इन सबसे क्या लाभ हुआ। हम पैसे कमाने की मशीन मात्र बन कर रह गए। जीवन का एक मात्र उद्देश्य पैसा ही बन कर रह गया। हम भागते रहे पैसा, और अधिक पैसा बनाने को। क्योंकि हमें सिखाया ही ये गया। और हमने पैसे की ताक़त को परखा और पाया कि हमारी शिक्षा ठीक ही तो थी। पैसा है तो सब कुछ है। भौतिकता के सभी साधन आपको उपलब्ध हैं। वरन आप हैं क्या - धरती पर रेंगते कीड़े मकोड़े!

त्याग, वैराग्य , दान इन सब को और इनसे मिलने वाले सुख को हमने जाना ही कँहा। इन्हें तो वो ही जान सकता है जो इन के लिए ही जीता हो। जिसे इनका चस्का हो। वरना क्या कारण है कि श्री राम ने राज पाट त्याग दिया। भरत जी ने अयोध्या के बाहर कुटी डाल 14 वर्ष का संन्यास स्वीकार किया। राजकुमार सिद्धार्थ भरा पूरा राजपाट और सुन्दर पत्नी को त्याग सत्य की खोज में चले गए। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं।

चातुर्मास के नियम इसी को बल देते हैं। स्वयं का स्वयं से संवाद। जीव का आत्मा से संवाद। मैं कौन हूँ? संसार में क्यों आया हूँ? इससे पूर्व मैं कँहा था? और इसके बाद मैं कँहा जाऊंगा? ये चार प्रश्न यक्ष प्रश्न हैं। हम में से कितने ये प्रश्न स्वयं से करते हैं? कितने इनका उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं? जब से संसार में आयें हैं, भाग रहे हैं श्वासों की सड़क पर। भागते भागते एक समय आता है जब ये  सड़क समाप्त हो जाती है। आगे रास्ता बंद हो जाता है। सामने गहरी खाई दिखती है और चाहे अनचाहे उस में हम धकेल दिए जाते हैं। 

इस भाग दौड़ में जो एकत्र किया सब यंही छूट जाता है। इसीलिए थोड़ा रुक के स्वयं से संवाद आवश्यक है। अभी तक नहीं रुके तो अब ठहर जाओ। चातुर्मास चल रहा है। रुको, स्वयं से संवाद करो। फिर जब दुबारा से भागना शुरू करोगे, तो भाग नहीं पाओगे। सधे कदमों से चलोगे अपने गंतव्य की और। जँहा वैराग्य का महत्व है, त्याग का सुख है, दानशीलता है । तभी अपने को सार्थक मानोगे।जीवन को मायने दे पाओगे।

Thursday, 15 August 2019

हैदराबाद डायरी - 1

गत शनिवार रात को हैदराबाद पहुंचा हूँ। बहुत बढ़िया मौसम है। दिल्ली जैसी उमस का नामो निशान तक नहीं है। मदमस्त हवा चलती है पूरे दिन। आकाश आच्छादित है बादलों से। अभी अभी वर्षा हुई है। यँहा लगातार बारिश नहीं होती। टुकड़ो में होती है। अभी फिर हल्की धूप निकल आई है। बाहर के बग़ीचे की घास धुल गई है। अभी भी पेड़ो पर ठहरी पानी की बूंदे झर रही हैं। किसी पहाड़ी स्थान सा लग रहा है। सुबह थोड़ी दूर टहलने निकला था, भांति भांति के रंग बिरंगे पक्षी दिखाई दिये थे। हरे तोतों का जोड़ा भी किल्लोल कर रहा था। पीछे की और किचन गार्डन है। कुछ समय पहले यँहा एक बड़ा सा जहरीला सांप  निकल आया था। रात को इधर आते में भय लगता है। हरी मैथी एक क्यारी में तैयार है। घीया की पौध निकल आई है, अभी समय लेगी। अभी दो चार दिन यँहा रुकूँगा। उम्मीद है मौसम ऐसा ही रहेगा।