Sunday, 29 December 2019
रिकार्ड तोड़ सर्दी
Wednesday, 25 December 2019
अनत कँहा सुख पावे।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।"
अर्थात , योगभ्रष्ट मनुष्य, पुण्य कर्म करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं उन्हें प्राप्त करके और उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके पवित्र और धन सम्पन्न व्यक्तियों के घर में जन्म ग्रहण करता है।
Thursday, 19 December 2019
कारों की गुफ्तगू
Tuesday, 17 December 2019
अपने ही देश में शरणार्थी
Thursday, 5 December 2019
पत्नी की छुट्टी
Sunday, 17 November 2019
गोवर्धन यात्रा - गतांक से आगे
हम अब कुसुम सरोवर के सामने थे। यह सरोवर 450 फीट लंबा और 60 फीट गहरा है। यह चारों तरफ से सीढ़ियों से घिरा है। सरोवर के आस पास कई कदम्ब के पेड़ हैं।श्री राधारानी की सखी कुसमा के नाम पर इस सरोवर का ये नाम पड़ा। यहां भगवान श्री कृष्ण राधाजी के श्रृंगार के लिए फूल एकत्र कर मालायें गुंथा करते थे। इसमें कई छत्रियां भव्य कलात्मकता को लिए खड़ी हैं। जाट राजा सूरजमल ने इसका जीर्णोद्धार कराकर इसे ये कलात्मक रूप प्रदान किया था।
Friday, 15 November 2019
गोवर्धन यात्रा वृत्तांत
Saturday, 2 November 2019
दिल्ली का पॉल्युशन
Thursday, 24 October 2019
ये दिल मांगे मोर!
Monday, 14 October 2019
मन वृन्दावन
मौसम एक बार फिर से करवट ले रहा है। वातावरण में ग़ुलाबी ठंडक है। फ़िज़ा में एक खुशबू सी है जो अल्ल सुबह या फिर देर रात को बाहर निकलो तो रन्ध्रों को छूते हुए हवा में तैरती हुई आगे बढ़ जाती है।
कल शरद पूर्णिमा थी। चाँद अपने पूरे यौवन पर कीकर के पेड़ के पीछे जल्दी ही आ गया था। कुछ कुछ पत्तियों के पीछे छिपा था ,पर उसकी सिंदूर मिश्रित लालिमा हल्का सा पीताभ रंग लिए उसे आज एक अलग ही रूप दे रही थी। उसकी चमक के आगे तारागण अपनी चमक खो कर बहुत ही मद्धम से दीख रहे थे। अपने पूर्ण गोलाकार मंडल के चंहु ओर आभा की छटा बिखेरता वो कब कीकर के पेड़ के पीछे से सरक कर ऊंचा उठ आया, पता ही नहीं चला। अब वो काले आकाश में आ टँगा था। सिंदूरी रंग लाली त्याग कर पूर्णतया पीताभ हो आया था। कितनी शांति है इस चन्द्र मंडल में! कितनी शीतलता है इसमें! ठीक सूर्य के विपरीत ! मन वृन्दावन बढ़ चला है। जँहा महारास की तैयारी है।
बृज की गोपियों का विरह बढ़ाता शरद पूर्णिमा का ये पूर्ण चन्द्र वृन्दावन के आकाश पर उदित हो रहा है। पास ही बहती यमुना में दृष्टिगोचर होता उसकी लहरों में प्रतिबिम्बित हो उस अगाध जल राशि के साथ क्रीड़ा करने लगा है। ऐसा लगता है मानो ढेर सा सिंदूर यमुना जल में घुल गया है। यमुना तट पर बिछी शीतल बालू पर बिखरे कण इसके प्रकाश में चांदी से चमकने लगे हैं।
अभी थोड़ी देर में श्री कृष्ण पधारेंगे। गोपियों के कई जन्मों की तपस्या का फल आज फलीभूत होने वाला है। यमुना तट पर मन्द मन्द समीर बह चली है। रात-की-रानी, चम्पा और बेला के पुष्पों की महक से सारा प्रदेश सुवासित हो उठा है। पूर्णिमा का चन्द्र आकाश में पूरी तरह से उदित हो चुका है। प्रकृति ने मानो महारास के लिए सारी तैयारी कर दी है। ये वातावरण में वंशी की तान किसने छेड़ दी? स्वर लहरी दूर से पास आती जा रही है। गोपियां विस्मित हो स्वर लहरी की दिशा में देखने लगी हैं। कँहा है वो जो ये जादुई तान छेड़ रहा है?
मृग और मृगी अपने अपने छोनो के संग खिंचे चले आये हैं। अपने बड़े बड़े नयनों से निर्मिमेष देखते हुए अपने कानों के दोनो को स्वर की दिशा में खड़े कर उस स्वर माधुरी को पी रहे हैं। यमुना जल की गति मंथर पड़ गई है। जल राशि आगे बहना नहीं चाहती।
तभी अचानक से गहन वन से श्री कृष्ण प्रकट हुए। घुँघराली नीली अलकें, कानों में मकराकृत कुण्डल, बिम्बा फल के सदृश होंठ, सुन्दर विशाल नयन, सिर पर मयूर पिच्छ, मोतियों सी दन्तावली, गले में वैजयन्ती माल, पुष्पों का क्षृँगार ओर पीताम्बर धारण किये, करोड़ो कामदेवों के मद को चूर करते हुए, धीमी सी मधुर तान वंशी के रन्ध्रों से छेड़ते सबके बीच श्री कृष्ण के प्रकट होते ही सब ठगे से रह गए। पूर्ण चन्द्र ने भी अपनी गति मानो रोक दी हो। पूरी प्रकृति विस्मित सी हो रुक गई है। सभी पाषाण मूर्ति हो गए। चन्द्र की चमक भी फीकी पड़ गई।
तभी मेख सी गम्भीर वाणी में श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा, "अरी गोपियों! मध्य रात्रि का समय है। इस समय तुम सब को घर से बाहर नहीं रहना चाहिए। अतः अपने अपने घर लौट जाओ। तुम्हारे पति, सास, श्वसुर, और बालक चिंतित होंगे। तुम्हारी बाट देखते होंगे। तुम सब घर लौट जाओ।
अपने आराध्य, अपने प्रियतम के मुख से ऐसी निष्ठुर वाणी सुन गोपियों के दुःख की सीमा न रही। उनकी आंखों से अश्रु बह चले। उनके होंठ शुष्क पड़ गए। उन्होंने भांति भांति से श्री कृष्ण को समझाया। अपने लौकिक पति और सगे संबंधियों के संबंधों की असारता बताई। और फिर जब श्री कृष्ण ने देखा कि गोपियों का अनुराग सच्चा है, लौकिक वासना से परे है, तब वँहा प्रारम्भ हुआ दिव्य महारास।
जो आज भी होता है। कल की शरद पूर्णिमा पर भी हुआ था। बस अंतर इतना है कि हम अपने सीमित नेत्रों से उसे देख नहीं पाते। क्योंकि हम उस दिव्य लीला में प्रवेश के अधिकारी नहीं है। आज भी उच्च आत्माओं को, सन्तों को सुबह कुछ आभूषण मिलते हैं जो रात्रि की रास लीला के नृत्य करते समय यमुना की बालू में गिर पड़े थे। धन्य हैं वे संत जिन्हें ऐसा कुछ अनुभव हुआ है।
और जँहा तक महारास के वर्णन का प्रश्न है, मैं तो क्या, स्वयं शेष भी अपने मुख से इसका पूर्ण वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाते है। फिर भी श्री भागवत के पाँच अध्यायों में इसका वर्णन शुकदेव जी ने किया है। रास में दोष बुद्धि रखने वालों से मेरा आग्रह है कि इसे न पढ़े।
Sunday, 22 September 2019
जन्म स्थान
एक दिन उत्कट इच्छा हुई कि जँहा मेरा जन्म हुआ वो घर देखकर आऊँ। आज साठ वर्ष बीतने पर कैसा होगा वह मकान। शायद जीर्ण शीर्ण हो गया हो। खोजते खोजते मैं उस स्थान पर जा पँहुचा। बहुत कुछ बदल गया था। यमुना का लोहे वाला पुल पार करके जो पोखर था, जिसमें भैंसे अक्सर पड़ी रहती थीं वो अब वँहा नहीं था। वो चौड़ी सी पोल् अलबत्ता मुझे मिल गई जँहा से मुख्य सड़क से अन्दर जाते थे। कुछ भी जाना पहचाना नहीं था। जँहा वो मकान था उसकी जगह कोई और ही भवन खड़ा था। मैं ठगा सा खड़ा उसे देखता रहा। मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने आ गया। स्मृतियां जी उठीं। चल चित्र चलने लगा। पुराना समय जीवंत हो उठा।
मैं तब बहुत छोटा था। पांच- छह वर्ष का रहा होऊँगा। वो घर जिसमें मेरा जन्म हुआ , उसी में मैं पला बड़ा था। एक कमरे और रसोई का ये किराए का घर मुझे बहुत प्रिय था। शायद इसलिए भी की मेरी गर्भ नाल इसी आँगन में गड़ी थी या शायद इसलिए कि मैंने इसमें ही होश संभाला था।
दूसरे कमरे के नाम पर इसमें एक छोटा आयताकार स्टोर था, जिसके ऊपर लकड़ी के पट्टो से बनी एक दुछत्ती थी जिस पर कबाड़ भरा था। उसी स्टोर की एक दीवार तोड़ कर रसोई घर में जाने का रास्ता बनाया गया था। वैसे इस छोटी सी रसोई का एक दरवाज़ा बाहर आंगन की तरफ़ भी खुलता था।
माँ बताती थी जब मेरा जन्म हुआ तो इस घर में बिजली नहीं थी। लालटेन से ही काम चलता था। पर जब से मैंने होश संभाला, यँहा बिजली आ चुकी थी। हमारे कमरे से एक बड़ी सी खिड़की पीछे सड़क की और खुलती थी, जिस पर हल्का पर्दा टँगा था। गर्मियों की दोपहरी में पीछे वाले खाली प्लाट पर बना हैंड पंप जब कोई चलाता था, तो उसकी चुरम्म चूँ की लय बद्ध आवाज़ मुझे लोरी जैसी लगती। ठंडी हवा से वो झीना पर्दा उड़ता रहता और मुझे नींद आने लगती।
आंगन में कबूतरों का जमावड़ा रहता। गुटूर गूँ करते जब वो अपनी गर्दन फुलाते तो मैं ध्यान से उन्हें देखता। वो भी अपनी गोल गोल लाल आँखों से मुझे ताकते रहते। अचानक मैं भाग कर उनके बीच पँहुचता और वो पंख फड़फड़ाते झुंड में उड़ कर छत की मुंडेर पर जा बैठते।
मेरे पास एक तिपहिया साईकल थी जो नाना जी ने दी थी। पूरे आँगन में मैं उसे गोल गोल भगाता। पीछे की सीट पर छोटे भाई को बिठा लेता। या फिर कभी वो धक्का लगाता और मुझे पैडल नहीं मारने पड़ते। घर से हथौड़ी,प्लास और तेल की कुप्पी ले मैं आँगन के एक कोने में अपनी दुकान जमा लेता। छोटा भाई तिपहिया साईकल मरम्त के लिए मेरी दुकान पर लाता, और मैं उसे उल्टी खड़ी कर एक दो जगह हथोड़े से ठोकता, प्लास से इधर उधर कसता, कुप्पी से पहियों में तेल देता और कागज़ के बने नकली नोट ले कर साईकिल उसे दे देता। बचपन हमारा इतना ही सरल था।
कुछ समय बाद जब पीछे के प्लाट पर मकान बना तो पीछे वाली खड़की बन्द हो गई। उसकी जगह तीन खाने वाला एक आला निकाल दिया गया। पीछे से आती हवा और हैंड पम्प का संगीत दोनों ही बन्द हो गए।
साथ वाले कमरे में जाजी अपने परिवार के साथ रहते थे। उनकी पत्नी मेरी माँ की अच्छी सहेली थीं। उनके बच्चे उम्र में मुझसे खासे बड़े थे। गर्मियों की शाम जाजी छत पर बैठ अपने परिवार के साथ झाँझ मंजीरों संग भजन गाया करते थे।
सामने वाले कमरे में एक पंजाबी परिवार रहता था। उन में जो घर की बुजुर्ग महिला थीं, वो आँगन में बैठ अक्सर चरखा कातती थीं। रुई की पूनियों से कैसे सूत बनता जाता था, मैं कुतूहल वश देखता रहता। उम्र ने उनके शरीर पर असंख्य झुर्रियां डाल दी थीं। कानों में वह बड़ी बड़ी सी बालियां पहने रहती थीं, जिससे उनके कान के छेद लंबे हो गए थे। सूत कातने से अवकाश मिलता तो वह खाट पर बैठ सेवईयां बनातीं या फिर अपने पोते की मालिश करतीं।
उससे सटे हुए कमरे में एक महिला अकेली रहती थी जिसका एक मात्र बेटा भूटान में कार्यरत था। वो कभी कभी माँ के पास आता था। बस ये चार परिवार रहते थे उस मकान में।
हमारे घर में हमारे अलावा भी कई और बिन बुलाए मेहमान थे। कबूतरों का जिक्र तो मैं कर ही चुका हूँ। उनके अतिरिक्त, गौरेया, चूहे,छिपकलियां, ततैये और मधु मक्खियां भी थीं। कभी कभार भूले भटके तोते भी आ जाते थे। हाँ, बाहर बनी कोयले की कोठरी में सांप और बिच्छु भी रहते थे। ये सब पूरे अधिकार से इस घर में रहते थे। स्टोर की ऊपर की दुछत्ती तो चूहों के लिए सबसे निरापद स्थान था। दिन में वंही जा छिपते और रात में पूरे घर मे धमा चौकड़ी मचाते।
प्रत्येक चैत्र के आगमन से गौरेया भी आ धमकती। रौशनदान, ऊपर टँगे पंखे का कप या फिर छत और लकड़ी की सोट के बीच का स्थान इन्हें सबसे ज़्यादा पसन्द था। शायद इसलिए भी क्योंकि वँहा तक बिल्ली की पँहुच नहीं थी। इन्हीं जगहों में से कोई एक जगह चुन कर ये अपना घोंसला बना ही लेती थी। इस बात से बिल्कुल अंजान की छत पर लगा पँखा इनके लिए साक्षात काल ही था। जब भी ये आतीं, मेरा बाल ह्रदय कांप उठता कि कँही पँखे की चपेट में आ कर कट न जाएं! कई बार ये अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी। एक बार ये घोंसला बना लें फिर माँ उसे हटाने नहीं देती थी। कहती थीं पाप लगेगा। किसी का घर तोड़ना अच्छी बात नहीं है।
शाम को छत पर माँ पानी डाल आती थी। जिससे दिन भर की तपत शांत हो जाय। रात तक छत ठंडी हो जाती थी। खुली छत पर बिस्तर लगा हम खूब धमा चौकड़ी करते। आसमान पर चाँद धीरे धीरे सरकता जाता और हम कहानी सुनते सुनते गहरी नींद में सो जाते। रात में प्यास लगने पर माँ सिरहाने रखी सुराही से पानी देती। मिट्टी की महक लिए वो ठंडा मीठा जल अमृत तुल्य लगता।
सोचते सोचते मैं मुख्य सड़क पर आ चुका था। ड्राइवर कार लिए मेरी प्रतीक्षा में था। बैठते ही मैंने कहा- चलो। अब मैं घर लौट रहा था। भूत से वर्तमान में। ऐसी असंख्य यादों को समेटता हुआ जो गांधी नगर के उस मकान से जुड़ी थीं जो आज समय की भेंट चढ़ गया था।
Sunday, 18 August 2019
चातुर्मास और वैराग्य
चातुर्मास चल रहा है। 12 जुलाई, 2019 से प्रारंभ हो कर, कार्तिक मास में 9 नवम्बर, 2019 को समाप्त होगा। इन दिनों संत, मुनि, साधु, भिक्षु आदि जो शेष 8 माह भृमण करते हैं, एक स्थान पर ठहर जाते हैं। नदियां उफनती हैं, मेघ बरसते हैं। स्थान स्थान पर जल प्रलय सी होने लगती है। ऐसे में जल प्लावित स्थानों का भृमण न करके किसी एक सुभीते की जगह पर रुक जाना हर दृष्टि से ठीक लगता है। पर संतो का ये ठहराव मात्र इसलिए नहीं है कि इन दिनों यात्रा सुगम नहीं। ये तो हमें बस दिखता है। इस ठहराव का एक आध्यात्मिक कारण भी है । ये समय है अंतर्मुखी होने का। स्वयं से संवाद का। स्वयं को जानने की एक प्रक्रिया है ये ठहराव।
मेरी समझ में ये रुकना, ये ठहराव हम सभी की जिंदगी में आवश्यक है। पर हम कँहा रुकते हैं। हमारा तो मानना है कि रुकेंगे तो पीछे रह जाएंगे। बिना ये जाने कि जीवन में रुक कर स्वयं से संवाद उतना ही आवश्यक है जितना श्वास लेना। पर हमें कँहा किसी ने ये समझाया। कब किसने ये बताया कि स्वयं से संवाद कैसे होता है और कितना आवश्यक है! बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ लीं। तथा कथित उच्च संस्थानों से डिग्रियां हांसिल कर लीं। पर इन सबसे क्या लाभ हुआ। हम पैसे कमाने की मशीन मात्र बन कर रह गए। जीवन का एक मात्र उद्देश्य पैसा ही बन कर रह गया। हम भागते रहे पैसा, और अधिक पैसा बनाने को। क्योंकि हमें सिखाया ही ये गया। और हमने पैसे की ताक़त को परखा और पाया कि हमारी शिक्षा ठीक ही तो थी। पैसा है तो सब कुछ है। भौतिकता के सभी साधन आपको उपलब्ध हैं। वरन आप हैं क्या - धरती पर रेंगते कीड़े मकोड़े!
त्याग, वैराग्य , दान इन सब को और इनसे मिलने वाले सुख को हमने जाना ही कँहा। इन्हें तो वो ही जान सकता है जो इन के लिए ही जीता हो। जिसे इनका चस्का हो। वरना क्या कारण है कि श्री राम ने राज पाट त्याग दिया। भरत जी ने अयोध्या के बाहर कुटी डाल 14 वर्ष का संन्यास स्वीकार किया। राजकुमार सिद्धार्थ भरा पूरा राजपाट और सुन्दर पत्नी को त्याग सत्य की खोज में चले गए। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं।
चातुर्मास के नियम इसी को बल देते हैं। स्वयं का स्वयं से संवाद। जीव का आत्मा से संवाद। मैं कौन हूँ? संसार में क्यों आया हूँ? इससे पूर्व मैं कँहा था? और इसके बाद मैं कँहा जाऊंगा? ये चार प्रश्न यक्ष प्रश्न हैं। हम में से कितने ये प्रश्न स्वयं से करते हैं? कितने इनका उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं? जब से संसार में आयें हैं, भाग रहे हैं श्वासों की सड़क पर। भागते भागते एक समय आता है जब ये सड़क समाप्त हो जाती है। आगे रास्ता बंद हो जाता है। सामने गहरी खाई दिखती है और चाहे अनचाहे उस में हम धकेल दिए जाते हैं।
इस भाग दौड़ में जो एकत्र किया सब यंही छूट जाता है। इसीलिए थोड़ा रुक के स्वयं से संवाद आवश्यक है। अभी तक नहीं रुके तो अब ठहर जाओ। चातुर्मास चल रहा है। रुको, स्वयं से संवाद करो। फिर जब दुबारा से भागना शुरू करोगे, तो भाग नहीं पाओगे। सधे कदमों से चलोगे अपने गंतव्य की और। जँहा वैराग्य का महत्व है, त्याग का सुख है, दानशीलता है । तभी अपने को सार्थक मानोगे।जीवन को मायने दे पाओगे।
Thursday, 15 August 2019
हैदराबाद डायरी - 1
गत शनिवार रात को हैदराबाद पहुंचा हूँ। बहुत बढ़िया मौसम है। दिल्ली जैसी उमस का नामो निशान तक नहीं है। मदमस्त हवा चलती है पूरे दिन। आकाश आच्छादित है बादलों से। अभी अभी वर्षा हुई है। यँहा लगातार बारिश नहीं होती। टुकड़ो में होती है। अभी फिर हल्की धूप निकल आई है। बाहर के बग़ीचे की घास धुल गई है। अभी भी पेड़ो पर ठहरी पानी की बूंदे झर रही हैं। किसी पहाड़ी स्थान सा लग रहा है। सुबह थोड़ी दूर टहलने निकला था, भांति भांति के रंग बिरंगे पक्षी दिखाई दिये थे। हरे तोतों का जोड़ा भी किल्लोल कर रहा था। पीछे की और किचन गार्डन है। कुछ समय पहले यँहा एक बड़ा सा जहरीला सांप निकल आया था। रात को इधर आते में भय लगता है। हरी मैथी एक क्यारी में तैयार है। घीया की पौध निकल आई है, अभी समय लेगी। अभी दो चार दिन यँहा रुकूँगा। उम्मीद है मौसम ऐसा ही रहेगा।