Sunday, 25 December 2016

सर्दी का एक दिन

सूरज तो आज भी समय पर निकल आया था पर दिल्ली के बादलों ने आज एका कर लिया कि देखें धूप कैसे नीचे आती है ? सारे बादल एकजुट हो गए और एक दूसरे से लिपट कर एक अभेद्य दीवार बना ली। बेचारी धूप, लाख प्रयत्न करके भी नहीं भेद पाई उस दीवार को और टंगी रही बादलों के पीछे। इंतज़ार करते करते सूरज डूब गया पर बादल डटे रहे। और दिल्ली के लोग इंतज़ार करते रहे धूप का थोड़ी गर्मी लेने के लिये, कुछ रौशनी के लिये और कुछ गीले कपड़े सुखाने के लिये। गृहणियों ने जो आचार , मुरब्बों के मर्तबान बालकॉनी में धूप के लिए रखे थे उन्हें वह वापस उठा लाई हैं। बादलों की इस हड़ताल से सर्दी ने फ़ायदा उठाया और अचानक से बढ़ गई। ठीक वैसे ही जैसे अपने प्रतिद्वंदी को कमज़ोर पा कर, सामने वाले का बल  बढ़ जाये। पर कुछ लोग जो घूमने के शौक़ीन होते हैं उन्हें इस से कोई अंतर नहीं पड़ता कि बाहर गर्मी है या कड़कड़ाती सर्दी। उन्हें तो बस घूमने से मतलब है। और फिर अगर उस दिन क्रिसमस हो तो ऐसे लोग कैसे रुक सकते हैं। पर अपने राम तो उन में से हैं नहीं। सुबह से जो कम्बल में घुसा हूँ, शाम हो गई वंही हूँ। मैंने तो कई बार कोशिश भी की कम्बल छोड़ने की पर कमबख्त कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ रहा है। बीच बीच में खिड़की का पर्दा हटा कर बाहर के मौसम का जायजा ले लेता हूं और फिर घुस जाता हूं कम्बल में। पास में रखा लंबा लैम्प जिस में टँगस्टन बल्ब, जो पीली रौशनी देता है लगा है गर्मी दे रहा है। अँधेरा घिर आया है। सोचता हूं बाहर शाम की सैर पर निकला जाय। आज सुबह भी सैर नहीं हो पाई। देंखें, पीपल के पेड़ तले आज दिया जला या नहीं। सन्ध्या-बाती का समय हो चला है। नारद जी भ्रमण करते होंगे। इस समय लेटना उचित नहीं। कॉफी तैयार है। एक कप पी कर बाहर निकलता हूँ।

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