Tuesday, 20 December 2016

विवाह जो अब उत्सव नहीं रहा

मासी का विवाह तय हुआ था। बारात दिल्ली से आने थी। मकान के पिछले हिस्से में एक ख़ाली प्लॉट पड़ा था जिस में झाड़ खंखाड़ का जंगल उग आया था। आक के पेड़ , एक दो बेरी की झाड़, और चारो तरफ  जंगली घास फूस से भरा था वह प्लाट। उस के चारों और चार दीवारी थी जिसमें एक दरवाज़ा लगा था। हम बच्चो को उस और जाने की इजाज़त नहीं थी। कँही कोई साँप, बिच्छु न डस ले। हम मन मारे इधर ही खेलते थे।

शादी क्या तय हुई हमें तो वँहा जाने का मौका मिल गया। हमारा काम था उस जंगल को साफ़ करके उस जगह को शादी के लिए तैयार करना। बड़े बड़े जंगल बूट पहन कर हम बच्चो की टोली खुरपी,दरांती और फावड़ा लिये उस जंगल में उतर गई। क्या उत्साह था! कुछ ही दिन में जंगल को साफ़ करके एक समतल मैदान बना दिया गया। मिट्टी डाल कर जब वँहा पानी का छिड़काव किया गया तो सोंधी महक से सारा माहौल उत्सवमय हो गया। फिर बारी आई उस खुले मैदान के ऊपर रँग बिरंगी झंडिया लगाने की। उस समय की शादी में यही मुख्य सजावट होती थी। यह काम भी सहर्ष हम बच्चों ने अपने ऊपर ले लिया। सुतली के कई गोले मँगवाये गए। पतंग बनाने का पेपर भी कई रंगों का मंगवाया गया। वंही मैदान में ईंटो का चूल्हा बना कर अरारोट की लेई बनायीं गई। पतंग के कागज़ को तिकोने आकार में काटा और लेही से सुतली पर चिपकाते चले गए। इस तरह तैयार हो गई लंबी रंग बिरंगी बंदनवार जिसे बड़े बच्चो ने आमने सामने की दीवार के ऊपर कीले ठोक के बाँध दिया। अन्दर जाकर ऊपर देखने से उन झंडियों से पूरा स्थान भरा और बहुत सुंदर दीखता था। घर में महिलाएँ जुटने लगी थी। दिन भर कभी पापड़ बेले जाते तो कभी बड़िया बनाई जाती थी। संध्या को सब मिलकर सुललित स्वर में मंगल गीत गाती। ढ़ोलक की थाप पर घुंघरुओं का स्वर पुरे मोहल्ले में गूंज उठता और अन्य अड़ोस पड़ोस की महिलाओं को खींच लाता।

कुछ दिन पूर्व लाइटों की झालरों से घर को सजा दिया गया। तीन चार दिन पहले हलवाई ने उस मैदान में जिसे हमने साफ़ किया था, अपनी भट्टी लगा ली थी। एक छोटी सी छोलदारी हलवाई के लिए लगा दी गई थी।  तार खींच कर, एक बड़े बल्ब से उस स्थान को रौशन किया गया। अब बनने शुरू हुए पकवान। इससे पूर्व एक कोठियार निर्धारित किया गया। ये एक स्टोर होता था जिसमे कच्चा सामान और तैयार पकवान व् मिठाइयां रखी जाती थी। इस पर एक ताला लगा कर रखा जाता था जिसकी चाबी, जिसे कोठियार का जिम्मा सौंपा जाता था उसके पास रहती थी। इस कोठियार ने सर्व प्रथम गणपति स्थापित किये गए जिससे निर्विघ्न सब कार्य सम्प्पन हो और बरकत हो। उसी रात हलवाई ने बूंदी के लड्डू तैयार करे। रात देर तक हम बच्चे उसे घेर कर बैठे रहे। फिर मैदा के पकवान तैयार हुए। बड़े बड़े माठ जिनकी किनारियां गूँथ के उठा दी गयीं थी, कढ़ाई में लाल लाल सेके गए, मठरियां - फीकी व् नमकीन, लंबे लंबे नमक पारे, खस्ता कचौरियां, गुलाब जामुन, बर्फी, इमर्तियाँ और भी कई  तरह के नमकीन और मीठे पकवान हलवाई ने तैयार किये। इन्हें बड़े बड़े टोकरों में अखबार बिछा कर सावधानी से भरा गया। गुलाब जामुन टिन के कनस्तरों में चाशनी में डुबा कर रखे गए। पूरा कोठियार पकवानों के खुशबु से भर गया। फिर माँ - जो कोठियार की जिम्मेवारी सँभाल रही थी, कोठियार में बैठी। सभी में से थोड़ा थोड़ा भाग ले कर गणेश जी को भोग लगाया गया। फिर पितरो के निमित्त निकाला गया।
तभी एक व्यक्ति ढेर सारे पत्तल, दौने और कुल्हड़ ले आया। माँ ने उतरवा कर एक स्थान में रख दिए। रोज  सुबह शाम पंगत सजती। हम बच्चे भाग भाग कर  भोजन परोसते। गर्म पूड़ी, कचोरी, एक सूखी सब्ज़ी तो एक तरी वाली। साथ में बूंदी का रायता जो मिटटी के शकोरो में देते। मीठे के नाम पर मोटी बूंदी परोसी जाती। एक कुल्हड़ लगाता तो दूसरा पानी भरता जाता।  दो दिन ही पक्का खाना खा कर सब ऊब जाते और कच्चे खाने की फरमाइश होती। ऐसे में हलवाई दाल चावल, रोटी सब्ज़ी तैयार करता।

भागते दौड़ते विवाह का दिन आ पँहुचा। मासी को तेल चढ़ाया गया। हल्दी उबटन लगाया। मंगल गीत गाए गये। हाथों में मेहँदी, हरी चूड़ियां, पैरों में महावर और माथे पर रोली से खौल काढ़ा गया। बारात तो दो दिन पहले ही आ गई थी और जनवासे में ठहरी थी। शाम को मौसा जी घोड़ी पर चढ़ कर आये। बारातियों का स्वागत गुलाब का इत्र छिड़क के किया गया। गर्मियों के दिन थे। मगज़,खस,गुलाब की पत्तियां,काली मिर्च, इलायची, बादाम घोट कर दूध में बनी बर्फ में लगी ठंडी ठंडाई परोसी गई। पीने के पानी में केवड़े का इत्र डाला गया था। फिर सादे तरीके से जय माला संपन्न हुई। इसके बाद भोज का आयोजन किया गया। इसमें पांच श्रीदान (मिठाइयाँ) और पांच ही नमकदान (नमकीन) सम्मिलित थे।  रात्रि को फेरे हुए और सुबह मासी विदा हो गई। बारातियों को सुबह के नाश्ते में बेड़मी, आलू सब्ज़ी और गर्म हलवा परोसा गया। कुछ लोगो ने मिल कर दहेज का सामान बस की छत पर चढ़वा दिया। और बारात चली गई।

उसके बाद एक एक करके मेहमान भी विदा हो गए। पीछे बची माँ और हम बच्चे। और बची ढेर सारी मिठाइयां और नमकीन। जिसे हमने बहुत दिन तक खाया। सूखे लड्डू, रसभरी सूखी इमर्ति और गुलाब जामुन का स्वाद आज भी याद है।

आजकल के विवाहों में ये सब कँहा? मात्र एक दिन का आयोज़न होकर रह गया है। और उसमें भी आडम्बर बहुत है सादगी  कम। खर्च अधिक है, आनन्द कम। समय भी नहीं है किसी के पास आजकल। आधुनिकता की दौड़ में ऐसे उत्सवों की रौनक कँही खो गई है।

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