Thursday, 29 December 2016

आदित्य - भाग 2

सर्पीली घुमावदार सड़क से होती बस मसूरी की तरफ बढ़ी जा रही थी। पहाड़ो पर चीड़ और देवदार के ऊँचे ऊँचे पेड़ लगे थे। कंही कंही ओक के पेड़ भी दिख पड़ते थे। धीमी गति से बस ऊपर चढ़ रही थी।एक तरफ पहाड़ तो दूसरी और गहरी खाई थी। कभी धूप खिल उठती थी तो कभी बदली छा जाती थी। हवा ठंडी और साफ़ होती जा रही थी। पहाड़ो के मौसम का कुछ ठीक नहीं रहता।इसलिए मैंने गर्म कपडे रख लिए थे। जल्दी ही बस मसूरी पंहुच गई। धूप का कंही नामो निशान नहीं था। वरन बूंदा बांदी शुरू हो चुकी थी।

बस से उतरते ही मैंने चारो और देखा। आदित्य और उसके साथ एक लम्बी, पतली सी लड़की कुछ दूरी पर खड़े थे। आदित्य अपनी पसंद दीदा पोशाक, सूट में था और लड़की ने हल्के आसमानी रंग की साड़ी पहनी थी। पीले रंग के छाते में वह खिल रही थी।

मुझे देखते ही आदित्य आगे बढ़ा। पीछे पीछे नीलिमा भी अपने छाते को उसके सिर के ऊपर करते हुए आगे बढ़ी।

"हाय बडी!, वेलकम टू क्वीन ऑफ़ हिल्स" आदित्य मेरे गले लगा।

"इनसे मिलो। ये नीलिमा है।" आदित्य ने मुझे नीलिमा से मिलवाया।

मैंने अब नीलिमा को पास से देखा। वह बेहद खूबसूरत थी। उसका नाम जरूर उसकी आँखों को देखकर रखा गया होगा। एकदम नीली आँखे थी उसकी। अब तक नीलिमा ने अपने बैग से निकाल कर एक छाता मुझे थमा दिया था।अब आदित्य नीलिमा की तरफ मुख़ातिब हुआ।

"और नीलू, इनसे मिलो। ये हैं रमाकांत। रमाकांत उपाध्याय।जिनके बारे में मैंने बताया था। कलियुग के हरिश्चंद्र हैं। लड़कियों में इन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है। घूस लेना ये महापाप मानते हैं। शराब, सिगरेट जैसे कोई शौक इन्होंने पाले ही नहीं।"

आदित्य बोलता ही जा रहा था।"अरे, जब धर्मराज के आगे खड़े होंगे तो क्या जवाब देंगें? कि दुनिया में जाकर क्या किया।"

"छी!अपने दोस्त के बारे में कोई ऐसे बोलता है?" अब नीलिमा बोली थी।"अच्छा तो मिस्टर रमाकांत जी ये बताइये कि हरिश्चन्द्र तो कभी  झूठ नहीं बोलते थे। फिर आपने उस दिन फोन पर मुझसे झूठ क्यों कहा था?"

"देखिये...." मैं बोलते बोलते अटक गया। "अच्छा ये बताइये मैं आपको भाभी कंहूँ या नीलिमा जी या नीलू जी?"

जवाब आदित्य ने दिया था। "नीलिमा कहो न। भाभी तो ये अभी बनी नहीं और नीलू नाम से तो मैं ही बुला सकता हूँ।"

"ठीक है। देखो नीलिमा उस झूठ के बारे में मैं पहले ही आदित्य से माफ़ी मांग चुका हूँ। अब तुम भी मुझे माफ़ कर ही दो।"

"चलो माफ़ किया।" कहते हुए वह खिलखिला उठी थी।

मैं सोच रहा था कि आखिर इस लड़की ने आदित्य में क्या देखा। उसका दांया हाथ तो...

"क्या सोच रहे हो?", आदित्य ने पूँछा तो मैं हड़बड़ा गया मानो उसने मेरे मनोभावों को पढ़ लिया था।

"कुछ...कुछ भी तो नही।"

अब तक चलते चलते हम माल रोड तक काफ़ी आगे आ गए थे। बूंदा बांदी जारी थी। नीलिमा और आदित्य एक छाते में थे। और मैं अपना बैग थामे दूसरे छाता पकड़ कर चल रहा था। पब्लिक लाइब्रेरी के साथ से थोड़ा नीचे जा कर एक छोटा सा कॉटेज था। लकड़ी का दरवाज़ा खोल कर एक छोटे से रास्ते से होते हुए नीलिमा हमें मुख्य दरवाजे तक ले आई। दोनों और घास लगी थी जो अभी अभी काटी गई लगती थी। छोटी छोटी क्यारियों में रंग बिरँगे फ़ूल लगे थे। बारिश अब रुक गई थी पर बादल बने हुए थे। नीलिमा ने बैग से चाबी निकाल कर दरवाज़ा खोला। शायद वह यँहा अकेली रहती थी।

"पापा किसी काम से "झारी पानी" तक गए हैं। शाम तक लौट आएंगे" - नीलिमा ने कहा।

हम अंदर बैठ गए। घर छोटा मगर सुसज़्ज़ित था। नीलिमा ने फायर प्लेस में आग जला दी थी और कॉफी ले आई थी। ठण्ड में कॉफी की उठती भाप से आदित्य के चश्मे पर ओस जम गई थी। वह अपना चश्मा साफ़ करने लगा।

"कल का क्या प्रोग्राम है?" चश्मा लगाते हुए आदित्य ने पूँछा था।

"कल शाम मेरी बर्थ डे पार्टी पर पापा हमारी सगाई अनाउंस करेंगे।" नीलिमा ने कहा था। "पर उससे पहले पापा तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।"

"अब भी कोई बात करनी बाकी है?" आदित्य ने पूँछा था।

"मैं क्या जानू। होगी कोई बात। तुम क्यूं घबरा रहे हो? मैं तो हूँगी न साथ" - नीलिमा ने कहा था।

इसके बाद हम अपने होटल चले आये थे। नीलिमा अपनी कार से हमे छोड़ने आई थी। "कार तो तुम अच्छी चला लेती हो।" मैंने कहा।

"पहाड़ो पर कोई भी ड्राइवर एक्सपर्ट नहीं होता। बस भगवान् ही आपके साथ होता है। वरन ये गहरी घाटियां आपको कब अपने में समा लें, पता नहीं।" नीलिमा ने कहा।

"अच्छा अच्छा। तुम ध्यान से जाना।" लौटते हुए नीलिमा से आदित्य ने कहा था। जब तक कार मुड़ नहीं गई थी, आदित्य वंही खड़ा रहा था। अंदर आते हुए वह बहुत खुश था। अपना नया सूट निकाल कर उसने मुझे दिखाया जिसे वह कल पहनने वाला था।

फिर कुछ ऐसा घटा जो अप्रत्याशित था। जिसकी कल्पना हम तीनों में से किसी ने नहीं की थी। अपने जन्म दिन का निमंत्रण देकर लौटते हुए, अगले दिन नीलिमा की कार नियंत्रण खो कर गहरी खाई में जा गिरी। बहुत खोजने पर भी नीलिमा का शव बरामद नहीं किया जा सका। अपने जीवन के 22 वर्ष पूर्ण करके नीलिमा उन्ही वादियों में खो गई जंहा वह पली बढ़ी थी।

आदित्य ये झटका सह नहीं पाया। उसे दिल का दौरा पड़ा और हेलीकाप्टर से एयर लिफ्ट करके उसे देहरादून और फिर दिल्ली लाना पड़ा। मैं उसके साथ ही था।

समय से चिकित्सा मिल जाने से आदित्य का जीवन तो बच गया पर उसके ह्रदय का एक हिस्सा सदा के लिए क्षतिग्रस्त हो गया।

क्रमशः

Tuesday, 27 December 2016

आदित्य - भाग 1

अभी सो कर ही उठा था कि मोबाइल पर मैसेज टोन बज उठी। "सुबह सुबह किसका मैसेज आ गया", बड़बड़ाते हुए मैंने मोबाइल उठाया। विवेक का मैसेज था-
"आदित्य एस्कॉर्ट में भर्ती है। हालात गंभीर है। मिल लो - विवेक" ।

पढ़ते ही सारी नींद काफ़ूर हो गई। धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। आदित्य से जुड़ी सभी बातें जहन में आने लगी।

आदित्य से मैं पहली बार कोई 30 वर्ष पहले मिला था। तब मेरी नई नौकरी लगी थी। ऑफिस में आये आज दूसरा दिन ही था। मैंने और विवेक ने साथ ही ज्वाइन किया था। हम गैलरी में जा रहे थे कि सामने से आदित्य आ गया। थ्री पीस नीला सूट, चमकते जूते, साथ में मैचिंग शर्ट, टाई, सूट पर लगा गुलाब का फूल, देवानंद जैसे गुफ्फे वाले बाल- एक सबसे अलग ही व्यक्तित्व था। हम समझे कोई उच्च अधिकारी है और अभी हमसे प्रश्न करेगा कि हम गलियारे में क्या कर रहे हैं।

तभी वो सामने आ कर रुक गया।.
"हाय, आई एम् आदित्य। आदित्य सक्सेना। अभी ज्वाइन किया है क्या?"
"हाँ"
"मैं भी बस करीब छः माह पहले ही यँहा आया हूँ। तुम लोग कँहा से हो?"
"दिल्ली से"
"पहली जॉब है?"
"हाँ। और तुम्हारी?" मैंने पूछा था।
"सभी बातें यहीँ करोगे क्या? चलो कैंटीन में बैठेंगे।"
कहते हुए, बिना हमारी "हाँ" सुने, वह कैंटीन की ओर बढ़ चला। हम भी उसके साथ ही लिए।

हम तीनों कैंटीन में आ कर बैठ गए। वँहा सेल्फ सर्विस थी। मैं काउंटर की तरफ जाने लगा तो आदित्य ने मुझे रोक दिया।
"तुम प्रिंस के साथ हो। टेबल पर ही आर्डर सर्व किया जायेगा।"

उसने इशारा किया तो वेटर भागा चला आया।
"गुड मॉर्निंग, प्रिंस। क्या लेंगें?"
हम दोनों आदित्य को देखते रहे और वो आर्डर देता रहा।
जल्द हो आर्डर सर्व हो गया। बिल आदित्य ने पे किया। "कीप द चेंज",उसने बड़े स्टाइल से कहा और बाहर की और चल दिया।

मैं और विवेक हतप्रभ थे। क्या कॉन्फिडेंस है! क्या एटीट्यूड है!

चाय के दौरान हुई चर्चा में मालूम चला कि आदित्य की पढ़ाई मसूरी के एक बोर्डिंग स्कूल में हुई थी। फिर उसने केमिस्ट्री में मॉस्टर की डिग्री ली और मसूरी में ही एक स्कूल में लैब असिस्टेंट लग गया। उसकी चाल ढाल, पहनावा, बोलने का अंदाज़ सभी में अंग्रेजियत झलकती थी।

"चलो, फिर मिलते हैं", कहते हुए मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। आदित्य ने अपने बायें हाथ से अपना दांया हाथ लगभग उठाते हुए आगे कर दिया। मैंने जब उसे थामा तो एक छोटी सी बेजान ठंडी हथेली मेरे हाथ में थी। मैंने तुरन्त उसका हाथ छोड़ दिया।
"ये तुम्हारे हाथ को....", मैंने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
"जन्म से है।"उसका चेहरा भावहीन था। "अब तो आदत हो गई है। पता ही नहीं चलता। "

और हम अपने अपने विभाग में चले गए। पता नहीं क्यों, आदित्य में एक आकर्षण था। मेरी, आदित्य की और विवेक की खूब छनती थी। एक दिन मैंने पूँछ लिया, "ये सब तुम्हें प्रिंस क्यों कहते हैं?"

"शायद मेरे व्यक्तित्व के कारण । तुम्हें पता है मुझे ये नाम किसने दिया है?। कांता बाई ने।"

"कौन? जो पानी पिलाती है?", मैंने पूँछा।

"हाँ, वही। कहने को चपरासी है पर पहनावा देखा है उसका! कैसी सज धज कर आती है। विधवा है। पति की जगह लगी है। बच कर रहना उससे। किराये पर मकान दिखाने के बहाने घर ले जाएगी और एक बार इसके चक्कर में पड़े, तो आधी तन्खाह इसी को भेंट करनी पड़ेगी। वर्ना.....", आदित्य ने चेताया।

"अच्छा छोड़ो। ये बताओ तुम मसूरी जैसी जगह छोड़कर यँहा रेगिस्तान में क्यों आ गए?"

"हमारा यँहा पुशतैनी मकान है। पिता की खराब तबियत के चलते मुझे वो जॉब छोड़नी पड़ी। पिताजी चाहते थे कि जब वह अंतिम सांस लें तो उनका छोटा बेटा उनके साथ हो। बहनें तो अपने अपने घर चली गई। बड़े भैया ने तो पिता की मर्ज़ी के खिलाफ विवाह क्या कर लिया, पिताजी ने उन्हें मरा हुआ मान लिया। पर जब पिताज़ी का देहान्त हुआ तो मैं टूर पर दिल्ली गया हुआ था। आदमी का चाहा कँहा होता है।" वह दार्शनिक हो चला था।

"ओह", मेरे मुँह से निकला।

"यँहा के लोगो को तो कपडे तक पहनने नहीं आते। धोती पहन कर ऑफिस आ जाते हैँ। मैं टाई लगाता हूँ तो मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। मेरी केमिस्ट्री की मॉस्टर तक की पढ़ाई बेकार हो गईं। यही दो और दो चार करना था तो इतना पढ़ने की क्या जरूरत थी?"

"अब घर पर कौन कौन है",मैंने पूछा।

"माँ हैं और मैं हूं, बस।"
"शादी नहीं की?"
"कर लेंगें। जल्दी क्या है?"
"कोई लड़की देखी है क्या?
"मुझे कौन लड़की देगा?"
" क्यों? ऐसा क्यों कहते हो? " मैंने सोचा शायद विकलांगता कारण होगी।
"कोई और बात करो ",आदित्य ने बात टाल दी। मैंने भी कुरेदना उचित नहीं समझा।

आदित्य मेरी ज़िंदगी में क्या आया, मेरी तो दिनचर्या ही बदल गई। शाम देर तक ऑफिस क्लब में हम कैरम खेलते। फ़िल्म देखते। घूमते, फिरते। अक्सर देर रात तक आदित्य के घर पर गप्प गोष्टी जुड़ती। कहकहे गूंजते। गोट करते। हम तीनों मैं, विवेक और आदित्य रविवार के दिन अपनी अपनी साइकलों पर घूमने जाते। आदित्य को एक हाथ से साईकिल चलाने में महारथ हांसिल थी। हम तीनों एक साथ चलते। आदित्य बीच में रहता और हम दाएं बाएं। चलते चलते विवेक मेरी तरफ आ जाता और आदित्य बाईं और हो जाता। फिर विवेक चिल्लाता कि आदित्य अब हमारे बीच नहीं रहा। इस पर आदित्य जोर से हंसता, " सालों, इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नही छोड़ने वाला "

ऐसे ही हंसी ख़ुशी दिन निकल रहे थे।

एक दिन आदित्य ने पूँछा,"तुम्हारी कोई गर्ल फ्रेंड नहीं है क्या? " हम दोनों ने "न" में सिर हिलाया।

"धत तेरी की। एक एक लड़की तक नहीं पटा पाये। यँहा तो कोई मिलने से रही। मिल भी गई , तो इतना लंबा घूँघट होगा कि चेहरे तक पँहुचने में ही जवानी निकल जाएगी।"

विवेक ने पूँछा, "तुमसे पटी क्या कोई?"

"बिल्कुल। जिंदगी का कोई पहलू ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे प्रिंस ने न छुआ हो।"

"क्या नाम है?"
"नीलिमा। मेरे लिए तो नीलू है।"
"फ़ोटो दिखाओ।"
"फोटो में नहीं रखता।"
"बेबकूफ़ बनाने को हम ही मिले हैं?"
"अरे तुम मेरा विश्वास क्यों नहीं करते।"
"अच्छा, कँहा रहती है? क्या करती है?"
"मसूरी में उसी स्कूल में केमिस्ट्री पढ़ाती है, जँहा मैं लैब में था "
हम दोनों को उसकी बात का बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ।

इसी बीच हम तीनों का ट्रेनिंग के लिए दिल्ली आना हुआ। यंहा आदित्य की बहन रहती थी। वह वंही रुका था।

एक दिन बोला,"नीलू दिल्ली आई हुई है। आज शाम हम कॉफी हाउस में मिल रहे हैं।"

दिल्ली का पुराना कॉफी हाउस, रिवोली सिनेमा के साथ ही ऊपर चढ़ कर बना था। गर्मियों में शाम को लोग बाहर इसकी छत पर खुले में  बैठना ज्यादा पसंद करते थे। यँहा या तो प्रेमी जोड़े आते थे या फिर घर से खाली रिटायर्ड लोग। देश विदेश की राजनीति की यँहा गर्म जोशी से चर्चा होती। युगल जोड़े हाथ में हाथ थामे कोने की टेबल पर घण्टों न जाने क्या बतियाते रहते। न यँहा आने वाले ग्राहकों को कोई जल्दी होती थी और न ही बैरों को। आप से यँहा कोई जाने को नहीं कहता था।

"हम भी आ जायेंगे। हमे भी तो मिलवाओ।देखें तुम्हारी पसंद कैसी है।"

"दाल भात में मूसल चन्द । तुम लोग कदापि नही आओगे। वैसे भी वह थोड़ी रिज़र्व है।"

"पर हमें कैसे पता चलेगा कि तुम सच बोल रहे हो।"
"तुम लोगो को मेरा विश्वास नहीं है न? ये लो उसका नम्बर और पूँछ लो।",कहते हुए आदित्य ने झोंक में एक स्लिप पर एक नंबर लिख कर दे दिया।

लंच के दौरान मैंने फ़ोन मिलाया। दूसरी तरफ़ से किसी लड़की की आवाज़ थी।
"जी, कहिये। किससे बात करनी है?"
"नीलिमा जी से"
"कहिये, मैं नीलिमा बोल रही हूँ "
"जी देखिये, मुझे आपका  नम्बर आदित्य ने दिया है।"
"वो आज शाम को जो आपका उनसे मिलने का प्रोग्राम था, न।", मैं पक्का करना चाहता था कि यह वो ही लड़की है।
"जी, कहिये"
"वो कैंसिल हो गया है। आदित्य ने मुझे आपको बताने को कहा है"
"आप आदित्य से कहिये कि वो मुझे फोन करें"
"पर वह तो वापस जा चुका है।"
"ओह।"

इसी के साथ फोन कट गया। बेचारा आदित्य कॉफी हाउस में बैठा रहा। काफी देर तक इंतजार करने के बाद जब उसने नीलिमा को फोन किया तो दोनों में शायद काफी कहा सुनी हुई। रूठी नीलिमा नहीं आई। उसका कहना था कि गलती आदित्य की थी जो उसने उसका नम्बर अपने दोस्तों को दिया।

अगले दिन आदित्य आया। वह हमसे बहुत नाराज़ था। उसने हमारी एक नहीं सुनी। कोई महीना भर वह हमसे नहीं बोला। पर धीरे धीरे उसका गुस्सा शांत हुआ। इस बीच हम भी लगातार माफ़ी मांगते रहे। उसने कहा आगे से नीलिमा को लेकर कोई मज़ाक नहीं होगा।

ट्रेनिंग समाप्त करके हम लोग वापस आ गए। इसके कुछ दिन बाद ही मेरा और विवेक का तबादला दिल्ली हो गया। आदित्य से मिलना जुलना भी लगभग बंद हो गया था। उसका न होना मुझे शुरू में बहुत खला। फिर धीरे धीरे सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए। महीने में एक बार आदित्य सरकारी काम से दिल्ली आता था तो उसके हाल चाल मिल जाते थे।

ऐसी ही एक विज़िट पर जब वह मुझे मिला तो मैंने कहा कि अगले हफ्ते में किसी कार्य वश मसूरी जा रहा हूँ। नीलिमा को कोई उपहार या सन्देश देना हो तो मैं दे सकता हूँ।

"अरे, अगले सप्ताह तो मैं भी मसूरी में हूँ। नीलिमा का जन्म दिन है। मुझे अपने पापा से मिलवाने वाली है। वह फ़ौज़ में ब्रिगेडियर हैं।", आदित्य बोला।

"चल, तो बढ़िया है। अगले बुधवार को मैं देहरादून से सुबह की बस लूंगा। 9 बजे के आस पास मसूरी पंहुच जाऊंगा।"

"ठीक है  तुम कहो तो मेरे साथ ही रुक जाना। डबल बेड रूम बुक करा लेता हूँ।, मैं और नीलिमा तुम्हें बस स्टैंड पर मिल जाएंगे।", आदित्य ने कहा।

"ठीक है।"

"आज ऑफिस नहीं जाना है क्या?"- पत्नी की आवाज़ से मैं यादों से बाहर आ गया।

"नहीं। एस्कॉर्ट जाना है। आदित्य भर्ती है। हालत ठीक नहीं है। तुम एक कप चाय दे दो।"

"अरे। ये कब हुआ? वह तो मुम्बई थे न? दिल्ली कब आये?"

"जाकर ही पता चलेगा। तुम चाय  बना दो।"

पत्नी चाय बनाने चली गई और मैंने तकिये का सिरहाना लेकर आँखे बंद कर ली। यादें फ़िर उमड़ने लगीं।

....जारी है।
        

Sunday, 25 December 2016

सर्दी का एक दिन

सूरज तो आज भी समय पर निकल आया था पर दिल्ली के बादलों ने आज एका कर लिया कि देखें धूप कैसे नीचे आती है ? सारे बादल एकजुट हो गए और एक दूसरे से लिपट कर एक अभेद्य दीवार बना ली। बेचारी धूप, लाख प्रयत्न करके भी नहीं भेद पाई उस दीवार को और टंगी रही बादलों के पीछे। इंतज़ार करते करते सूरज डूब गया पर बादल डटे रहे। और दिल्ली के लोग इंतज़ार करते रहे धूप का थोड़ी गर्मी लेने के लिये, कुछ रौशनी के लिये और कुछ गीले कपड़े सुखाने के लिये। गृहणियों ने जो आचार , मुरब्बों के मर्तबान बालकॉनी में धूप के लिए रखे थे उन्हें वह वापस उठा लाई हैं। बादलों की इस हड़ताल से सर्दी ने फ़ायदा उठाया और अचानक से बढ़ गई। ठीक वैसे ही जैसे अपने प्रतिद्वंदी को कमज़ोर पा कर, सामने वाले का बल  बढ़ जाये। पर कुछ लोग जो घूमने के शौक़ीन होते हैं उन्हें इस से कोई अंतर नहीं पड़ता कि बाहर गर्मी है या कड़कड़ाती सर्दी। उन्हें तो बस घूमने से मतलब है। और फिर अगर उस दिन क्रिसमस हो तो ऐसे लोग कैसे रुक सकते हैं। पर अपने राम तो उन में से हैं नहीं। सुबह से जो कम्बल में घुसा हूँ, शाम हो गई वंही हूँ। मैंने तो कई बार कोशिश भी की कम्बल छोड़ने की पर कमबख्त कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ रहा है। बीच बीच में खिड़की का पर्दा हटा कर बाहर के मौसम का जायजा ले लेता हूं और फिर घुस जाता हूं कम्बल में। पास में रखा लंबा लैम्प जिस में टँगस्टन बल्ब, जो पीली रौशनी देता है लगा है गर्मी दे रहा है। अँधेरा घिर आया है। सोचता हूं बाहर शाम की सैर पर निकला जाय। आज सुबह भी सैर नहीं हो पाई। देंखें, पीपल के पेड़ तले आज दिया जला या नहीं। सन्ध्या-बाती का समय हो चला है। नारद जी भ्रमण करते होंगे। इस समय लेटना उचित नहीं। कॉफी तैयार है। एक कप पी कर बाहर निकलता हूँ।

Friday, 23 December 2016

अच्छी किताबें और कुपात्र

नव वर्ष पर दिल्ली मेट्रो की तरफ से 6 पुस्तकों का एक सेट अपने कर्मचारियों को उपहार स्वरूप दिया गया। सारी पुस्तके भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट की हैं और अध्यात्म पर हैं। इनके नाम हैं - 'पुनरागमन", "जन्म और मृत्यु से परे", "सर्वोत्तम योग पद्धति", "श्री उपदेशामृत", "कर्मयोग" और "पूर्ण प्रश्न पूर्ण उत्तर"।
इनमें से तीन पुस्तकें तो मेरी पढ़ी हुई हैं। शेष तीन मेरे लिए नई हैं। मैं समझता हूँ कि अच्छी पुस्तकें और पौध से बढ़िया उपहार नहीँ हो सकता। पर प्राप्त करने वाला भी सुपात्र होना चाहिये। कुपात्र के हाथ में तो अच्छी से अच्छी पुस्तक ऐसी ही है जैसे शराब में आप गँगा जल मिला दो तो वह भी शराब ही हो जाता है।

इस पर मुझे एक पुराना किस्सा याद आ गया। तब में रेलवे में था और हमारा एक साथी रिटायर हो रहा था। प्रश्र उठा कि सेवा निवर्ति पर क्या उपहार दिया जाय। किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ। वह व्यक्ति कुछ रंगीन मिज़ाज़ रखता था। मैंने सोचा कि एक अच्छी सी आध्यात्मिक पुस्तक उपहार में दी जाय जिससे जीवन की संध्या में इनका कुछ तो कल्याण हो । तो ये जिम्मेदारी भी मुझे ही सौंपी गई। मैं नई सड़क गीता प्रेस की दुकान पर गया और गीता पर "साधक संजीवनी" नामक टीका जिसे श्रधेय श्री राम सुख दास जी ने किया है, ख़रीद कर पैक करा लिया। अगले दिन रिटायरमेंट फंक्शन में मैंने उन्हें वह उपहार दिया और प्रार्थना की कि इसे आप कम से कम एक बार अवश्य पढ़े।

बहुत समय बाद एक दिन वह मुझे मिल गए। मैं अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाया। पूँछ ही लिया कि क्या उन्होंने वह पुस्तक पढ़ी? उन्होंने कहा कि बहुत मोटी पुस्तक थी और बीच बीच में से थोड़ी ही पढ़ी। मैंने कहा चलिये थोड़ी ही सही पर क्या आपने अपने जीवन में उसे पढ़ कर कुछ परिवर्तन महसूस किया?  बोले हाँ। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने पूँछा कि क्या परिवर्तन आया? बोले मैं जीवन में कभी मन्दिर नहीं गया। अब मैंने मन्दिर जाना शुरू किया है। मैंने सोचा चलो मुझसे जीवन में एक काम तो किसीके कल्याणार्थ हुआ। फिर पूँछा कि वँहा जाकर कैसा लगता है? बोले बस पूँछिये मत! वँहा इतनी सुन्दर सुन्दर महिलाएँ आती है कि कितना ही देखो, मन नहीं भरता।

कर लीजिये बात! मेरा सारा उत्साह ठंडा पड़ गया और मैंने कहा यदि बुरा न माने तो अगली बार जब भी आयें वो पुस्तक वापस लेते आइयेगा।

Tuesday, 20 December 2016

विवाह जो अब उत्सव नहीं रहा

मासी का विवाह तय हुआ था। बारात दिल्ली से आने थी। मकान के पिछले हिस्से में एक ख़ाली प्लॉट पड़ा था जिस में झाड़ खंखाड़ का जंगल उग आया था। आक के पेड़ , एक दो बेरी की झाड़, और चारो तरफ  जंगली घास फूस से भरा था वह प्लाट। उस के चारों और चार दीवारी थी जिसमें एक दरवाज़ा लगा था। हम बच्चो को उस और जाने की इजाज़त नहीं थी। कँही कोई साँप, बिच्छु न डस ले। हम मन मारे इधर ही खेलते थे।

शादी क्या तय हुई हमें तो वँहा जाने का मौका मिल गया। हमारा काम था उस जंगल को साफ़ करके उस जगह को शादी के लिए तैयार करना। बड़े बड़े जंगल बूट पहन कर हम बच्चो की टोली खुरपी,दरांती और फावड़ा लिये उस जंगल में उतर गई। क्या उत्साह था! कुछ ही दिन में जंगल को साफ़ करके एक समतल मैदान बना दिया गया। मिट्टी डाल कर जब वँहा पानी का छिड़काव किया गया तो सोंधी महक से सारा माहौल उत्सवमय हो गया। फिर बारी आई उस खुले मैदान के ऊपर रँग बिरंगी झंडिया लगाने की। उस समय की शादी में यही मुख्य सजावट होती थी। यह काम भी सहर्ष हम बच्चों ने अपने ऊपर ले लिया। सुतली के कई गोले मँगवाये गए। पतंग बनाने का पेपर भी कई रंगों का मंगवाया गया। वंही मैदान में ईंटो का चूल्हा बना कर अरारोट की लेई बनायीं गई। पतंग के कागज़ को तिकोने आकार में काटा और लेही से सुतली पर चिपकाते चले गए। इस तरह तैयार हो गई लंबी रंग बिरंगी बंदनवार जिसे बड़े बच्चो ने आमने सामने की दीवार के ऊपर कीले ठोक के बाँध दिया। अन्दर जाकर ऊपर देखने से उन झंडियों से पूरा स्थान भरा और बहुत सुंदर दीखता था। घर में महिलाएँ जुटने लगी थी। दिन भर कभी पापड़ बेले जाते तो कभी बड़िया बनाई जाती थी। संध्या को सब मिलकर सुललित स्वर में मंगल गीत गाती। ढ़ोलक की थाप पर घुंघरुओं का स्वर पुरे मोहल्ले में गूंज उठता और अन्य अड़ोस पड़ोस की महिलाओं को खींच लाता।

कुछ दिन पूर्व लाइटों की झालरों से घर को सजा दिया गया। तीन चार दिन पहले हलवाई ने उस मैदान में जिसे हमने साफ़ किया था, अपनी भट्टी लगा ली थी। एक छोटी सी छोलदारी हलवाई के लिए लगा दी गई थी।  तार खींच कर, एक बड़े बल्ब से उस स्थान को रौशन किया गया। अब बनने शुरू हुए पकवान। इससे पूर्व एक कोठियार निर्धारित किया गया। ये एक स्टोर होता था जिसमे कच्चा सामान और तैयार पकवान व् मिठाइयां रखी जाती थी। इस पर एक ताला लगा कर रखा जाता था जिसकी चाबी, जिसे कोठियार का जिम्मा सौंपा जाता था उसके पास रहती थी। इस कोठियार ने सर्व प्रथम गणपति स्थापित किये गए जिससे निर्विघ्न सब कार्य सम्प्पन हो और बरकत हो। उसी रात हलवाई ने बूंदी के लड्डू तैयार करे। रात देर तक हम बच्चे उसे घेर कर बैठे रहे। फिर मैदा के पकवान तैयार हुए। बड़े बड़े माठ जिनकी किनारियां गूँथ के उठा दी गयीं थी, कढ़ाई में लाल लाल सेके गए, मठरियां - फीकी व् नमकीन, लंबे लंबे नमक पारे, खस्ता कचौरियां, गुलाब जामुन, बर्फी, इमर्तियाँ और भी कई  तरह के नमकीन और मीठे पकवान हलवाई ने तैयार किये। इन्हें बड़े बड़े टोकरों में अखबार बिछा कर सावधानी से भरा गया। गुलाब जामुन टिन के कनस्तरों में चाशनी में डुबा कर रखे गए। पूरा कोठियार पकवानों के खुशबु से भर गया। फिर माँ - जो कोठियार की जिम्मेवारी सँभाल रही थी, कोठियार में बैठी। सभी में से थोड़ा थोड़ा भाग ले कर गणेश जी को भोग लगाया गया। फिर पितरो के निमित्त निकाला गया।
तभी एक व्यक्ति ढेर सारे पत्तल, दौने और कुल्हड़ ले आया। माँ ने उतरवा कर एक स्थान में रख दिए। रोज  सुबह शाम पंगत सजती। हम बच्चे भाग भाग कर  भोजन परोसते। गर्म पूड़ी, कचोरी, एक सूखी सब्ज़ी तो एक तरी वाली। साथ में बूंदी का रायता जो मिटटी के शकोरो में देते। मीठे के नाम पर मोटी बूंदी परोसी जाती। एक कुल्हड़ लगाता तो दूसरा पानी भरता जाता।  दो दिन ही पक्का खाना खा कर सब ऊब जाते और कच्चे खाने की फरमाइश होती। ऐसे में हलवाई दाल चावल, रोटी सब्ज़ी तैयार करता।

भागते दौड़ते विवाह का दिन आ पँहुचा। मासी को तेल चढ़ाया गया। हल्दी उबटन लगाया। मंगल गीत गाए गये। हाथों में मेहँदी, हरी चूड़ियां, पैरों में महावर और माथे पर रोली से खौल काढ़ा गया। बारात तो दो दिन पहले ही आ गई थी और जनवासे में ठहरी थी। शाम को मौसा जी घोड़ी पर चढ़ कर आये। बारातियों का स्वागत गुलाब का इत्र छिड़क के किया गया। गर्मियों के दिन थे। मगज़,खस,गुलाब की पत्तियां,काली मिर्च, इलायची, बादाम घोट कर दूध में बनी बर्फ में लगी ठंडी ठंडाई परोसी गई। पीने के पानी में केवड़े का इत्र डाला गया था। फिर सादे तरीके से जय माला संपन्न हुई। इसके बाद भोज का आयोजन किया गया। इसमें पांच श्रीदान (मिठाइयाँ) और पांच ही नमकदान (नमकीन) सम्मिलित थे।  रात्रि को फेरे हुए और सुबह मासी विदा हो गई। बारातियों को सुबह के नाश्ते में बेड़मी, आलू सब्ज़ी और गर्म हलवा परोसा गया। कुछ लोगो ने मिल कर दहेज का सामान बस की छत पर चढ़वा दिया। और बारात चली गई।

उसके बाद एक एक करके मेहमान भी विदा हो गए। पीछे बची माँ और हम बच्चे। और बची ढेर सारी मिठाइयां और नमकीन। जिसे हमने बहुत दिन तक खाया। सूखे लड्डू, रसभरी सूखी इमर्ति और गुलाब जामुन का स्वाद आज भी याद है।

आजकल के विवाहों में ये सब कँहा? मात्र एक दिन का आयोज़न होकर रह गया है। और उसमें भी आडम्बर बहुत है सादगी  कम। खर्च अधिक है, आनन्द कम। समय भी नहीं है किसी के पास आजकल। आधुनिकता की दौड़ में ऐसे उत्सवों की रौनक कँही खो गई है।