कुछ दिन पूर्व, मैं कमीज़ खरीदने गया। एक कमीज पसंद आई। दाम पूछा तो पता चला मात्र 800 रुपये। साथ पड़ी दूसरी कमीज उठाई, दाम था 2800 रूपये। पूछा इतना अंतर क्यों? तो जवाब मिला कि महंगी वाली कमीज़ सूती है - 100% प्रीमियम कॉटन। क्या जमाना आ गया है! एक हमारा समय था। जब सूती कपड़ा सबसे सस्ता होता था और टेरीन सबसे महंगा। तब सूती कपड़ा पहनना दरिद्रता की निशानी हुआ करती थी। उन दिनों 80-20 टेरीन चला ही था जिसमें मात्र 20 प्रतिशत ही कॉटन होता था। हमारी स्कूल ड्रैस थी, सफेद कमीज और खाकी पैंट। हमारी कक्षा में एक छात्र संपन्न घर से था। नाम था - राकेश। 80-20 टेरीन की सफ़ेद कमीज़ जिसमें से उसकी सैंडो बनियान चमकती रहती थी, टेरीकॉट की क्रीच लिए खाकी पतलून, गले में लटकती चेन, हाथ में गोल्डन घड़ी,मध्यमा उंगली में अंगूठी और चमकते जूते पहन कर जब वह आता तो सारी कक्षा की आँखे उसी पर लग जातीं। एक बात और हमें बहुत प्रभावित करती थी। उसकी टेरीकॉट की पैंट में आगे जिप लगी होती थी जबकि हमारी सूती मोटी सी पैंट में 3 बटन होते थे। जिनमें से कभी कभार कोई एक टूट जाता था तो बड़ी हास्यास्पद स्थिति हो जाती थी। राकेश को ऐसा कोई खतरा नहीं था। मेरे पास तो दोनों ही कपड़े सूती थे। रोज धो कर तह लगा कर मैं उन्हें बिस्तर के नीचे दबा देता था जिससे कुछ सलवटें सुबह तक मिट जाएँ। मोजो की इलास्टिक खराब हो जाने से, हमारे मोज़े तो नीचे आ कर इकट्ठा हो जाते थे। काले जूतों का अग्र भाग ठोकर मार मार कर हम जल्दी ही सफ़ेद कर दिया करते थे। दो में से एक का मुँह तो अक्सर खुला ही रहता था। इनके विपरीत, राकेश अपने पहनावे के कारण हमारा हीरो था और हम खलनायक से भी गए बीते थे। सोचता हूँ अगर वह समय आज होता तो सूती पैंट, कमीज पहने हम भी इतरा सकते थे। और राकेश! बेचारा हीन भावना से गड़ ही गया होता पृथ्वी में।
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