Thursday, 25 November 2021

स्वाति का जन्म

विवाह को पाँच वर्ष हो चुके थे। बड़ी बेटी अब चार की हो चली थी। मेरा मानना था कि एक ही बच्चा बहुत है। पर पत्नी का आग्रह था कि क्योंकि अकेला बच्चा एकाकी हो कर रह जाता है इसलिए दो तो बहुत जरूरी है। मैं अवाक था। भगवान ने स्त्री को कितनी हिम्मत दी है! पिछली पीड़ा भूल वह फिर वही पीड़ा सहने को सहर्ष  तैयार हो जाती है जिससे उसके बच्चे को अकेले होने का एहसास न हो। जो भी हो ,दूसरी सन्तान का निर्णय हम दोनों का था। प्रभु ने हम दोनों को ही पुत्र मोह से दूर ही रखा है। तो ये कहना ठीक न होगा कि पुत्र मोह के कारण हमने दूसरे बच्चे का निर्णय लिया। बस एक ही इच्छा थी बेटा हो या बेटी जो भी हो स्वस्थ हो। 

समय तो पंख लगा के उड़ गया। जल्द ही वो दिन आ गया जब पत्नी को रेलवे अस्पताल भर्ती करना पड़ा। वैसे वो ठीक थी बस डॉक्टर उसे अपनी निगरानी में रखना चाहते थे।   ये 24 नवम्बर का दिन था। रात आठ बजे मैं पत्नी को अकेले डॉक्टरों के भरोसे छोड़ घर आ गया।  शरीर घर पर था पर मन पत्नी के साथ अस्पताल में। उन दिनों फ़ोन की सुविधा आम नहीं थी। रेलवे का अपना नेटवर्क होता है। रेलवे कॉलोनी में रहने के कारण हमारे ऊपर वालों के क्वाटर में रेलवे फ़ोन लगा था। उसका नम्बर मैं पत्नी को दे आया था जिससे किसी आपातकाल में वो हमें संदेश दे सके। 

रात के दो बजे होंगे कि हमारे दरवाज़े की घन्टी रात का सन्नाटा तोड़ती बज उठी। मैं हड़बड़ा कर उठा और दरवाज़ा खोला। सामने ऊपर वाले पड़ोसी थे। बोले,' क्या आपका कोई अस्पताल में भर्ती है?" मेरे हाँ कहने पर बोले, " आपके लिये अस्पताल से फोन है।"
सीढ़ियां चढ़ते मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप रहा था। फ़ोन उठाने पर दूसरी तरफ से एक नर्स ने पहले मेरा नाम पूछ के पहचान पक्की की। फिर कहा, "बधाई हो। बेटी ने जन्म लिया है।" मैंने पूछा, "पत्नी कैसी है?" पर तब तक फोन रख दिया गया था। मेरा डर काफ़ूर हो गया। मज़बूत कदमों से नीचे उतरा। तब तक मां भी जाग गईं थीं। मैंने उन्हें सूचित किया।  माँ ने कहा, "चल, अस्पताल चलना है।" 

मैंने अपना बजाज सुपर निकाला। माँ को पीछे बिठा हम अस्पताल चल दिये। सड़को पर सन्नाटा बिखरा था। ईदगाह की चढ़ाई पर स्कूटर के साइलेंसर से एक एक कर कई पटाख़े फूटने जैसी जोर की आवाज़ हुई और स्कूटर बन्द हो गया। सड़क किनारे सोये कुत्ते भोंकते हुए हमारे चारों ओर आ डटे। जैसे तैसे हम अस्पताल पहुँचे तो ऊपर जाने का रास्ता सब तरफ़ से बंद था। आपातकालीन द्वार की तरफ से हम ऊपर पहुँचे। पत्नी को तब स्ट्रेचर पर वार्ड में ले जाया जा रहा था। पास लेटी थी एक नन्हीं परी, पतले पतले गुलाबी होंठ थे जिसके। मैंने पत्नी से पूछा, "ठीक हो?" वो हल्के से मुस्करा दी। उसकी फीकी सी मुस्कान बता रही थी कि वह दर्द में थी।

तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। उस दिन जोर की बारिश से दिल्ली की सड़कें जल प्लावित थीं। पानी सुबह से बरस रहा था। थ्री व्हीलर पर उसे ले जाना मुझे उचित नहीं लगा। टैक्सी बुक कर मैं अपने स्कूटर के साथ पोर्च में ले आया। मेरी छोटी बहन की गोद में मेरी बिटिया थी। अस्पताल की सीढ़ियां उतरते हुए मेरी बहन के कदम लड़खड़ाए और उसकी गोद से नवजात शिशु छिटकते हुए बचा। एक घड़ी को मेरा कलेजा मुँह को आ गया। टैक्सी के पीछे  मैं अपने स्कूटर को चलाते हुए, माँ और बच्चे को घर ले आया। घर आते आते मैं पूरी तरह से भीग गया था। पर संतोष था कि माँ और बेटी सुरक्षित थे। 

आज इस बात तो 32 वर्ष हो चुके हैं। मेरी बेटी अब एक और प्यारी सी बेटी की माँ है। आज उस का जन्मदिन है। मुझे लगा कि उसके जन्म की कहानी से अच्छा और क्या तोहफ़ा हो सकता है इस दिन पर देने के लिए। 

बड़ी बेटी के जन्म की घटनाएं भी मेरे मानस पटल पर साफ़ साफ़ अंकित हैं। उसके अगले जन्म दिवस पर उसे उसके जन्म की कहानी सुनाऊँगा। 
  

Sunday, 21 November 2021

पापा का पर्स

आज एक सहकर्मी की अंतिम क्रिया में जाना हुआ। वापस आते ही गुसल में घुसा, सारे कपड़े भिगोये और नहा लिया। गीले वस्त्रों को वाशिंग मशीन में डाल भोजन किया और सो गया। शाम को जब बाजार जाने लगा तो पर्स की खोज हुई। आमतौर पर मैं पर्स ब्रीफकेस में रखता हूँ या फिर दराज़ में डाल देता हूं। नहीं तो क्रॉकरी रैक पर छोड़ देता हूँ। पर आज तो पर्स नदारद था। सोचा गाड़ी में तो नहीं रह गया पर वहाँ भी नहीं मिला। तो घटनाओं की कड़ियों को पीछे से जोड़ना शुरू किया। अंतिम बार पर्स घाट पर जाते समय पेंट की पिछली जेब में था। तो कहीं पेंट के साथ वाशिंग मशीन में तो नहीं चला गया! मशीन तो अपना वाशिंग साइकल पूरा कर कब से रुक चुकी थी। जल्दी से मशीन खोल कपड़े निकाले। जिसकी आशंका थी वही हुआ। पेंट के साथ उसकी पिछली जेब मे पड़ा पर्स भी धुल चुका था। कुछ पांच सौ के नोट थे जो गीले होकर एक दूसरे से चिपक गए थे। चंद पुराने नोट भी थे उनकी हालत तो बयां करने काबिल ही नहीं थी। दो डेबिट कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड और ड्राइविंग लाईसेंस की भी हालत अच्छी नहीं थी। पर्स तो पूरी तरह से बूझी बन चुका था। पांच सौ के नोट तो इस्त्री कर सुखा लिए। पर अजीब तरह से कड़क हो गए हैं। पता नहीं चलेंगे या नहीं। कार्ड भी प्रयोग के बाद ही पता चलेंगे कि बदलने पड़ेंगे या नहीं।

समस्या थी पर्स की। इस समय पर्स कहाँ से लाया जाये। अचानक पापा के ब्रीफकेस की याद आई। पिछली बार उनके पुराने कागज़ात संभालते हुए एक Benetton का लेदर का नया पर्स डिब्बे में रखा देखा था। पापा कभी पर्स नहीं रखते थे। उनके पैसे उनकी शर्ट या पेंट की जेब में ही रहते थे। आई कार्ड के बीच में या पॉलीथिन में लिपटे हुए। उनका मानना था कि पिछली पॉकेट में रखा पर्स जेब कतरों को आकर्षित करता है। दुःख तब होता था जब इतनी सावधानी के बाद भी उनकी जेब से पैसे या तो गिर जाते थे या कोई बस में निकाल लेता था। पर वो पर्स कभी नहीं रखते थे। ये पर्स भी शायद उनकी पोती ने गिफ्ट दिया था जिसे उन्होंने बिना प्रयोग किये संभाल कर उसके ऑरिजिनल पैकिंग में रख छोड़ा था। शायद मेरे लिए! आज उनके जाने के इतने वर्ष बाद मुझे उस पर्स की ज़रूरत हुई तो मैंने निकाल लिया। पापा जहाँ कहीं भी होंगें जरूर खुश होंगे कि उनकी संभाल के रखी चीज़ आज मेरे काम आ ही गई। वह हमेशा अपनी चीज़े हमें दे कर खुश होते थे। 

Monday, 18 October 2021

मैना, गिलहरियां व रेल का फाटक

कार्तिक प्रारंभ होने  में बस एक दिन शेष है। इन दिनों बरसात सामान्य तो नहीं कही जा सकती। कल से पानी बरस रहा है मानो सावन चल रहा हो। रात रह रह के मेघ गरज़ रहे थे। मैंने पर्दा हटा के देखा तो तड़ित भी रह रह के कौंध रही थी। अंधेरे आकाश पर चमकीली रेखाएं अचानक जल उठतीं और तुरन्त ही विलीन भी हो जाती। चाँद जो पूर्ण यौवन की दहलीज़ पर खड़ा है, मेघों की गरज़ से डरकर बादलों में कहीं छिप गया है। 

आज सुबह उठा तो भी रिमझिम रस की फुहार बरस रही थी। और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, दिल्ली की हवा का मिज़ाज जो कुछ दिनों से बिगड़ा हुआ था, कुछ ठीक हुआ है। अक्टूबर और नवम्बर के बीच पराली जलने से जो दम घोटू हवा इस शहर की हो जाती है, एक एक साँस मुश्किल कर देती है। रही सही कसर पटाखों का धुँआ पूरी कर देता है। मुझे तो चिन्ता सताती है ओड इवन के लागू होने की। समय पर काम पर पहुँचना एक बड़ी समस्या बन जाती है। वैसे भी पैट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं। सोचता हूँ, कार छोड़ ही देनी चाहिए। एक बारिश ही एकदम से हवा साफ़ करने में सक्षम है। इसलिए बे मौसम भी बरसती रहे तो अच्छा है। 

पर बहुत से लोगो के लिए ये बारिश भी मुसीबत बन जाती है। बेघरों के लिए तो आसमान ही छत है। वो ही टपकने लगे तो वो बेचारे कहाँ जाएं! बहुतों के लिए तो यही बारिश काल बन जाती है। आज ही पढ़ रहा था केरल में 22 लोगों की जान चली गई। 

आज छुट्टी पर हूँ । उकता कर बॉलकोनी में आ बैठा हूँ। ये मैना पक्षी अल्ल सुबह से शोर कर रहे हैं। आम के पेड़ की घनी पत्तियों में छिप कर शायद छिपा छिपी खेल रहे हैं। इन्हीं को देखने कुर्सी डाल बाहर आ गया हूँ। पत्ता पत्ता वर्षा से धुल खिल उठा है। बड़े प्रयत्न के बाद पत्तो में छिपी मैना देख पाया हूँ। अलबत्ता गिलहरियां जरूर पेड़ से उतर तने पर आ मुझे देख चिल्ला रही हैं। मैना की आवाज बहुत तेज़ है। एकदम ऊँचे स्वर में चिल्लाती हैं। सामने के छोटे झाड़ पर लाल रंग के पुष्प खिले हैं। पीली तितलियों का एक जोड़ा इन में पराग तलाश रहा है। एक छोटी सी चंचल चिड़िया जो शायद इसी पेड़ पर रहती है कुछ सशंकित सी है। मैं मोबाईल कैमरे से उसे पकड़ने का प्रयत्न करता हूँ पर वो दूर है। बड़ा कैमरा निकलने और जूम लैंस लगाने का मूड नहीं है। जब तक ट्राइपॉड पर फिक्स करूँगा ये उड़ जाएगी। बूंदा बांदी फिर शुरू हो गई है। मैना अपने तीखे स्वर में चिल्लाये जा रही है। छोटी चिड़िया उड़ गई है। माली आ कर आम के पेड़ की छटाई के लिए कहता है। मैं स्वीकृति दे देता हूँ। छटेगा तो ऊपर की और बढ़ेगा। नीचे की क्यारी में ग़ुलाब लगने हैं उन्हें भी बढ़ने को धूप चाहिए। पिछले वर्ष आम खूब ही फला था। पेड़ पौधे हैं तो जीवन है। पशु पक्षी हैं तो प्रकृति है। प्रकृति है तो हम हैं। आवश्कता है इस तारतम्यता को समझने की। कल की तुलना में आज इसकी आवश्यकता अधिक है। पर हम तो विकास चाहते हैं। किसी भी कीमत पर। प्रकृति का दोहन हो तो होता रहे। किसे चिंता है! मेरे देखते देखते मेरे आस पास कितना कुछ इस विकास की भेंट चढ़ चुका है। अभी कुछ दिन पूर्व ही रोशनआरा बाग से कार द्वारा आना हुआ। 

बरसों बाद इस जगह से गुजरा था। मैं पुराना रेल का फाटक ढूंढ़ रहा था पर अचानक अंडर-पास के मुहाने पर आ गया। ये कब हुआ!  कितना कुछ बदल गया है यहाँ। ऊपर से गुज़रती रेल की पटरी के नीचे  ये अंडरपास कब कर के बन गया! जब तक मैं समझ पाता, कार उस अंधेरी गुफ़ा में आ चुकी थी जिसकी  दीवारों पर उकेरी आकृतियों को कृत्रिम रोशनियां प्रकाशित कर रही थी। बची हुई कसर कार की हैड लाइट ने पूरी कर दी थी। पलक झपकते ही अंडरपास से बाहर गुलाबी बाग की सड़क पर आ निकला था मैं- दिन की चकाचौंध के बीच एक बार फिर से। 

अब न वो रेल का फाटक ही बंद होता है। न ही वाहनों की कतार ही लगती है। न ही सामने से गुजरती रेल गाड़ी ही दिखती है। दिखता है तो अंडरपास का अंधेरा और वो सुरंग जहाँ से मैं अभी अभी निकला हूँ। समय ने कितना कुछ बदल दिया है। आप कह सकते हैं कि समय की बचत हुई है इस विकास से। पर मुझे कोई ज़ल्दी नहीं है। 

बरसों पूर्व जब ये अंडर-पास नहीं था, रोशनआरा पार्क से गुलाबी बाग आने के लिए अम्बाला की और जाती पटरियां पार करनी पड़ती थी। मेरे पास तब बजाज सुपर स्कूटर हुआ करता था। उधर से आते अक़्सर मुझे ये फाटक बंद मिलता था। और यदि खुला मिलता भी था तो मुझे बड़ी निराशा होती थी। मुझे इस बन्द फाटक पर रुक कर सामने से जाती रेल गाड़ी को देखना बहुत अच्छा लगता था। बहुत से स्कूटर या मोटरसाइकिल वाले अपना वाहन टेढ़ा कर के बंद गेट के नीचे से निकल जाते थे। पर मुझे कहाँ कोई जल्दी रहती! ट्रकों की कतार के बीच से धीरे धीरे अपना स्कूटर सरकता मैं फाटक के किनारे आ खड़ा होता था। आस पास उग आई वनस्पतियों को ध्यान से देखता।  किसी पेड़ की शाखा के नीचे खड़ा मैं रेल की प्रतीक्षा करता और प्रार्थना करता कि यह इन्तज़ार जल्द खत्म न हो। 

वो बूढ़ा गेट मैन मुझे अभी भी याद है। गाड़ी के निकल जाने पर वो धीरे कदमों से आता, और बड़े से हैंडल को घुमाता। लोहे के बेरिकेड के नीचे लटकती जंजीरे खनखना उठती। इस के साथ ही दोनों और खड़े वाहनों के इंजन भी घरघराते। धीरे धीरे बैरिकेड हवा में उठते जाते और गेट के खुलते ही "पहले मैं", "पहले मैं" की तर्ज़ पर वाहनों में होड़ लग जाती। एक मैं किनारे खड़ा भीड़ छटने की प्रतीक्षा करता। थोड़ी देर में सारा हल्ला गुल्ला शांत हो जाता। एक सुकून भरी नीरवता छा जाती। हवा की सरसराहट सुनाई देने लगती। पीछे लगे बाग में पक्षियों का कलरव पुनः मुखरित हो उठता। वो बूढ़ा गेट मैन पास में बनी अपनी छोटी सी कुटीर में, बान से बनी पुरानी चारपाई पर जा बैठता। उसके बैठने से ढ़ीली पड़ चुकी चारपाई पर झोल सा बन जाता। 

न जाने कब फाटक के पास वाली थोड़ी सी जमीन पर उसने ये कुटिया छवा ली थी। पटरियों की तरफ़ अंदर की और बनी इस छोटी सी फूस की झोपड़ी के चारो और बांस का आहाता बना था। अहाते के अंदर जो भी थोड़ी बहुत कच्ची जगह थी, वहाँ उसने मौसमी सब्ज़ियां लगा रखी थीं। गर्मियों में घीया और तोरई की बेलें उसकी कुटिया की छत पर छा जाती थीं। सफ़ेद और पीले पुष्पों से सजी ये कुटिया बहुत भली लगती थी। कई बार जब मैं कुटिया का पास रुक कर फाटक खुलने का इंतज़ार करता, तो रंग बिरंगी तितलियों और काले भौरों की पंक्तियां वहाँ पाता। सब्ज़ियों के साथ साथ बूढ़े बाबा ने कुछ पुष्प भी खिला रखे थे। शायद वो अकेला ही था क्योंकि मैंने उसके साथ सिवाय उसके हुक्के के, जो उसकी एक मात्र सम्पति प्रतीत होती थी, कभी भी किसी और को नहीं देखा। 

आज जब मैं अंडर-पास से निकल गया तो मेरी स्मृति में वो गेट मैन कौंध गया। आज भी वहाँ से गाड़ियां निकलती हैं पर आज वो फाटक नहीं है और न ही उसे खोलने बन्द करने वाला कोई गेट मैन ही है। दोनों विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गए हैं। आज वहाँ वाहनों की कतारें नहीं लगती। न ही कोई मेरे जैसा अपने स्कूटर पर खड़ा रेलगाड़ी निकलने का इंतज़ार ही करता है।शायद इसे ही प्रगति या विकास कहते हैं। पर कितना कुछ छूट भी तो गया इस दौड़ में। 

कुछ माह पूर्व मेरा शालीमार बाग मैक्स हॉस्पिटल जाना हुआ। सामने से गुज़रती पटरियों को देख मैंने सोचा कि ये उसी गुलाबी बाग के फाटक से आ रही हैं जहाँ कभी रुककर मैं फाटक खुलने का इंतज़ार किया करता था। हो सकता है आप मुझे सनकी  समझें।  पर मैं तो ऐसा ही हूँ। आज भी अतीत से जुड़ा। मानस पटल पर अंकित स्मृतियों को टटोलता। विकास की इस दौड़ में ठहरा हुआ सा।
 

Thursday, 30 September 2021

तुम क्यों रुक गए मानसून

कल दोपहर मुझे बादलों के कुछ झुंड मिले। आवारा से भटकते हुए स्वच्छ नीले आसमान पर। एक तो बिल्कुल सफेद था, रूई के गोले सा। बिना पानी के जबकि दूसरा जो कुछ बड़ा था जल वाष्प धारण किये था एक तरफ से काला सा। मैंने उन्हें रोका और कहा कि अब तक तो तुम्हें चले जाना चाहिए था और तुम हो कि जा ही नहीं रहो हो। पहले तो देर से आये फिर प्रारम्भ में नख़रे करते रहे और अब जो बरसना शुरू किया तो जाने का नाम ही नहीं ले रहे हो। तुम्हारे पिता समुन्द्र ने तुम्हें घर से निकाल दिया क्या या फिर यहीं मन लग गया है। अरे अब जाओ! लोगों को अपने घर की लिपाई पुताई करानी है। साफ़ सफ़ाई करनी है। दशहरा आन पहुँचा है। दीवाली भी कहाँ दूर है ! मुझे अपनी गाड़ी भी सर्विस करानी है। और तुम हो, यहीं जमे हो। 
कुछ अनमने से हो गए बादल। बोले आख़िर घर कौन लौटना नहीं चाहता! पर तुम इन्सानों ने प्रकृति चक्र बदलने की ठानी है। हम लौटे भी तो कैसे? पूर्वी हवाएं अभी भी बह रही हैं। हवा में अभी भी कितनी नमी है। इन जल वाष्प कणों का बोझ हम भी कब तक ढोयें। कभी तो बरसना ही पड़ता है। जब तक ये पूर्वी हवाएं नमी ले कर बहती रहेंगी तब तक हम घर कैसे लौटें! बादल बोलता ही चला गया । ये सब तुम इंसानों का किया धरा है। क्या तुम्हें मालूम है समुन्द्र का तापमान कितना बढ़ चुका है ! ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। प्रकृति का चक्र बदल रहा है। अभी भी सुधर जाओ। प्रकृति से खिलवाड़ बन्द करो। वरना बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। 

अरे पर मुझे तो बोलने दो। तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो। पर तब तक हवा ने उसे आगे धकेल दिया था।जल वाष्प कण समेटता हुआ वो झुंड बहे जा रहा था। सफेद से काले रंग में बदलते हुए। आसमान अब साफ था। सूरज प्रखरता से चमक रहा था। मैं ठगा सा बादल की चेतावनी पर सोच रहा था। ये मानसून तो जा ही नहीं रहा। तो क्या हम उत्तरदायी हैं इसके लिये? बहती हवा ने कानों में कहा, "हाँ। बिल्कुल। बादल ठीक ही कहता है।"

Sunday, 19 September 2021

साँझी

कल से साँझी उत्सव प्रारंभ हो रहा है जो अश्विन कृष्ण अमावस्या तक चलेगा। मुझे खूब याद है जब हम बालक थे, अपनी बहनों को साँझी खिलाते थे। गाय के गोबर की साँझी दीवाल पर बनाते थे जिसमें भांति भांति के रंग बिरंगे पुष्प लगाए जाते थे। साँझी माता के अलावा इसमें सूरज, चाँद, सतिये, चिड़िया, तोते आदि भी खड़िया मिट्टी और गेरू से बना कर इसे सुसज्जित करते थे। संध्या समय " साँझी बहना री क्या पहनोगी, क्या ओढ़ोगी ' ऐसे ही लोक गीत गाकर बहनों को साँझी खिलाते थे। 

साँझी कंवारी कन्याओं का उत्सव है। कहते हैं राधा जी अपने पिता के घर के आँगन में साँझी सजाती थीं।इस रूप में वह संध्या देवी का पूजन करती थीं।सांझी की शुरूआत राधारानी द्वारा की गई थी। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के साथ वनों में उन्होंने ही अपनी सहचरियों के साथ सांझी बनायी। वन में आराध्य देव कृष्ण के साथ सांझी बनाना राधारानी को सर्वप्रिय था। तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे।

राधा रानी की समस्या कुछ ऐसी है जो न तो कही जा रही है न कहे बिना रह ही पा रहीं हैं।

फूलन बीनन हौं गई जहाँ जमुना कूल द्रुमन की भीड़,
अरुझी गयो अरुनी की डरिया तेहि छिन मेरो अंचल चीर।
तब कोऊ निकसि अचानक आयो मालती सघन लता निरवार,
बिनही कहे मेरो पट सुरझायो इक टक मो तन रह्यो निहार।
हौं सकुचन झुकी दबी जात इत उत वो नैनन हा हा खात,
मन अरुझाये बसन सुरझायो कहा कहो अरु लाज की बात।
नाम न जानो श्याम रंग हौं , पियरे रंग वाको हुतो री दुकूल,
अब वही वन ले चल नागरी सखी फिर सांझी बीनन को फूल।

अर्थ - श्री राधिका जी कहती हैं की मैं सांझी बनाने के लिए यमुना के तट पर फूल बीनने के लिए गयी और वहाँ पर मेरी साड़ी एक पेड में उलझ गयी तभी कोई अचानक वहाँ आ गया और उसने मेरी साड़ी सुलझा दी और वो मुझे लगातार निहारने लगा और मैं शरमा गयी लेकिन वो देखता रहा और उसने मेरे पैर पर अपना सिर रख दिया . ये बात कहने में मुझको लाज आ रही है लेकिन वो मेरे वस्त्र सुलझा कर मेरा मन उलझा गया. मैं उसका नाम नहीं जानती पर वो पीला पीताम्बर पहने था और श्याम रंग का था . हे सखी अब मुझे वो याद आ रहा है इसलिये मुझकों उस वन में ही सांझी पूजन के लिए फूल बीनने को फिर से ले चलो . इस पद में प्रभु श्री कृष्ण और राधा रानी के प्रथम मिलन को दर्शाया गया है इसलिये इसको सांझी के समय गाते हैं.

आज़कल ये सब उत्सव और लोक परम्पराएं तिरोहित हो गई हैं। आज के माता पिता भी इन सब के विषय में या तो जानते नहीं या फिर इतने व्यस्त हैं कि अपने बच्चों को इन सबकी जानकारी देने का उन्हें अवकाश नहीं है। हमारी पीढ़ी के साथ ही ये लोक परम्पराएं सर्वथा लुप्त हो जाएंगी। इस धरोहर को सहेजने की दिशा में ये पोस्ट एक छोटा सा प्रयास है।
 
-कुछ अंश यामिनी माहेश्वरी की पोस्ट से साभार।

©आशु शर्मा


Saturday, 7 August 2021

अर्थ अनर्थ

शनिवार की सुबह बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं होता। मोबाईल का अलार्म बजते बजते थक कर बजना ही बंद हो गया। अपने राम कानों पर तकिया लगा कर सोये रहे। पंखे की हवा और सुबह की मीठी नींद; कौन कमबख्त उठे। 

पत्नी कब से जगा रही है। पर सोते को तो जगाया जा सकता है। जगे हुए को कौन जगा पाया है? चाय बिस्तर के सिरहाने साइड टेबल पर पड़ी थी। उनींदा सा उठा जल्दी से खत्म की और फिर पसर गया। पत्नी ने रात ही कहा था कि कल सुबह सैर पर जाओगे। आजकल सुबह की सैर पिछले कई माह से बंद है। मन ही नहीं होता मास्क पहन कर उसी कम्पाउंड में चक्कर लगाने का। मन भी अजीब चीज़ है। कई बार अकारण ही परेशान रहता है। मैं इससे कई बार पूँछ चुका हूँ- प्यार से, दुलार से, फटकार से कि आख़िर बता तो परेशानी क्या है? पर सब व्यर्थ। ये कुछ बताता ही नहीं। और खुश भी नहीं रहता। अवसाद से घिरा मन न तो सुबह सैर के लिए तैयार होता है न ही योग और प्राणायाम के लिए। बस ऑफिस के लिए मुझे धकेलता है क्योंकि ये भी जानता है कि वहाँ तो जाना ही है। ऐसे मैं छुट्टी की सुबह तो ये मचल ही जाता है कि सोते रहो। उठना क्यों है!

काम वाली कमरे में सफ़ाई के लिए आ चुकी थी। झाड़ू लगाने से पहले उसने पँखा बन्द किया। एकदम से गर्मी हो गई। पर अपने राम नहीं उठे। पत्नी ने तेज़ आवाज़ में रेडियो चला दिया पर बन्द करवा कर फिर सो गए। आख़िर आठ बज गए। पत्नी ने कहा कि घर में कोई सब्ज़ी नहीं है, मदर डेरी चलना ही पड़ेगा सब्ज़ी के लिए। मन तो कतई राज़ी न था। बेमन से उठे, मुँह धोया गाड़ी की चाबी उठाई और पार्किग से गाड़ी निकाल चलने ही वाले थे कि ध्यान आया मास्क तो लगाना ही भूल गए। पत्नी को भेजा कि मास्क ले आओ। जितने मास्क आया, स्टीयरिंग पर सिर रख के दो मिनट आँखें बंद कर ली। नींद अभी भी पलकों पर ही थी। मन ने कहा , "मैं न कहता था कि वहीं सोते रहो।" खैर, सब्ज़ी और फल ले सही सलामत घर पर आ गए।

बैठे ही थे कि पत्नी ने कहा, "वो वर्मा जी को देखो। सुबह शाम दौड़ते हैं। और गुप्ता जी तो रोज़ सुबह दौड़ लगाते हैं। पड़ोस के सक्सेना जी भी नियम से सुबह सैर करते हैं। और ऊपर वाले तो यूनीवर्सिटी गार्डन में जाते हैं। पत्नी हमारी शुभ चिन्तक है। वो चाहती है कि हम भी अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें। पर हम भी कहाँ चुप रहने वाले थे। अपने आलस्य को भी तो सही ठहराना था। तो हो गए अपने राम शुरू।

हमने कहा देखो हर व्यक्ति का जीवन जीने का अपना अपना नज़रिया है। कुछ दौड़ लगाते हैं तो कुछ आराम फ़रमाते हैं। वैसे अगर देखा जाए तो आदमी की शारीरिक संरचना दौड़ने के लिए नहीं बनी। अगर प्रभु चाहते कि ये दौड़े तो उसे घोड़ा बनाते न कि आदमी। अब प्रश्न ये उठता है कि फिर वो दौड़ता क्यों है। जैसे आदमी की शारीरिक संरचना मांस भक्षण के लिए नहीं बनी पर फिर भी वो स्वाद के लिए माँस खाता है ऐसे ही हालाँकि आदमी के पैर दौड़ने के लिए नहीं बने हैं पर फिर भी वो जनून के लिए दौड़ता है। कुछ मैराथन दौड़ते हैं फिर अपने फ़ोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं। ये भी एक जनून ही है, अपने को औरों से अलग दिखाने का। ये  मैराथन दौड़ने वाले ओलिंपिक तक या तो  पँहुचते ही नहीं हैं और या वँहा की भीड़ में पिछड़ जाते है। 

और ये कहना तो गलत ही है कि हम में से केवल कुछ लोग ही भागते हैं। हकीकत तो ये है कि हम सभी भाग रहे हैं। कोई परेशानियों से भाग रहा है तो कोई जिम्मेदारियों से। कोई जिन्दगी से भाग रहा है तो कोई घर से। कोई  गॉंव से भाग रहा है तो कोई शहर से। कोई कानून से भाग रहा है तो कोई डर से। सभी भाग ही तो रहे हैं। 

जब हम पढ़ते थे तो गोपाल प्रसाद व्यास की एक कविता हमारी पाठ्य पुस्तक में थी। शीर्षक था ,"आराम करो"। उस कविता से हम इतने प्रभावित थे कि पढ़ते पढ़ते ही खर्राटे लेने लगते थे।  पिताजी सुबह धक्का मार कर सामने वाले पार्क में भेजते थे कि दो चार चक्कर लगा कर आओ। हम तो बैंच पर हाथ का तकिया लगा गोपाल प्रसाद व्यास को याद करते करते सो जाया करते थे। वो कविता आज भी ज़हन में ताज़ा तरीन है। एक बानगी देखो।

"अदवायन खिंची खाट में जो 
पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष 
से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, 
इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, 
इंजन जैसा लग जाता है।"

हमारी इस बक बक से पत्नी तंग आ गई थी। बोली, "अर्थ का अनर्थ करना तो कोई आप से सीखे।" इसी बक झक में नौ बजने आ गए थे। अपने राम ने भी तौलिया उठाया और नहाने चल दिये।

Friday, 23 July 2021

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः

मेरा उद्देश्य किसी के विश्वास को ठेस पहुंचाना नहीं है। बस अपनी बात रखने भर का ही है। 

कुछ माह पूर्व मेरे एक परिचित मुझसे मिलने मेरे कार्यालय में आये। इधर उधर की कुछ बातें करते हुए उन्होंने मेरे कमरे को गौर से देखा और बोले, "एक सलाह दूँ?" मैंने कहा," जरूर दीजिये"। बोले, "आप अपना कमरा बदल लीजिये। यहॉं आप बीम के नीचे बैठे हैं जो वास्तु की दृष्टि से अशुभ है।" मैंने कहा पर यहाँ हर कमरे में बीम तो होगी ही।" बोले, "तो कम से कम अपनी मेज़ ही बीम के नीचे से हटा लीजिये।" मैंने दोनों ही कार्यों में असमर्थता जाहिर की तो कुछ अनमने से हो गए। बोले, "आप वास्तु को नहीं मानते?" मैंने कहा, "वास्तु छोड़िये, मैं तो कुछ भी नहीं मानता, सिवाय भगवान के!

इन दिनों मानो वास्तु विशेषज्ञों की भरमार हो गई है। अच्छे भले मकान को यदि तुड़वाना हो तो किसी वास्तु विशेषज्ञ से सलाह कर लें। आपके जीवन में कोई परिवर्तन आये या न आये, आपकी माली हालत जरूर ढ़ीली हो जाएगी।

पूजा का कमरा कहाँ हो। तिज़ोरी किस दिशा में रखें। सीढ़िया कहाँ हो और उनके नीचे क्या हो। मुख्य दरवाज़ा किस दिशा में हो और उसका रंग कैसा हो। तोते की तस्वीर बच्चों के पढ़ने के कमरे में हो। पानी की टँकी छत पर किस दिशा में हो। ऐसे सैकड़ो सवालों के जवाब आपको वास्तु शास्त्र में मिल जायेंगे। दक्षिण दिशा यम की मानी जाती है अतः उस तरफ मुख्य द्वार नहीं होना चाहिए। पता नहीं यम कब अचानक से भीतर आ खड़े हों! गोया अन्य दिशाओं में जिनके मुख्य द्वार हैं वहाँ तो यम आज्ञा लेकर आते हैं। या आते ही नहीं क्योंकि आपने दरवाज़ा ही दूसरी दिशा में बना लिया है। और यदि आप दक्षिण के द्वार नहीं बदल सकते तो उस पर एक विंड चाइम टाँग ले। बस हो गए आप सुरक्षित!  चलिए मान लेते हैं कि ये सब ठीक है पर अपना मकान बनाते समय तो आप इनमें से कुछ शर्तें पूरी कर सकते हैं। पर यदि आप मेरे जैसे सरकारी आवास में हैं या किराये के मकान में रहते हैं तो क्या करेंगे? 

एक नया शगुफ़ा छिड़ा हुआ है जिसे कहते हैं पॉज़िटिव एनर्जी या नेगेटिव एनर्जी। मेरे जैसे अल्प ज्ञानी के लिए तो ये समझ से परे है। एनर्जी जो ऊर्जा है वो तो ऊर्जा ही रहेगी। अब ऊर्जा कैसे पॉज़िटिव या नेगेटिव हुई?  चार्ज जरूर पॉजिटिव या नेगेटिव हो सकता है। और कोई विंड चाइम दरवाज़े पर लटका के कैसे ऊर्जा को वो भी तथाकथित पॉज़िटिव ऊर्जा को अपने घर में आमंत्रित कर सकता है। हाँ , कुतर्क करके आप शायद अपनी बात इसके विपरीत सिद्ध कर दें। पर सत्य तो सत्य ही रहता है।

कोविड के चलते पिछले वर्ष से कोई किसी के आ जा नहीं रहा। ऐसे में चूंकि ड्राइंग रूम बन्द ही रहता है, वहाँ टँगी घड़ी भी बंद हो गई। एक दिन एक परिचित आये। घड़ी देखते ही कहने लगे कि घर में रुकी हुई घड़ी नहीं लेनी चाहिए। अब बताइए, घड़ी एक मशीन है जिसे आदमी ने बनाया है अपनी सुविधा के लिए। अब वो चलती रहे या रुक जाए इसमें अपशगुन कैसा? समय कोई आपकी घड़ी के हिसाब से तो चलता नहीं। वो तो निरंतर चलता जा रहा है।  जैसे बिना चाहे दुःख आते हैं वैसे ही कर्मानुसार सुख भी आते रहते हैं। 

कुछ राहु काल को इतना महत्व देतें हैं कि दिन में किस समय राहु काल है ये उन्हें रोज़ पता होता है और  वो उस काल में घर से पैर ही बाहर नहीं धरते। कुछ पहले दायाँ कदम बाहर रखते हैं। ऐसे एक नहीं सैकड़ो डर हैं जिनसे व्यक्ति ग्रसित है। 

बहुतों को तो मैं जानता हूँ जिनके बच्चे जन्मपत्री मिलने के इंतज़ार में उम्र दराज़ हो गए हैं। और बहुतों ने जन्मपत्री के अधिकतम गुण मिलवाये पर विवाह असफ़ल रहा। अधिकतम लोग मानते हैं कि बच्चों के विवाह वो तय करते हैं। मेरे विचार से इससे बड़ी भ्रांति नहीं हो सकती। प्रभु के खेल निराले हैं। हम इस जन्म की योजना बना सकते हैं वो भविष्य के कई जन्मों की योजना पूर्व में ही बना लेता है। शादी विवाह कोई संयोग नहीं हो सकता। न ही उसे आप तय कर सकते हैं। कौन सी आत्मा किस माता पिता के द्वारा कब संसार में आयेगी ये बहुत पहले से तय है। इसमें आप का कोई हस्तक्षेप संभव ही नहीं है। योजना इतनी विस्तृत है कि यदि जिन माता पिता के द्वारा आत्मा को धरा पर आना है वो धरा पर अभी जन्में ही नहीं, तो वो आत्मा चन्द्र लोक में उचित समय की प्रतीक्षा करती रहती है। श्रीमद भागवत में आज से पांच हज़ार वर्ष पूर्व ही भविष्य में होने वाले राजाओं के और उनके पुत्र ,पोत्रों, प्रपौत्रों तक के नाम तक का वर्णन मिलता है। तो इतनी विस्तृत योजना में हम जन्मपत्री मिला कर ये समझते हैं कि विवाह हमने तय कर लिया! कितनी विचित्र बात है। हम केवल प्रयत्न कर सकते हैं और कुछ नहीं।

मेरा ज्योतिष विज्ञान से कोई बैर नहीं है। पर मैं मानता हूँ कि इस विज्ञान के विद्वान अब कोई बिरले ही बचें हैं। और कर्म फल सभी पत्रियों से ऊपर है। होनी कहाँ टलती है! जगत प्रसिद्ध है;

मुनि वशिष्ट से पंडित ज्ञानी, सोध के लगन धरी ।
सीता हरन मरन दशरथ को, वन में बिपति परी ।
करम गति टारे नहीं टरी......

मेरे विचार से खेल बस इतना है कि व्यक्ति को डरा दो। इतना डरा दो कि उसे आपकी बात सत्य लगने लगे। फिर उसे जैसे चाहो, जितना चाहे निचोड़ लो। बीमा पॉलिसी बेचने वाला ये कर रहा है, डॉक्टर ये कर रहे हैं, वकील ये कर रहे हैं । पंडित ये कर रहे हैं।  वास्तु शास्त्री ये कर रहे हैं। जिसका मौका लगा वो बस आपको डरा रहा है। और डरा रहा है। अशुभ से डरा रहा है। मृत्यु से डरा रहा है। हानि से डरा रहा है। अस्वस्थता का डर दिखा रहा है। अपमान का डर दिखा रहा है। दरिद्रता का डर दिखा रहा है। और भी जिससे आप डरते हैं उसका डर दिखा रहा है।

वो डरा पा रहा है क्योंकि आप डर रहे हैं। जहाँ आप ने डर को छोड़ा वहीं, उसी क्षण ये सारे नियम कानून आपके लिए बेकार हो जाते हैं। फिर आप चाहे वास्तु की दृष्टि से पूर्णतया निकृष्ट घर में क्यों न रहें या फिर आपके घर की सारी घड़िया रुकी रहें, आप पर कोई आपदा नहीं आएगी। बस डर छोड़ना होगा। किंचित मात्र भी किसी अमंगल का भय न हो तो आप अमंगल में भी मंगल ही देखेंगे। गीता में, दैवी सम्पदा को प्राप्त पुरुषों के लक्षण बताते हुए भगवान ने "अभयं" अर्थात भय का सर्वथा अभाव पहला लक्षण बताया है।

अंतिम बात। यदि आप डर को नहीं छोड़ पा रहे हैं या फिर किसी अमंगल का भय लिए बैठे है तो फिर घर का दरवाज़ा यदि दक्षिण दिशा में है तो उसका उपाय कर लें। या घड़ी रुकी है तो उसमें बैटरी डाल कर सही समय सेट  कर के चला दें। जन्मपत्री जरूर मिलवाएं; राहु काल देख कर शुभ कार्य करें, आदि आदि ।
क्योंकि आपका मन इतना शक्तिशाली है कि जो आप सोचते हैं वैसा वो कर देता है। आपके भीतर बैठा डर आपके लिए अवश्य अमंगल ला सकता है क्योंकि मन की शक्ति ही ऐसी है। 

इसलिए जिसने इस डर  को बाहर निकाल दिया; जिसका परमात्मा पर अटूट विश्वास है; जो पूर्णतया उसी पर आश्रित है; जिसके समस्त कार्य उसी के लिए हैं; जो मंगल अमंगल सब उसी का खेल मानता है, वो सर्वथा अभय है । उसे कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। वो हर परिस्थिति में आनन्द से अपना जीवन व्यतीत करता है।

 

Monday, 19 July 2021

निंदक नियरे राखिये

कबीर ने कहा था - निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय। मैं सोचने लगा कि उन्हें अंगेज़ी का थोड़ा बहुत ज्ञान तो अवश्य रहा होगा वरन वो "नियर" शब्द का प्रयोग कैसे करते! खैर, उन्हें ये इल्म तो बिल्कुल ही नहीं रहा होगा कि भविष्य में आंगन तो रह ही नहीं जाएंगे। अब तो बॉलकोनी होती हैं और वो भी बस इतनी की आप खड़े भर हो सकें और आसमान देख पाएं। वरना बहुमंजिला इमारतों के कबूतर खानों में अधर बीच में टँगे टँगे ही आप ज़िन्दगी गुज़ार देतें हैं। इन बाल्कोनियों में आप चाहें भी तो कुटी नहीं डाल सकते।  वैसे भी आजकल  सोशल मीडिया के मंच से आप दूर रहते हुए भी किसी की जी भर कर निंदा कर सकते हैं। दिन में कई बार कर सकते है। प्रतिदिन कर सकते है। अर्थात जितना चाहें  निंदा रस ले सकते हैं। तो फिर निंदक को पास रखने की क्या आवश्यकता है! और निंदा भी इस मीडिया पर प्रशंसा से अधिक गति से आप तक और आप के चाहने वालों तक पहुंच जाती है। पर विडम्बना ये है कि निंदा सुन कर अपनी सफ़ाई करने वाले अब कहाँ मिलते हैं। उनका तो मानना है कि चाहे जितना पानी और साबुन लगे, सफ़ाई तो निंदक की करनी है। वो तो इसी मीडिया पर  निंदक को चेताते हैं कि बाज़ आ जाओ अपनी हरकतों से। और इस पर भी यदि निंदक न माने तो उसको ही साफ़ अर्थात ब्लाक कर देते हैं। कबीर को पता होता तो शायद यह दोहा न रचते। वैसे भी मेरा मानना है कि दोहे चौपाइयां उस काल विशेष के लिए ही रची जाती हैं। काल विशेष के परे या तो इनके अर्थ बदल जाते हैं या फिर ये प्रासंगिक नहीं रहती। अब ये कोई सार्वभौम सत्य तो है नहीं कि हर काल में मान्य हो। फिर ये तो कलियुग है। यहाँ तो सत्य भी रोज़ अपना रंग बदल लेता है। तो फिर औरों की तो बात ही क्या है! मेरी इस पोस्ट की यदि आप प्रशंसा न करें तो कोई बात नहीं। हाँ निंदा करेंगे तो ब्लाक होने का खतरा तो है ही। वो एक गीत है न - तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं। तुम किसी गैर को चाहोगी तो  मुश्किल होगी।

Tuesday, 13 July 2021

रात की रानी

गर्मियों  में जब रात की रानी का झाड़ छोटे छोटे सफ़ेद पुष्पों से सज जाता है तो उसकी इतनी शोभा नहीं होती कि देखने वाला मुग्ध हो जाये। पर वही पुष्प जब रात को अपनी सुगन्ध चहुँ ओर बिखेरते हैं तो मत पूछिए कि कैसा लगता है। हवा इस सुगन्ध को लेकर जब बहती है तो आस पास का वातावरण भी इसकी मद मस्त सुगन्ध से सरोबार ही उठता है।

 मुझे इसका अनुभव प्रथम बार तब हुआ जब कई वर्ष पहले मैं चन्दौसी गया। कम्प्यूटर विषय पर मुझे वहाँ प्रशिक्षण ले रहे छात्रों को पढ़ाना था। मेरे कमरे के बाहर, रात की रानी का झाड़ था। वहीं आस पास जूही और चमेली भी लगी थीं। मेरे बिस्तर के ठीक पास खिड़की थी। रात में चाँदनी से पूरा प्रशिक्षण संस्थान नहाया हुआ था। चाँदनी खिड़की से हो कर मेरे बिस्तर पर आ ठहरी थी। रात की रानी अपने पूरे यौवन पर थी और हवा उसकी सुगन्ध ले बह रही थी। एक जादू सा कर दिया था प्रकृति ने जिसने मुझे अपने वश में कर लिया था। आकाश में चाँद चल रहा था। और मैं कब कर के सो गया मुझे याद नहीं। 

सुबह पक्षियों के कलरव गान से मेरी आँख खुली। रात की रानी की महक अब नहीं थी। उसका कार्य भार जूही और चमेली ने ग्रहण कर लिया था। पास में ही मोर ने मेघों को आवाज़ दी। जब तक मैं आगे बढ़ता कि यह आवाज़ कहाँ से आ रही थी, मेरे सामने मोर स्वयं आ उपस्थित हुआ। मैं उसकी गर्दन के नीले रंग को निहार ही रहा था कि उसने पंख फैला कर नृत्य शुरू कर दिया। मैं निकल गया कुछ दूर सैर करने।

 जगह जगह आदर्श वाक्य लिखे हुए थे। एक जो मुझे आज तक याद है, वो था- "संसार निःसार है। यहाँ सार है तो केवल भगवान।" वास्तव में कितना सच है! इसी निःसार संसार में उसी की माया से सर्वत्र सार ही सार नज़र आता है। जो नहीं है वो सत्य भासता है। जो है वो दिखता नहीं है। कितनी विचित्र माया है उस मायापति की। उस परमपिता परमेश्वर को कोटि कोटि नमन।

Thursday, 1 July 2021

कदमों के नये निशां

सुबह ऑफिस जाते समय कुछ यातायात अवरुद्ध था। अतः ड्राइवर ने कार मंडी हाउस की तरफ़ से ले ली। आगे बराखम्भा रोड और बंगाली मार्किट पर भी यातायात नहीं जाने दिया जा रहा था अतः हम  कोपरनिकस मार्ग  पर आ गए। हम अपने कार्यालय से विपरीत दिशा में जा रहे थे। हमारे बाईं ओर कर्मचारियों का एक रेला चला जा रहा था। हाथ में ब्रीफकेस, टिफिन या बैग पकड़े हुए। मैं वर्षों पीछे चला जाता हूँ।

कभी मैं भी इस रेले का हिस्सा हुआ करता  था। इस सड़क को सुबह शाम मैंने हज़ारो बार नापा होगा। सुबह किशनगंज से रोहतक या भिवानी शटल पकड़ना, पीछे पीछे के डिब्बे में चढ़ना और सदर बाजार, नई दिल्ली व मिंटो ब्रिज होते हुए तिलक ब्रिज पर उतरना। यहॉं से शुरू होता था रोज़ बड़ौदा हाउस का पैदल सफ़र। तपती गर्मी हो या कड़कड़ाती सर्दी, मूसलाधार वर्षा हो या आंधी, सुबह शाम की ये दौड़ बदस्तूर जारी रही। दिनों दिन, सालों साल। 

रेल की पटरियों से नीचे आते ही संपन्न लोगों की कोठियों की कतार शुरू होती थी। किसी जमाने में यहाँ आ बसे इन लोगों को इस इलाके की सम्पतियों के बढ़ते भावों ने सम्पन्नता के उच्च शिखर पर ला दिया। सफ़दर हाशमी मार्ग पर कुछ आगे श्री राम सेंटर फॉर आर्ट है जहाँ शाम को वापस लौटते हुए कारों की कतारें मिलती थी। रंगमंच प्रेमियों के लिए ये मिलने का एक अड्डा भी था। उन दिनों कई कलाकार खादी का कुर्ता पायजामा पहने कंधे पर झोला लटकाये, चाय की चुस्कियाँ लेते या सिगरेट का धुआं उड़ाते यहाँ दिख जाया करते थे। गर्मियों की शामों में यहां बाहर ही महफिलें सज़ा करती थी। कुछ आगे दायीं और हिमाचल भवन है। उसे पार कर मंडी हाऊस के गोल चक्कर से कोपरनिकस मार्ग पर हम चल पड़ते थे। कदमों की चाल तेज़ रखनी पड़ती थी ताकि समय पर उपस्थिति दर्ज हो जाये। ललित कला अकादमी, दूरदर्शन भवन, कमानी ऑडिटोरियम, औऱ पंजाब भवन जैसी इमारतों को पार करते न करते हम बड़ौदा हाऊस आ पहुँचते थे। यह रास्ता कब कट जाता हमें पता ही नहीं चलता। 

दोनों ओर लगे पेड़ो की कतारों की छाया में हम रोज सुबह शाम ये सफ़र तय करते थे जो आज भी जारी है। बस लोग बदल गए हैं। वही सड़क है, वही इमारतें और वही दरख़्त। बदले हैं तो बस चलने वाले। लोग आते रहेंगे जाते रहेंगे पर कोपरनिकस मार्ग वहीं रहेगा। गुलमोहर के पेड़ों पर लाल फूलों से वैसी ही आग लगती रहेगी। बारिश में पेड़ो पर ठहरा पानी हवा के झोंको से वैसे ही टपकता रहेगा। सीले मौसम में भुनते भुट्टों की महक वैसी ही रहेगी। सर्दीयों की कुनकुनी धूप पेड़ों से छन कर वैसे ही आती रहेगी। बस लोग बदलते रहेंगे। जहाँ कल हम थे वहाँ आज कोई और है, कल कोई और आयेगा। हमारे कदमों के निशान अब मिट चुके हैं। आज पड़ने वाले निशान भी कल धूमिल हो जायेंगे। आज किसे फुर्सत है कि जाने कि कल कौन आया था इस रास्ते पर!

इसी सच्चाई को साहिर लुधियानवी ने कितनी खूबसूरती से नग़मे में पिरोया है:
 
कल और आएंगे नग़मों की
खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले
कल कोई मुझको याद करे
क्यूँ कोई मुझको याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिये
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं पल दो पल का शायर हूँ ...

Saturday, 26 June 2021

बदलते मौसम

पूरा जून जाने को है पर बदरा नहीं बरसे। आषाढ़ के भी कुछ दिन निकल गए पर कुछ नहीं हुआ। जेठ को क्या कहें वो तो मुझ सा सूखा रूखा ही रहता है। रोज़ उम्मीद के साथ शुरू होती है और रोज़ शाम आते आते उम्मीद टूटने लगती है। शायद रात में बरसें। पर सुबह फिर धरा सूखी ही मिलती है। पहले यही बदरा कितना बरसा करते थे। अब न जाने किसका श्राप लग गया है। कितने ताल तलैय्या भर जाया करते थे। कागज़ की नाव तैराते हम थकते नहीं थे।आज तो उमस बहुत है। शायद बरसें। पर झूठी उम्मीद से मन तो बहल सकता है धरा की प्यास तो नहीं बुझ सकती। 

कुछ गिलहरियों ने पूरी दुपहरी उधम किया। आम के पेड़ पर चढ़ उतर खूब शोर मचाया। चिड़ियों ने भी धूप से बचने को घनी पत्तियों की छाया का सहारा लिया। मैं इन के लिए पानी भर कर रख देता हूँ पर ये पानी पीने आती नहीं हैं। आस पास कहीं और इन्हें निरापद स्रोत मिल गया दिखता है। 

चींटियों का आवागमन भी इन गर्मियों में बहुत बढ़ गया है। दरवाजों की चौखटों के नीचे से ये छोटा सा जीव मिल जुल कर ढेर मिट्टी रोज़ निकाल देता है। मेरी पत्नी मिट्टी हटाते हटाते थक गई है पर ये चीटियां नहीं थकी। उसी रफ़्तार से रोज़ मिट्टी निकलना बदस्तूर जारी है। चोखट नीचे से खोखली हो चुकी हैं। पर इन्हें क्या?  इन्हीं दरारों में छोटे छोटे नव आगन्तुकों ने बाहर की दुनियां देखने के लिए सिर उठा लिया है। मैं इन्हें तोड़ता नहीं हूँ। बढ़ने देता हूँ। थोड़े दिनों में इन पर फूल सज जाएंगे। तितलियाँ, भोरें और मधु मक्खियां इन पर मंडराएंगी। 

कभी गर्मियों भी सुहानी लगा करती थीं। सबसे ज्यादा गर्मियों के आकर्षण तो गर्मियों की छुट्टियां होती थी। बर्फ का ठंडा दूध रात में और सिल बट्टे पर पिसी ठंडाई कभी कभी दिन में। आमो की बहार, जामुनों की भरमार, लीची, आड़ू, आलू बुखारे, तरबूज और ख़रबूज़े। अब क्या क्या गिनाएं। छत को धोना फिर छत पर सोना। नीम की कड़वी  निबौली, और पेड़ के मीठे शहतूत। बर्फ में लगी खिरनी और ठंडे ठंडे लौकाट। मिट्टी के घड़े में बर्फ में कलमी शोरा और साबत नमक डाल के तम्बाकू के डिब्बों में जमी आइसक्रीम। माँ के सोते है चुपके से खिसकना और भरी तपती दुपहरिया में खेलना। छत की तपती डोलियों पर शाम को पानी डालना और देर तक उस सुगन्ध को सूंघना। पास के पेड़ से लिसोड़े तोड़ना और फटी पतंग उसके लेस से चिपकाने का व्यर्थ प्रयत्न करना। औऱ न जाने क्या क्या। अब गर्मियां वैसी नही होती। न ही बारिश ही वैसी होती है और न ही सर्दियां ही। या तो मौसम बदल गए हैं या फिर हम बड़े हो गए हैं। 

बरबस वो ग़ज़ल याद हो आई - मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी।

 


Saturday, 19 June 2021

गाँव

गाँव, देहात मुझे बचपन से ही अच्छे लगते हैं। विडम्बना ये है कि मेरा कोई गाँव ही नहीं है। अधिकतर लोग अपने गाँव जाते हैं। और मैं बचपन से ही सोचता हूँ कि हमारा कोई गाँव क्यों नहीं है। वैसे अब तो अधिकतर गाँव भी कस्बों में तब्दील हो गये हैं। और उनमें गाँव जैसी कोई बात बची नहीं। जीवन शैली में परिवर्तन हुआ है। आधुनिकता का राक्षस गाँवो की सरलता को निगल गया है। जो कुछ बचे खुचे गाँव बचे हैं, वहाँ भी राजनीति प्रवेश कर गई है। मूलभूत सुविधाओं से हीन ऐसी जगहों में कौन रहेगा और क्यों रहेगा। आजकल अजमेर आया हूँ। आज समधी जी के साथ गाँव जाना हुआ। सोचा इसे लिपिबद्ध कर लूँ जिससे स्मृति ताज़ा बनी रहे।

सुबह साढ़े आठ बजे समधी साहिब गाड़ी ले मुझे लेने आ गए। उनके साथ उनकी बड़ी बहू और पोती भी थीं। गाड़ी ड्राइवर चला रहा था और मैं आगे की सीट पर बैठा था। अजमेर की गलियों चौराहों से निकल कर हम जल्द ही ब्यावर राज मार्ग पर आ गए। मैंने पहली बार ड्राइवर को ध्यान से देखा। वह एक कम उम्र का लड़का था। काले रंग का जो मास्क उसने लगा रखा था वो नाक पर ऐसे लगा था कि मास्क दोनों और अच्छा खासा खुला हुआ था। मेरी समझ से ऐसा मास्क लगाना बस मास्क लगाने की औपचारिकता भर थी। उसका कोई लाभ नहीं होने वाला था। मेरे मन में आया कि इसे टोक दूँ, पर यँहा परिस्थिति भिन्न थी । अतः मैंने मौन धारण करना ही उचित समझा। 

गाड़ी अब राज मार्ग पर दौड़ रही थी और सीमित गति से आगे होने के कारण बार बार बीप कर रही थी। मैंने डिजिटल स्पीडोमीटर पर नजर डाली - हम 97-100 के बीच की गति पर थे। इतनी गति पर मैं असहज हो जाता हूँ। हम "तबीज़ी" गॉंव अपनी दायीं और छोड़ते "सराधना" की और बढ़ रहे थे । वैसे "सराधना" अहमदाबाद रेल मार्ग पर पड़ने वाला एक छोटा सा स्टेशन भी है। पर मेल एक्सप्रेस गाड़ियां यहां नहीं रुकती हैं। मील का पत्थर मुम्बई की दूरी 840 किलोमीटर दिखा रहा था। ये राज मार्ग 6 लेन का है और अजमेर से ब्यावर होते हुए जोधपुर जाता है। इसी से आगे उदयपुर, अहमदबाद होते हुए मुम्बई जाया जा सकता है।

"सराधना" से कोई डेढ़ किलोमीटर आगे हम अपने हाथ को बाईं और जाते एक कच्चे रास्ते पर मुड़ गए। वहाँ न कोई बोर्ड था और न ही किसी प्रकार का संकेत चिन्ह ही था जो यह दर्शाता हो कि ये रास्ता किसी गॉंव की और जाता है। मेरे जैसा बाहरी व्यक्ति तो ये स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि ये कोई रास्ता भी है। आगे उबड़ खाबड़ गड्ढों से भरा कच्चा रास्ता था। गाड़ी धीमी गति से हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी। दोनों और खेत थे जिन पर शायद बुआई हो चुकी थी। कीकर की कांटेदार झाड़ियों की बाढ़ उनकी सुरक्षा कर रही थी। दो एक चरवाहे मिले जो बकरियां चरा रहे थे। एक भीनी सी मिट्टी की महक पूरे वातावरण में व्याप्त थी। एक सन्नाटा जो बस गाड़ी के इंजन के शोर से भंग हो रहा था, चंहु और पसरा था। मैं दोनों और मन्त्र मुग्ध सा देख विभोर हो रहा था। एक तीतर गाड़ी के आगे आगे चल रहा था। जैसे ही उसे मार्ग मिला वो खेत में घुस गया।

 कुछ मोड़ और मुड़ कर गाड़ी एक पक्के मकान के सामने जा रुकी। मैं समझ गया कि गंतव्य आ गया है।  दरवाज़ा खोल ज्यों ही नीचे उतरा, बहती पवन ने स्वागत किया। अन्य सब भी गाड़ी से उतर गए थे। ये बहुत ही छोटा गाँव था। कोई 10-15 घर रहे होंगे। ये वो लोग दे जिनकी खेती यहाँ थी और  इन्होंने यहीं अपना बसेरा कर लिए जिससे खेती की देखभाल हो सके।  लोहे का दरवाज़ा खोल हम अंदर आये। मेज़बान समधी साहिब के सबसे छोटे भाई थे। गत अप्रेल में ही इन्होंने कोविड से अपनी धर्म पत्नी को खो दिया था। अचानक बड़े भाई को आया देख भाव  विवह्ल हो गए। आंखों में आँसू भर आये और गला रुँध गया। इतनी सरलता इतना विशुद्ध प्रेम आजकल शहरों में कहाँ देखने में आता है।  आप का अपना स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था। बेटा खेती बाड़ी संभालता है। टीन शेड के नीचे बिछे दो पलँगो पर हम बैठ गए। हवा बहुत अच्छी चल रही थी। सामने कुछ भैंसे बंधी थी। कुछ बकरियां भी एक बाड़े में बंद थी। भैंसों के कानों में लगे पीले रंग के बिल्ले मेरी उत्सुकता बढ़ा रहे थे। आखिर मैं पूंछ ही बैठा। उनके बेटे ने हंसते हुए बताया कि इन्हें भैंसो का आधार कार्ड समझिये। जानवर से सम्बंधित सारी जानकारी इस पर अंकित है। उन्होंने बताया कि एक मोबाइल एप्प भी है जिस पर ये कोड डालने से सारी जानकारी उपलब्ध हो जाती है। जानवर यदि खो जाए तो ये कोड उनके मालिक का अता पता सब मिनटों में उपलब्ध करा देता है। और बिना इस टैग के सरकार की और से मुफ्त मिलने वाली दवाइयां और टॉनिक भी नहीं मिलते। 

सामने नीबूं के कुछ पेड़ लगे थे। यहाँ ज्वार, बाजरा और शायद मक्का की खेती होती है। गेंदे और हज़ारे के फूलों की खेती भी ये लोग करते हैं। अब तक मैं गेंदे और हज़ारे के फूलों को एक ही जानता था। पर यहाँ मुझे पता चला कि दोनों में अंतर होता है। पानी के लिए अभी भी राजस्थान का किसान वर्षा पर निर्भर है। इस बीच नए कृषि कानून और किसान आंदोलन को लेकर भी चर्चा हुई। कुछ नए पहलू सामने आए। शहर में बैठे हम लोग शायद इन पहलुओं को एक अलग परिपेक्ष्य में देखें पर काश्तकार के नज़रिए से देखें तो कई नई बातें सामने आती हैं। मुझे यहां का आम किसान नए कृषि कानून के पक्ष में लगा।  

मेरी कृषि और बागवानी में रुचि है । वो अलग बात है कि अपनी बॉलकोनी में मैं फूल पत्ती उगाने में भी कभी सफ़ल नहीं हुआ। पर गॉंव मुझे आकर्षित करते हैं। मिट्टी की सौंधी महक मुझे खूब लुभाती है। हरी भरी खड़ी फ़सल के बीच बहती हवा मुझे एक अलग ताज़गी प्रदान करती है। सरकंडो के बीच से सायं सायं जब हवा बहती है तो मेरे कानों को एक मधुर संगीत सा लगता है। तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षी आस पास के झुरमुटों में अपना आशियाना बना लेते हैं। कहीं कहीं पेड़ो पर बया के घोंसलें लटके दिखते हैं जो हवा के साथ झूलते हैं। मन तो था कि कुछ घन्टे वहीं बैठ बतियाते रहें । पर समय न होने से लौटना पड़ा। उन्हीं टेढ़े मेढे उबड़ खाबड़ रास्तों से होती हमारी गाड़ी पुनः राज़मार्ग पर आ गई। मैंने मुड़ कर देखा, खेत और गॉंव कहीं दूर खो गए थे। बस उस छोर पर पहाड़ दिख रहे थे । हम एक बार फिर कंक्रीट के जंगल की और बढ़ रहे थे।

Sunday, 18 April 2021

नरेंद्र कोहली

मैं साहित्यकारों को बहुत कम ही जानता  हूँ। उन्हीं कुछ साहित्यकारों से परिचित हूँ जिन्हें मैंने अपने स्कूल या कॉलेज की पढ़ाई के दौरान पढ़ा। या फिर 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'सारिका, और 'कादम्बिनी'  के माध्यम से जिनकी रचनाएं मुझे पढ़ने को मिली।  युवावस्था में मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। और इसी के चलते मैंने कई पुस्कालयों की सदस्यता ले रखी थी। इनमें मंडी हाऊस पर स्थित हिंदी एकादमी भी शुमार थी। इतना सब होते हुए भी हिंदी साहित्यकारों का एक बहुत बड़ा वर्ग मुझसे अछूता रह गया जिनमें डॉ नरेंद्र कोहली एक हैं। या कहूँ एक थे। अभी हाल ही में कोरोना से उनकी जीवन लीला की इतिश्री हो गई। आज जब में उनकी 'स्मृति शेष' पढ़ रहा था तो लगा कि उनकी कृतियां मुझसे छूट कैसे गईं! किसी साहित्यकार की रचनाओं को उसके जीवन काल में पढ़ना और मरणोपरांत पढ़ना मेरे लिये दो अलग अलग बातें हैं। जब आप किसी की रचनाओं को उसके  जीवन काल मे पढ़ते हैं तो उसके जीवन के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा होती है क्योंकि आप जानते हैं कि किसी मोड़ पर आप उनसे मिल सकते हैं। पर बाद में तो उनकी रचनाएं समय के हस्ताक्षर ही रह जाते हैं जिन्हें आप पढ़ तो सकते हैं, पर उस हस्ताक्षर कर्ता से मिल नहीं सकते। बस जान सकते हैं कि उसने कैसा जीवन जिया होगा।  हर लेखक की अपनी एक कहानी होती है। अधिकतर वो  अभाव से उपजती है, समाज़ से उसके पात्र लिए जाते है और सामाजिक विसंगतियों का ताना बाना बुनकर लेख़क अपनी रचनाएं जनता है। मैंने आज ही जाना कि रामायण और महाभारत जैसी पौराणिक कथाओं को नरेंद कोहली ने आधुनिक परिपेक्ष्य में देखा और लिखा। उनकी रचित "दीक्षा" जिसका आधार श्री राम कथा थी, उस समय की पत्रिकाओं ने छापी नहीं। जब वो अपनी लागत से उस कृति को छपवाना चाहते थे तो पराग प्रकाशन इसे अपनी पूंजी से छपने को तैयार हो गया। अवसर मिला तो "दीक्षा" को पढूंगा जरूर।  अधिकतर डॉ कोहली दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य से जुड़े रहे। पर बाद में त्यागपत्र दे पूर्ण रूप से लेखन से जुड़ गए। अपने साहित्यक जीवन काल में उन्होंने न जाने कितने लोगों के जीवन को छुआ होगा और अपनी छाप छोड़ी होगी। पद्मश्री प्राप्त डॉ नरेंद्र कोहली यूँ तो अपनी महायात्रा पर निकल गए है, पर उनका रचित सहित्य जो समय के अमिट हस्ताक्षर हैं आनेवाले साहित्यकारों और पाठकों को सोचने पर विवश करता रहेगा। यदि किसी मित्र ने उन्हें पढ़ा हो तो अपनी समीक्षा साझा कर सकता है। 

Thursday, 15 April 2021

शिकारी

शिकारी 

रात से मेह बरस रहा था। घने जंगल में बारिश की आवाज़ भी डरावनी लगती है। रुक रुक कर बारिश हो रही थी। झींगुर की आवाज़ जंगल से लगातार आ रही थीं । यहाँ बिजली की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। मोमबत्ती या केरोसिन लैम्प से काम चलाना पड़ता था। मोबाईल चार्जिंग के लिए भी कार का ही सहारा था। वैसे भी यहाँ सिग्नल की समस्या थी। 

वो कल ही यहाँ आया था। शिकार का शौक उसे बीच जंगल में बने इस बंगले में खींच लाया था। मुंबई की इस भाग दौड़ भरी जिंदगी से वो कुछ दिन निज़ात भी पाना चाहता था। परसों ही की तो बात है। रात वो खाना खा कर बाहर बॉलकोनी में खड़ा धुंए के छल्ले उड़ा रहा था कि इन्दर का फ़ोन बज उठा। एक अंतराल के बाद इन्दर के फ़ोन से वो कुछ अचंभित था। उसने फ़ोन उठाया। दूसरी तरफ़ इन्दर था। 

बिना कोई भूमिका बाँधे उसने पूछा, "अगले सप्ताह क्या कर रहे हो?" उसने कहा, " कुछ ख़ास नहीं।" 
"तो आ जाओ पुराने बंगले पर। मैं भी कल ही पहुँचा हूँ। अकेले बोर हो रहा हूँ। शिकार का प्रोग्राम बनाते हैं।" इन्दर ने कहा था। 
"क्यों? अकेले क्यों? अवनी नहीं आई साथ?", वो जानता था कि इन्दर अवनी को साथ लिए बिना कहीँ खिसकता नहीं था।
"अरे कहाँ! वो मां बनने वाली है न । अपने मायके में है इन दिनों।"
"क्या बात है! ये तो अच्छी खबर है। आख़िर भगवान ने तुम्हारी सुन ही ली।"
"हाँ। कोई दस साल बाद।"
"चलो। देर से ही सही। तुम्हें तो पता है अवनी को कितना शौक है बच्चों का।"
"हम गोद लेने की सोच ही रहे थे तभी भगवान ने ये हमारी झोली में डाल दिया। फ़िर तुम आ रहे हो न?" इन्दर ने पक्का करना चाहा।
उसने कहा," सोचता हूँ।" 
"सोचना नहीं है,  बस सुबह चल देना है। तीन घँटे की तो ड्राइव है। मैं कल दोपहर के खाने पर इन्तज़ार करूँगा।" औऱ बिना उसके जवाब की प्रतीक्षा किये, इन्दर ने फ़ोन काट दिया था। 

उसने सोने से पहले कुछ कपड़े रखे और सोने चला गया। सुबह निकलना जो था। मुंबई से लोनावाला कोई सौ किलोमीटर की दूरी पर है। वैसे तो लोनावाला भी पेड़ो पर बनी मचानों के लिए प्रसिद्ध है । पर उसका गन्तव्य लोनावाला से भी आगे घने जंगल के बीच बना ये पुराना बंगला था, जो कभी किसी अंग्रेज़ ने बनाया था। बाद में अंग्रेज़ो ने इसे फॉरेस्ट विभाग के अधिकारियों के लिए बतौर रेस्ट हाऊस  प्रयोग किया। इन्दर के पुरखों ने इसे बाद में ख़रीद लिया था। तब से ये इन्दर के परिवार के पास ही है। वैसे आम दिनों में यहाँ एक चौकीदार के अलावा और कोई नहीं रहता। कभी कभार इन्दर यहाँ छुट्टियां बिताने आ जाता है। वो भी कई बार इन्दर के साथ यहाँ आ चुका था। सोचते सोचते पता नहीं वो कब सो गया। 

सुबह चिड़ियों के कलरव से उसकी आंख खुली। इन्दर उठ चुका था। उसने पूछा, "क्या लोगे? चाय या कॉफी?" "ब्लैक कॉफी " उसने कहा। पाउडर के दूध से बनी चाय या कॉफी उसे पसंद नहीं थी। इन्दर ने साथ आये कुक रामजी को दो ब्लैक कॉफी लाने को कहा। वो गाउन डाल कर बाहर आ गया। लॉन में पानी भरा था। जैसे ही वो आगे बढ़ा, इन्दर ने सावधान किया, "संभल कर। बिल में पानी भरने से साँप बाहर आ जाते हैं। जंगल बूट पहन कर ही निकलो तो अच्छा है।" 

बादल अभी भी छाए हुए थे। चारों तरफ झाड़ खंखाड़ उग आए थे। पिछली बार जब वो आया था ये सब नहीं थे। आस पास लगे पेड़ो से अभी भी हवा चलने पर पानी की बूंदे गिर रही थीं। रंग बिरंगी चिड़ियों से सारे पेड़ गुलज़ार थे। कुछ दूरी पर रुई के गोलों की तरह लाल लाल आंखों वाले ख़रगोश फुदक रहे थे। उनके बड़े बड़े कान खड़े थे। जरा सी आहट से वो नौ दो ग्यारह हो जाते। कॉफी सिप करते हुए वो प्रकृति की खूबसूरती देख रहा था। मानो जंगल मे सोलह श्रृंगार किये प्रकृति साक्षात उतर आई थी। मुंबई की चिल्ल पौँ से भरी जिन्दगी के मुकाबले यहाँ कितना सुकून था। तोतो का एक झुंड शोर मचाते हुए उसके ऊपर से गुज़र गया। 

"जल्द नाश्ता कर निकलेंगे शिकार को। मैंने बहादुर को कह दो राइफ़ल तैयार करा ली हैं।", इन्दर बोला। बहादुर यहाँ का केअर टेकर था। "रात जंगल में ही काटेंगे। बोन फॉयर करेंगे। मैंने जीप में टैंट और जरूरी सामान रख लिया है।", उसने आगे कहा। ग्यारह बजते न बजते वो निकल पड़े। इन्दर ने अपनी जीप में सारा आवश्यक समान रख लिया था। दोनों के पास लोडेड राइफ़ल थीं। कुक भी साथ था। जीप इन्दर ही चला रहा था। चारों तरफ फूल खिले थे। "आख़िर किसने लगाए होंगे ये पौधे!", वो सोच में था। प्रकृति भी क्या ही कमाल करती है। 

इन्दर इस इलाके से अच्छी तरह परिचित था। कच्चे ऊबड़ खाबड़ जंगली रास्ते पर जीप हिचकोले खाती बढ़ी जा रही थी। " यहाँ बाघ भी हैं क्या?", उसने शंका जाहिर की। "अरे नहीं। बाघ यहाँ कहाँ?  हाँ, हाथी, भालू या जंगली सूअर से कभी कभी आमना सामना हो जाता है।", इन्दर ने कहा। "और हमें तो हिरण चाहिए शिकार के लिए। वो यहाँ बहुतायत में हैं।", इन्दर ने आगे कहा।

एक स्थान पर आकर इन्दर ने जीप रोक दी। "ये जगह कैसी रहेगी रात काटने के लिए?",उसने पूछा। "बढ़िया है। सामने पानी का स्रोत भी है।" उसने जवाब दिया। उन्होंने जगह साफ़ कर टेंट लगा दिया। ठीक सामने पहाड़ था जो हरियाली से भरा था। चारों तरफ ऊंचे ऊंचे ध्वजा से पेड़ खड़े थे। जब हवा उनसे होकर गुज़रती तो एक अलग तरह का संगीत बज उठता। आसमान अब साफ़ था। चमकते सूरज को देख कोई नहीं कह सकता था कि पिछली रात बारिश हुई थी। उन्होंने कुछ तीतर बटेर मारे और रात के भोजन की व्यवस्था की। सामने पानी का स्रोत्र था। दोपहर तो बातो में ही कट गई। शाम के चार बज रहे थे।सूरज पहाड़ के पीछे आ पहुंचा था। चिड़ियों का शोर पेड़ो पर शुरू हो चुका था। शाम को जानवर पानी पीने आते हैं। उन्हीं के इंतज़ार में दोनों मित्र अपनी अपनी राइफ़ल ले झाड़ियों में छिप गए थे।  सूर्य अस्ताचल पर आ गया था। तभी एक मृग का जोड़ा जंगल से निकला। सधे कदमों से वो पानी की और बढ़ रहा था। हवा में गन्ध लेते आशंकित से मृग और मृगी पानी तक आ पहुँचे।  मृगी पानी पी रही थी और मृग उसके साथ खड़ा चारो और गर्दन घुमा कर किसी आसन्न खतरे को भाँप रहा था। जब मृगी पानी पी चुकी तो मृग ने गर्दन नीची कर जल स्रोत्र से पानी पीना शुरू किया। मृगी उतनी चौकन्नी न थी। बस यही मौका था। इन्दर ने निशाना साधा और गोली चला दी। निशाना अचूक था। मृगी हवा में उछली और फिर निष्प्राण गिर पड़ी। पेड़ो से पक्षियों के झुंड चीख़ते हुए तितर बितर हो गए। पानी पीता मृग इस के लिए तैयार नहीं था। पलक झपकते ही वो कुलाचे भरता ओझल हो गया। 

दोनों मित्र राइफलें कँधे पर लटकाए झाड़ी से बाहर आये। इन्दर के मुख पर विजय की मुस्कान थी। रामजी भी उनके साथ था। वो मृत मृगी के पास पँहुचे। सूर्य अब लाल चटक रंग के गोले में बदल चुका था। उसकी लालिमा से बहता पानी लाल हो लहू सा लग रहा था। इन्दर ने पास जा कर मृत हिरणी का मुआयना किया। ये एक बहुत सुंदर हिरणी थी। गोली गर्दन के पास से होती हुई उसके शरीर में धंस गई थी। उसे लगा कि वो गर्भिणी थी। उसने अपनी शंका इन्दर पर जाहिर की। इन्दर ने उसके शरीर को ध्यान से देखा और कहा हाँ ये माँ बनने वाली थी। 

"ये ठीक नहीं हुआ इन्दर!" ,उसने बस इतना ही कहा। इन्दर कुछ नहीं बोला। 

साथ लाई रस्सी से उसके पैरों को बांध उन्होंने उसे बाँस पर लटका दिया। औऱ उठा कर टैंट तक ले आये। टैंट के बाहर उन्होंने उस मृत हिरणी को डाल दिया। दिन अब तक ढल चुका था। कुक जंगल से एकत्रित लकड़ियों को जलाने लगा। रात के भोजन की भी तैयारी करनी थी। दोपहर को मारे गए दो तीतर उठा कुक उन्हें साफ़ करने चला गया। दोनों मित्रों ने जाम भर लिए। खुले आकाश के नीचे जलते अलाव के पास बैठ दौर पर दौर चलने लगे। पुराने समय को याद करते करते अंधेरा पूरी तरह छा गया था। पक्षी भी अपने अपने नीड़ों में लौट चुके थे। अमावस्या अभी गई ही थी। तारे आकाश में और जुगनू पेड़ों पर प्रकाश कर रहे थे। तभी उनकी नज़र अंधेरे में चमकती दो आँखों पर पड़ी। जानवर कुछ ही दूरी पर था। उसने अपनी राइफ़ल तान ली। इन्दर ने रुकने का इशारा किया और टॉर्च की लाईट उस दिशा में डाली। ये एक हिरण था। 
"यह शायद वही हिरण है जो शाम इस हिरणी के साथ था।", उसने कहा। इन्दर ने उसे भगाना चाहा पर वो जाने को तैयार नहीं था। जैसे ही ये दोनों खाना खाने अंदर गए, वोअपनी प्रयेसी के निष्प्राण शरीर के पास आ कर बैठ गया। रात भर वो वहीं बैठा रहा और उसे उठाने का प्रयत्न करता रहा।

अल्ल सुबह जब वो टैंट से बाहर आया तो उसने उसे वहीं बैठा पाया। उसकी बड़ी बड़ी आंखों से अश्रु अभी भी बह रहे थे। उसे ये सोचकर अच्छा लगा कि उसकी इस हालत के लिए वो उत्तरदायी नहीं था। तभी इन्दर अँगड़ाई लेता बाहर आया। "ये अभी तक गया नहीं! इसे तो मैं देखता हूँ। अब इसकी बारी है। स्वयं ही शिकार होने चला आया।"
इन्दर अपनी राइफ़ल उठा लाया था।
"इन्दर ये मेरा शिकार है। तुम इस पर गोली नहीं चलाओगे।" उसने कहा। उसकी आवाज़ में रूखा पन था।
"चलो ये ही सही। नाराज़ क्यों होते हो?  लगाओ निशाना।" इन्दर ने राइफ़ल उसकी और बढ़ाते हुए कहा। उसने राइफ़ल पकड़ी और भूमि पर टिका दी। " नहीं , मैं इसे नहीं मारूँगा। ये तो अपनी प्रयेसी के वियोग में पहले ही मरा हुआ है। देखते नहीं इसे मृत्यु का किंचित भी भय नहीं है। मैनें इसे जीवनदान दिया।" 
इन्दर ठठाकर हँस पड़ा। "शिकारी और दया! ये विरोधाभास कैसे?"
उसने कोई जवाब नहीं दिया।

जब वो चलने लगे तो उन्होंने मृत हिरणी को जीप में डाल दिया। वो मृग अभी भी कुछ दूरी पर खड़ा था। 
"रामजी, इसे भगाओ यँहा से।" इन्दर ने कुक से कहा।
"बहुत कोशिश की मालिक। ये जाता है नहीं है।"
"चलो छोड़ो इसे। समान लोड करो।" इन्दर ने कहा और रामजी बिखरा समान समेट कर जीप में रखने लगा।

जैसे ही जीप आगे बढ़ी वो हिरण उसके पीछे पीछे चलने लगा। जीप इन्दर ही चला रहा था। "मालिक, ये हिरण पीछे पीछे आ रहा है।" रामजी जो पीछे बैठा था उसने कहा। 
इन्दर ने गति बढ़ा दी। "देखते हैं कहाँ तक पीछा करेगा।" 
हिरण भी अब दौड़ रहा था। कैसे भी हो वो अपनी प्रयेसी को उनसे लेना चाहता था।पक्की सड़क न होने की वजह से गति एक सीमा से आगे नहीं बढ़ाई जा सकती थी। कुछ दूर जाने के बाद, उसने पूछा, "रामजी! क्या अभी भी वो पीछे भाग रहा है?"
"नहीं मालिक। अब तो नहीं दिख रहा है।"
"चलो। पीछा छूटा।" इन्दर ने कहा।
तभी पास के जंगल से निकलकर एकाएक वो हिरण जीप के आगे कूद गया। इन्दर ने ब्रेक लगाए पर तब तक जीप की जोरदार टक्कर ने उसे हवा में उछाल दिया। उसका मृत शरीर जीप से कुछ दूरी पर जा गिरा था। 
इन्दर ने रामजी के साथ मिलकर उसे रास्ते से हटा जंगल मे किनारे पर डाल दिया। जीप फिर बढ़ चली। उसे वितृष्णा सी हो आई।

मुम्बई पहुँच कर उसने इन्दर को ये जानने के लिए फोन किया कि इन्दर ठीक से पहुँच गया था। इन्दर की आवाज़ कुछ रुआँसी सी लगी उसे। बिना किसी भूमिका के इन्दर ने कहा, " यार! अवनी नहीं रही।"
"क्या! कैसे?"उसका मुँह खुला का खुला रह गया।
"मायके में थी। सीढ़ियों से पैर फिसल गया। सीधी नीचे आ गिरी। सिर में चोट थी। खून इतना बह गया कि अस्पताल जाते जाते रास्ते में ही...." इन्दर का गला रुँध आया था। दो दीपक एक साथ बुझ गए थे।
मृत हिरण की बड़ी बड़ी आँखे और उनसे बहते आँसू उसकी नज़र का सामने तैरने लगे।
कुछ समय बाद उसने सुना कि इन्दर ने भी ऑफिस बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर ली।

© आशु शर्मा

Sunday, 21 March 2021

सरकारी बनाम निजी

अभी कुछ दिन पूर्व ही हम मित्रों में चर्चा चल रही थी। कुछ का कहना था कि सरकार देश बेच रही है। सरकारी उपक्रमो में, जिनमें ऐसे उपक्रम भी सम्मिलित है जो मुनाफ़े में हैं, सरकार विनिवेश कर रही है; अपनी हिस्सेदारी कम कर रही है। मैंने कहा कि इसमें क्या बुरा है?  बोले देश पुनः गुलाम हो जाएगा। मैंने पूछा कैसे ? तो जवाब मिला कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) को देश में लाया जा रहा है जिससे पैसा बाहर जाएगा। मैंने कहा कि किसी भी सरकार का काम होता है नीतियां बनाना।  न कि रेल चलाना, बसे चलाना, बैंक चलाना, टेलीफोन कम्पनियां चलाना या फिर ऐसे ही अन्य कार्य करना। किसी भी विकसित देश को ले लो, वँहा की सरकार नीति निर्धारण का काम करती है बाकी कार्य तो सब निजी क्षेत्र के पास है। हाँ, सरकार को नियामकों (रेगुलेटर्स) को जरूर अपने पास रखना चाहिए, जिससे इन निजी क्षेत्रों पर कुछ हद तक नियंत्रण रखा जा सके जिससे ये मनमाने तरीके से जन सामान्य का दोहन न कर सकें। तो इस पर कुछ मित्रों का विचार था कि ये पूंजीवादी सोच है। खैर, इस चर्चा को रखने का उद्देश्य इतना ही था कि सरकारी और निजी कंपनियों के कार्य करने के तरीके की भूमिका तैयार की जा सके।

चलिए इस अंतर को एक परिदृश्य से समझते हैं। मेरे निजी अनुभव है कोई काल्पनिक घटना नही । बात कर रहा हूँ सरकारी टेलीफ़ोन कम्पनी की और निजी टेलीफ़ोन कम्पनी की। मेरे घर पर कुछ वर्ष पूर्व सरकारी टेलीफोन कम्पनी का फ़ाइबर कनेक्शन लगा था। सरकारी इसलिए लेना पड़ा कि उन दिनों निजी कंपनियों का फ़ाइबर मेरे क्षेत्र में उपलब्ध नहीं था। खैर एक फॉर्म भरना पड़ा। कुछ मॉडम की सिक्योरिटी राशि जमा करवाई। कुछ दिन के बाद कनेक्शन डाल के एक मॉडम दे दिया गया। उसमें बस पॉवर की LED हरी थी। बाकी डेटा LED लाल जलती रही। कई दिन बाद कुछ लोग आए, कुछ कुछ करते रहे जिससे बाकी LED भी अब हरी हो गईं। पर नेट नहीं चल रहा था। जो व्यक्ति आये थे उन्हें शायद उतनी तकनीकी जानकारी नहीं थी । खैर, एक साहब आये और कम्प्यूटर या लैपटॉप मांगा और IP एड्रेस, गेटवे एड्रेस डाल कर नेट चलाया। मैंने कहा कि ये तो वायर्ड कनेक्शन है मुझे तो wifi राऊटर चाहिए जिससे में वायरलैस नेट चला सकूँ। तो पता चला कि कम्पनी तो वायर्ड ही उपलब्ध कराती है। वायरलैस चाहिए तो अपना राऊटर खरीदिये। मैंने अमेज़न से 1200 रुपये का सस्ता सा wifi राऊटर मंगाया और स्वयं ही कॉन्फ़िगर कर चालू किया। FFTH का ये कनेक्शन जब तक चलता, स्पीड के मामले में घिसट घिसट कर चलता। और जब भी LED लाल हो जाती तो कभी भी सप्ताह से पहले ठीक नहीं होता। शायद ही कभी 35-40  mbps से अधिक स्पीड मुझे मिल पाई हो। इसके साथ जो एक लैंडलाइन टेलीफोन कनेक्शन दिया गया उसमें लाइन पर इतना शोर था कि आपके कान में समस्या हो जाये। तो लैंडलाइन उपकरण उठा कर रख दिया। आप चाहे व्हाट्सएप्प वीडियो कॉल करें या प्राइम/नेटफ्लिक्स देखना चाहें, स्ट्रीमिंग इतनी स्लो कि आप फ़िल्म कम और स्क्रीन पर चक्र घूमता ज़्यादा देखेंगे। और भुगतान के मामले में, तो तीन महीने का अग्रिम रेंटल आप से ले लिया जाता। एक दिन भी पेमेंट में देरी हो जाये तो 100 रुपये सीधा लेट फ़ी के आप पर थोप दिए जाते थे। आपका कनेक्शन चाहे 10 दिन डाउन पड़ा रहे उसकी कोई रिबेट आपको नहीं दी जाती थी। वो तो जब तक एक परिचित तीस हजारी एक्सचेंज में थे, फोन पर लिहाज़ कर शिकायत अटेंड करवा देता थे। जब से वो रिटायर हुए, तब से तो शिक़ायत कई कई दिनों तक "पेंडिंग एट FOD" में ही पड़ी रहती थी। 13 तारीख़ को शिक़ायत दर्ज कराई थी आज 20 तारीख़ को जब तक मैं तंग आ कर कनेक्शन ही कटवा चुका था, एक सज़्ज़न पूछने आये थे कि नेट चल रहा है क्या?

अब देखिए निजी कम्पनी की एक झलक! मैंने रात फोन किया कि मुझे एक कनेक्शन लगवाना है। क्या प्लान्स हैं? तुरन्त मेरे व्हाटसअप पर सारे प्लान्स की डिटेल भेज दी गई। मैंने पूछा ,कब तक लग जायेगा तो बोले जब आप कहें। मैंने पूछा कल लग सकता है क्या? बोले बिल्कुल। मैंने कहा पर मैं तो साढ़े आठ तक निकल जाता हूँ। तो बोले कल आठ बजे मैं आपसे मिलता हूँ। अंतर देखिए सरकारी टेलीफोन कम्पनी में आपको जाने पर भी 11 बजे तक भी कोई अटेंड कर ले तो भाग्यशाली समझिये अपने आप को। ठीक 8 बजे सुबह, वो व्यक्ति मेरे दरवाज़े पर था। मैंने सोचा कोई फॉर्म भरवायेगा और मुझे देर होगी। पर उसने मेरा आधार कार्ड मांगा। मेरी एक फोटो अपने मोबाईल से ली। एक OTP जो मेरे मोबाईल पर आया था , मांगा और कहा कि आपके मोबाईल पर पेमेंट लिंक आया होगा। मैंने लिंक पर जा भुगतान किया और दस मिनट में वो जा चुका था। मैं ठीक समय पर ऑफिस निकल गया। मैं अभी लिफ़्ट में ही था कि टेक्नीशियन का फ़ोन आया कि मैं आपकी कॉलोनी में हूँ। कनेक्शन लगाना है। कोई 12 बजे तक कनेक्शन लगा, चालू कर वो चला गया। शाम को मैं आया तो देखा मेरा राउटर एक तरफ पड़ा है। और एक सुंदर सा ड्यूल बैंड मॉडम-कम- wifi राऊटर लगा हुआ था। 5G बैंड पर स्पीड 200 mbps+ आ रही थी। और कोई सिक्योरिटी नहीं। लागत सरकारी से थोड़ी कम। 

इधर सरकारी टेलीफोन एक्सचैंज में जब मैंने किसी को कनेक्शन सरेंडर करने के लिए, मॉडम और फ़ोन इंस्ट्रूमेंट के साथ भेजा तो एक्सचेंज ने लेने से मना कर दिया क्योंकि सम्बन्धित कर्मचारी साइट पर था। किसी भूतपूर्व अधिकारी से फ़ोन करवाया तब कहीं जाकर वो समान जमा हो सका। उस पर मेरा पैन कार्ड मांगा गया। मेरी समझ नहीं आ रहा कि कनेक्शन काटने में पैन कार्ड का क्या काम ?  सिक्योरिटी रिफंड के बारे में पूछने पर एक माह बाद आने को कहा गया। वो व्यक्ति तो सामान जमा कराने गया था सुबह 10 बजे से वहाँ धक्के खाता रहा और तीन बजे वापस आ पाया। अब ऐसे विभाग को क्या कहें जो अपना सामान लेने में ही आनाकानी कर रहा है। किसके पास इतना समय है जो इनके चक्कर लगाए! इन्हें तन्खाह समय से पूरी मिल जाती है। इन्हें कोई मतलब नहीं कि ग्राहक परेशान हो रहा है या हमें छोड़ जाएगा। इनकी बला से सारे ग्राहक ही निजी ऑपरेटर के पास चले जायें। इसकी विपरीत , आप अपना मोबाईल नम्बर एक निजी सेवा दाता से दूसरे निजी सेवा दाता के पास पोर्ट करा कर तो देखिए, ऐसे चिरौरी करेंगे मानो उनकी जॉब ही जा रही हो। ये अंतर है ,सरकारी में और निजी क्षेत्र में।

ऐसे ही बैंक के मेरे पास कई अनुभव है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की सेवाएं, उनके कर्मचारियों का व्यवहार तो इतना खराब है कि क्या बतायें। ये ठीक है कि सभी सरकारी कर्मचारी ख़राब नही होते। मैंने भी सरकार में सेवाएं दी हैं। परंतु ये भी सत्य है कि अधिकतर विभागों में स्थितियां खराब है विशेषकर उन विभागों में जहाँ जन सामान्य को इन सरकारी विभागों से कम पड़ता है।

अब सरकार ठीक कर रही है या गलत, ये बहस बेमानी है। सत्य तो ये है कि आम आदमी को इन भृष्ट, कामचोर सरकारी कर्मचारियों से मुक्ति चाहिए और निजीकरण के अलावा इसका कोई विकल्प नहीं है।

Thursday, 18 March 2021

चौकीदार

रात अभी बीती ही थी। भोर का तारा आसमान पर चमकते हुए कुछ फीकी चमक लिए उदित ही हुआ था। चाँद पश्चिमी दिशा की और अग्रसर था। अल्ल सुबह उठने वाले पक्षी भी अपने अपने नीड़ों में अकुला रहे थे। थके कदमों से वो भी घर की ओर चले जा रहा था। पूरी रात डंडा खड़कता, सीटी बजाता वो थक चुका था। सुनसान सड़क पर उसके भारी जूतों की आवाज़ गूंज रही थी। सड़क के दोनों और लगे पेड़ो से ओस अभी भी टपक रही थी। उसने अपना कनटोप नीचे खींच कानों को पूरी तरह ढक लिया। ओवर कोट में अब गर्मी बाकी नहीं बची थी। बस दिखावे भर को था। उसने डंडा बगल में दबा कर दोनों हाथ कोट की जेब  में डाल लिए। अंदर पड़ी टॉर्च बर्फ जैसी ठंडी थी। कुछ कुत्ते उसके पीछे पीछे चल रहे थे। शुरू शुरू में तो इन कुत्तों ने उसे बड़ा तंग किया था। पर अब तो अच्छे से पहचानते हैं। मानो रात में उनके साम्रज्य में उन्होंने इस बूढ़े की उपस्थिति स्वीकार कर ली थी। वो उस पुलिया पर आ चुका था जिसके पास पोखर था। ये जगह उसे वर्षो से अच्छी लगती थी। पोखर में जब कमल खिलते तो वो देर तक उन्हें निहारा करता। ये पोखर सिंघाड़ों के लिए भी जाना जाता था। जब वो युवा था तो औरों के साथ मिल कर खूब सिंघाड़े निकालता था इस पोखर से। ऊपर से हरे और अंदर से दूधिया सिघाड़े का स्वाद याद आते ही उसके मुंह मे घुल गया। उसकी जिव्हा ने उस स्वाद को वास्तव मे महसूस किया होगा तभी वो ऐसे मुँह चलाने लगा मानो सिंघाड़ा चबा रहा हो। आगे लम्बी सड़क थी। उसने जेब टटोली और मुसा तुसा बीड़ी का बंडल निकाला। बामुश्किल एक बीड़ी उस बंडल से मिल पाई। उसने कागज़ नीचे गिरा दिया और बीड़ी सूखे बेज़ान से होंठो में दबा ली। ऊपर की जेब से दियासलाई निकाल वो बीड़ी सुलगाने का उपक्रम करने लगा। दोनों हाथों से ओट कर उसने बीड़ी सुलगाई और जल्दी ज़ल्दी दो चार लम्बे कश लिए। बीड़ी का अगला भाग अंगारे की तरह दहकने लगा। तम्बाकू की चिर परिचित महक उसके नथुनों में प्रविष्ट हुई। उसने धुंआ उड़ा दिया। नाक पर लगे मोटे शीशों के चश्में को जो इस उपक्रम में नीचे खिसक आया था, उसने यथा स्थान चढ़ा दिया और चाल बढ़ा दी। पक्षियों का कलरव दोनों और लगे पेड़ो पर प्रारंभ हो चुका था। सड़क पर भी अब आवाजाही बढ़ गई थी। दूध वाले, अखबार वाले अपनी अपनी दिनचर्या पर निकल चुके थे। भोर का तारा भी अब नहीं दीख पड़ रहा था। मक्खन टोस्ट वाला अपनी साइकिल पर पीछे बंधे सन्दूक में मक्खन टोस्ट ओर अंडे लिए उसके साथ से गुजरा। एक फ़ीकी सी मुुस्कान से दोनों में दुआ सलाम हुई। "मक्खन लो ,टोस्ट लो, अंडे लो" की आवाज लगता वो आगे बढ़ गया। वो अपने घर के पास आ गया था। लकड़ी का टूटा पड़ा दरवाज़ा जो अहाते तक ले जाता था अधखुला पड़ा था। अहाते में आ कर उसने पारिजात के पेड़ पर शोर मचाती चिड़ियों को देखा। ये पारिजात का पेड़ भी कितने वर्षों से इस आंगन में है। प्रतिदिन फूलों की चादर से बिछ जाती है इसके नीचे अश्विन, कार्तिक में। सारा आहता खुशबू से भर उठता है उन दिनों। तब उसकी पत्नी जिंदा थी। उसी की ज़िद पर वो ये पारिजात का पौधा लाया था इस आँगन में रोप ने के लिए। अब ये पेड़ बन चुका है। कई बार वो हँसते हुए अपनी पत्नी से कहता था कि जैसे भगवान कृष्ण रुक्मणी को प्रसन्न करने के लिए इंद्र सभा से पारिजात लाये थे वैसे ही वो भी उसकी प्रसन्नता हेतु ये पारिजात का पौधा लाया है। तो वो हाथ नचा कर कहती थी, " आह आह! तो तुम अपने को भगवान कृष्ण समझते हो।" और वो भी कह उठता था ," तो तुम्हें भी तो देवी रुक्मणी कह रहा हूँ।" क्या समय था वो भी! जूते उतारते हुए वो सोचने लगा। कितना भरा पूरा घर हुआ करता था। चारों तरफ़ चहल पहल। और अब कितना सन्नाटा पसर गया है। एक एक करके सभी चले गए। कुछ भगवान के पास तो कुछ दूर परदेस, अपनी किस्मत आजमाने। रह गया तो वह ही। दो जून की रोटी कमाने के लिए उसने चौकीदारी का काम पकड़ लिया। वैसे भी रात में नींद तो अब आती नहीं। आँगन में लगे तुलसी चौरा के पास रखे घड़े से पानी निकालते हुए इसकी नज़र तुलसी चौरा पर गई। कितना जर्जर हो गया है ये बीते कुछ सालों में! कहाँ ये समय समय पर लाल गेरू से पुता होता था जिस पर सफ़ेद खड़िया से चित्रकारी की होती थी। रँगे पुते चौरा पर हरा भरा तुलसी का पौधा जिस पर रोज़ संध्या दीपक जगमगाता था, कितना भला लगता था। समय भी क्या क्या रंग दिखाता है जीवन में। ठंडे पानी से मुँह धोते हुए उसे कंपकपी हुई। अंगोछे से हाथ मुँह पोंछता हुआ वो भीतर आ गया। ठंडे पड़े चूल्हे को गर्म कर उसने चाय का पानी चढ़ा दिया। चाय पी कर वो थोड़ा सो लेना चाहता है। जब लोगो का आधा दिन बीत चुका होगा तो उसकी सुबह होगी। ऐसे ही आधी अधूरी जिंदगी काट रहा है वह। सब उसे चौकीदार के रूप में जानते है। उन्हें क्या पता कि बचा खुचा समय उसकी चौकीदारी कर रहा है। क्या पता वो कब समय को धता बताता हुआ धीरे से दबे पाँव निकल ले अपने अंतिम गन्तव्य की ओर।