अभी सो कर ही उठा था कि मोबाइल पर मैसेज टोन बज उठी। "सुबह सुबह किसका मैसेज आ गया", बड़बड़ाते हुए मैंने मोबाइल उठाया। विवेक का मैसेज था-
"आदित्य एस्कॉर्ट में भर्ती है। हालात गंभीर है। मिल लो - विवेक" ।
पढ़ते ही सारी नींद काफ़ूर हो गई। धम्म से बिस्तर पर बैठ गया। आदित्य से जुड़ी सभी बातें जहन में आने लगी।
आदित्य से मैं पहली बार कोई 30 वर्ष पहले मिला था। तब मेरी नई नौकरी लगी थी। ऑफिस में आये आज दूसरा दिन ही था। मैंने और विवेक ने साथ ही ज्वाइन किया था। हम गैलरी में जा रहे थे कि सामने से आदित्य आ गया। थ्री पीस नीला सूट, चमकते जूते, साथ में मैचिंग शर्ट, टाई, सूट पर लगा गुलाब का फूल, देवानंद जैसे गुफ्फे वाले बाल- एक सबसे अलग ही व्यक्तित्व था। हम समझे कोई उच्च अधिकारी है और अभी हमसे प्रश्न करेगा कि हम गलियारे में क्या कर रहे हैं।
तभी वो सामने आ कर रुक गया।.
"हाय, आई एम् आदित्य। आदित्य सक्सेना। अभी ज्वाइन किया है क्या?"
"हाँ"
"मैं भी बस करीब छः माह पहले ही यँहा आया हूँ। तुम लोग कँहा से हो?"
"दिल्ली से"
"पहली जॉब है?"
"हाँ। और तुम्हारी?" मैंने पूछा था।
"सभी बातें यहीँ करोगे क्या? चलो कैंटीन में बैठेंगे।"
कहते हुए, बिना हमारी "हाँ" सुने, वह कैंटीन की ओर बढ़ चला। हम भी उसके साथ ही लिए।
हम तीनों कैंटीन में आ कर बैठ गए। वँहा सेल्फ सर्विस थी। मैं काउंटर की तरफ जाने लगा तो आदित्य ने मुझे रोक दिया।
"तुम प्रिंस के साथ हो। टेबल पर ही आर्डर सर्व किया जायेगा।"
उसने इशारा किया तो वेटर भागा चला आया।
"गुड मॉर्निंग, प्रिंस। क्या लेंगें?"
हम दोनों आदित्य को देखते रहे और वो आर्डर देता रहा।
जल्द हो आर्डर सर्व हो गया। बिल आदित्य ने पे किया। "कीप द चेंज",उसने बड़े स्टाइल से कहा और बाहर की और चल दिया।
मैं और विवेक हतप्रभ थे। क्या कॉन्फिडेंस है! क्या एटीट्यूड है!
चाय के दौरान हुई चर्चा में मालूम चला कि आदित्य की पढ़ाई मसूरी के एक बोर्डिंग स्कूल में हुई थी। फिर उसने केमिस्ट्री में मॉस्टर की डिग्री ली और मसूरी में ही एक स्कूल में लैब असिस्टेंट लग गया। उसकी चाल ढाल, पहनावा, बोलने का अंदाज़ सभी में अंग्रेजियत झलकती थी।
"चलो, फिर मिलते हैं", कहते हुए मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। आदित्य ने अपने बायें हाथ से अपना दांया हाथ लगभग उठाते हुए आगे कर दिया। मैंने जब उसे थामा तो एक छोटी सी बेजान ठंडी हथेली मेरे हाथ में थी। मैंने तुरन्त उसका हाथ छोड़ दिया।
"ये तुम्हारे हाथ को....", मैंने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
"जन्म से है।"उसका चेहरा भावहीन था। "अब तो आदत हो गई है। पता ही नहीं चलता। "
और हम अपने अपने विभाग में चले गए। पता नहीं क्यों, आदित्य में एक आकर्षण था। मेरी, आदित्य की और विवेक की खूब छनती थी। एक दिन मैंने पूँछ लिया, "ये सब तुम्हें प्रिंस क्यों कहते हैं?"
"शायद मेरे व्यक्तित्व के कारण । तुम्हें पता है मुझे ये नाम किसने दिया है?। कांता बाई ने।"
"कौन? जो पानी पिलाती है?", मैंने पूँछा।
"हाँ, वही। कहने को चपरासी है पर पहनावा देखा है उसका! कैसी सज धज कर आती है। विधवा है। पति की जगह लगी है। बच कर रहना उससे। किराये पर मकान दिखाने के बहाने घर ले जाएगी और एक बार इसके चक्कर में पड़े, तो आधी तन्खाह इसी को भेंट करनी पड़ेगी। वर्ना.....", आदित्य ने चेताया।
"अच्छा छोड़ो। ये बताओ तुम मसूरी जैसी जगह छोड़कर यँहा रेगिस्तान में क्यों आ गए?"
"हमारा यँहा पुशतैनी मकान है। पिता की खराब तबियत के चलते मुझे वो जॉब छोड़नी पड़ी। पिताजी चाहते थे कि जब वह अंतिम सांस लें तो उनका छोटा बेटा उनके साथ हो। बहनें तो अपने अपने घर चली गई। बड़े भैया ने तो पिता की मर्ज़ी के खिलाफ विवाह क्या कर लिया, पिताजी ने उन्हें मरा हुआ मान लिया। पर जब पिताज़ी का देहान्त हुआ तो मैं टूर पर दिल्ली गया हुआ था। आदमी का चाहा कँहा होता है।" वह दार्शनिक हो चला था।
"ओह", मेरे मुँह से निकला।
"यँहा के लोगो को तो कपडे तक पहनने नहीं आते। धोती पहन कर ऑफिस आ जाते हैँ। मैं टाई लगाता हूँ तो मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। मेरी केमिस्ट्री की मॉस्टर तक की पढ़ाई बेकार हो गईं। यही दो और दो चार करना था तो इतना पढ़ने की क्या जरूरत थी?"
"अब घर पर कौन कौन है",मैंने पूछा।
"माँ हैं और मैं हूं, बस।"
"शादी नहीं की?"
"कर लेंगें। जल्दी क्या है?"
"कोई लड़की देखी है क्या?
"मुझे कौन लड़की देगा?"
" क्यों? ऐसा क्यों कहते हो? " मैंने सोचा शायद विकलांगता कारण होगी।
"कोई और बात करो ",आदित्य ने बात टाल दी। मैंने भी कुरेदना उचित नहीं समझा।
आदित्य मेरी ज़िंदगी में क्या आया, मेरी तो दिनचर्या ही बदल गई। शाम देर तक ऑफिस क्लब में हम कैरम खेलते। फ़िल्म देखते। घूमते, फिरते। अक्सर देर रात तक आदित्य के घर पर गप्प गोष्टी जुड़ती। कहकहे गूंजते। गोट करते। हम तीनों मैं, विवेक और आदित्य रविवार के दिन अपनी अपनी साइकलों पर घूमने जाते। आदित्य को एक हाथ से साईकिल चलाने में महारथ हांसिल थी। हम तीनों एक साथ चलते। आदित्य बीच में रहता और हम दाएं बाएं। चलते चलते विवेक मेरी तरफ आ जाता और आदित्य बाईं और हो जाता। फिर विवेक चिल्लाता कि आदित्य अब हमारे बीच नहीं रहा। इस पर आदित्य जोर से हंसता, " सालों, इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नही छोड़ने वाला "
ऐसे ही हंसी ख़ुशी दिन निकल रहे थे।
एक दिन आदित्य ने पूँछा,"तुम्हारी कोई गर्ल फ्रेंड नहीं है क्या? " हम दोनों ने "न" में सिर हिलाया।
"धत तेरी की। एक एक लड़की तक नहीं पटा पाये। यँहा तो कोई मिलने से रही। मिल भी गई , तो इतना लंबा घूँघट होगा कि चेहरे तक पँहुचने में ही जवानी निकल जाएगी।"
विवेक ने पूँछा, "तुमसे पटी क्या कोई?"
"बिल्कुल। जिंदगी का कोई पहलू ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे प्रिंस ने न छुआ हो।"
"क्या नाम है?"
"नीलिमा। मेरे लिए तो नीलू है।"
"फ़ोटो दिखाओ।"
"फोटो में नहीं रखता।"
"बेबकूफ़ बनाने को हम ही मिले हैं?"
"अरे तुम मेरा विश्वास क्यों नहीं करते।"
"अच्छा, कँहा रहती है? क्या करती है?"
"मसूरी में उसी स्कूल में केमिस्ट्री पढ़ाती है, जँहा मैं लैब में था "
हम दोनों को उसकी बात का बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ।
इसी बीच हम तीनों का ट्रेनिंग के लिए दिल्ली आना हुआ। यंहा आदित्य की बहन रहती थी। वह वंही रुका था।
एक दिन बोला,"नीलू दिल्ली आई हुई है। आज शाम हम कॉफी हाउस में मिल रहे हैं।"
दिल्ली का पुराना कॉफी हाउस, रिवोली सिनेमा के साथ ही ऊपर चढ़ कर बना था। गर्मियों में शाम को लोग बाहर इसकी छत पर खुले में बैठना ज्यादा पसंद करते थे। यँहा या तो प्रेमी जोड़े आते थे या फिर घर से खाली रिटायर्ड लोग। देश विदेश की राजनीति की यँहा गर्म जोशी से चर्चा होती। युगल जोड़े हाथ में हाथ थामे कोने की टेबल पर घण्टों न जाने क्या बतियाते रहते। न यँहा आने वाले ग्राहकों को कोई जल्दी होती थी और न ही बैरों को। आप से यँहा कोई जाने को नहीं कहता था।
"हम भी आ जायेंगे। हमे भी तो मिलवाओ।देखें तुम्हारी पसंद कैसी है।"
"दाल भात में मूसल चन्द । तुम लोग कदापि नही आओगे। वैसे भी वह थोड़ी रिज़र्व है।"
"पर हमें कैसे पता चलेगा कि तुम सच बोल रहे हो।"
"तुम लोगो को मेरा विश्वास नहीं है न? ये लो उसका नम्बर और पूँछ लो।",कहते हुए आदित्य ने झोंक में एक स्लिप पर एक नंबर लिख कर दे दिया।
लंच के दौरान मैंने फ़ोन मिलाया। दूसरी तरफ़ से किसी लड़की की आवाज़ थी।
"जी, कहिये। किससे बात करनी है?"
"नीलिमा जी से"
"कहिये, मैं नीलिमा बोल रही हूँ "
"जी देखिये, मुझे आपका नम्बर आदित्य ने दिया है।"
"वो आज शाम को जो आपका उनसे मिलने का प्रोग्राम था, न।", मैं पक्का करना चाहता था कि यह वो ही लड़की है।
"जी, कहिये"
"वो कैंसिल हो गया है। आदित्य ने मुझे आपको बताने को कहा है"
"आप आदित्य से कहिये कि वो मुझे फोन करें"
"पर वह तो वापस जा चुका है।"
"ओह।"
इसी के साथ फोन कट गया। बेचारा आदित्य कॉफी हाउस में बैठा रहा। काफी देर तक इंतजार करने के बाद जब उसने नीलिमा को फोन किया तो दोनों में शायद काफी कहा सुनी हुई। रूठी नीलिमा नहीं आई। उसका कहना था कि गलती आदित्य की थी जो उसने उसका नम्बर अपने दोस्तों को दिया।
अगले दिन आदित्य आया। वह हमसे बहुत नाराज़ था। उसने हमारी एक नहीं सुनी। कोई महीना भर वह हमसे नहीं बोला। पर धीरे धीरे उसका गुस्सा शांत हुआ। इस बीच हम भी लगातार माफ़ी मांगते रहे। उसने कहा आगे से नीलिमा को लेकर कोई मज़ाक नहीं होगा।
ट्रेनिंग समाप्त करके हम लोग वापस आ गए। इसके कुछ दिन बाद ही मेरा और विवेक का तबादला दिल्ली हो गया। आदित्य से मिलना जुलना भी लगभग बंद हो गया था। उसका न होना मुझे शुरू में बहुत खला। फिर धीरे धीरे सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए। महीने में एक बार आदित्य सरकारी काम से दिल्ली आता था तो उसके हाल चाल मिल जाते थे।
ऐसी ही एक विज़िट पर जब वह मुझे मिला तो मैंने कहा कि अगले हफ्ते में किसी कार्य वश मसूरी जा रहा हूँ। नीलिमा को कोई उपहार या सन्देश देना हो तो मैं दे सकता हूँ।
"अरे, अगले सप्ताह तो मैं भी मसूरी में हूँ। नीलिमा का जन्म दिन है। मुझे अपने पापा से मिलवाने वाली है। वह फ़ौज़ में ब्रिगेडियर हैं।", आदित्य बोला।
"चल, तो बढ़िया है। अगले बुधवार को मैं देहरादून से सुबह की बस लूंगा। 9 बजे के आस पास मसूरी पंहुच जाऊंगा।"
"ठीक है तुम कहो तो मेरे साथ ही रुक जाना। डबल बेड रूम बुक करा लेता हूँ।, मैं और नीलिमा तुम्हें बस स्टैंड पर मिल जाएंगे।", आदित्य ने कहा।
"ठीक है।"
"आज ऑफिस नहीं जाना है क्या?"- पत्नी की आवाज़ से मैं यादों से बाहर आ गया।
"नहीं। एस्कॉर्ट जाना है। आदित्य भर्ती है। हालत ठीक नहीं है। तुम एक कप चाय दे दो।"
"अरे। ये कब हुआ? वह तो मुम्बई थे न? दिल्ली कब आये?"
"जाकर ही पता चलेगा। तुम चाय बना दो।"
पत्नी चाय बनाने चली गई और मैंने तकिये का सिरहाना लेकर आँखे बंद कर ली। यादें फ़िर उमड़ने लगीं।
....जारी है।
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