Sunday, 11 December 2016

प्रकृति और पिता

मौसम में ठंडक बढ़ गयी है। पूर्णिमा में तीन दिन शेष हैं। शुक्ल पक्ष की एकादशी का चाँद थोड़ा सा टेढ़ा होकर निकल आया है। उसे लगातार देखो तो कितना शीतल,शांत, और चमकीला लगता है। चंदा का हाला भी उसके चारों और दिखाई पड़ता है। ध्यान से देखने में चाँद के ऊपर पहाड़ भी दीख पड़ते हैं जिन्हें बालपन में "चरखा कातती बुढ़िया" बताया जाता था। आसमान में शुभ्र चांदनी खिल उठी है। एक अकेला चमकता तारा भी उदित हुआ है। ये तारा नहीं कोई ग्रह है जो चांदनी में भी अपनी चमक बनाये हुए है। रात की रानी के झाड़ के पास से गुजरते हुए उसकी तीखी, मदमस्त गन्ध नथुनों में प्रवेश करती है। पेड़ो पर पत्ते बहुत कम हो गए है। जो बचे हैं वह भी अपनी रंगत और ताजगी खो बैठे है। गैंदे और गुलदाउदी में अभी फूल आने शुरू हुए हैं। पीपल की जड़ के पास रखा दिया टिमटिमा रहा है। मैं अपना शॉल चारो तरफ लपेट लेता हूं और सिर पर पहना ऊनी टोप कुछ नीचा कर लेता हूं। पार्किग में खड़ी कारों के पास से निकलते हुए शहतूत के वृक्ष के नीचे से गुजरता हूँ जिस पर अभी पतझड़ है। पर समय आने पर ये नए नए पत्तो से भर जायगा और छोटे छोटे शहतूतो से लद जायेगा। मधु मालती की लताएं भी मात्र लकड़ी सी हो कर रह गयी हैं। पर ये समझ लेना की ये मर चुकी हैं, भूल होगी। गर्मियां आते ही ये इतनी जल्दी भर जाती हैं कि आश्चर्य होता है। प्रकृति कितनी अदभुत हैं! कौन इसे संचालित करता है? ये सोचते ही उस परम पिता के चरणों में शीश अपने आप ही झुक जाता है जिससे ये सारा संसार एक लय और ताल में बंध कर संचालित हो रहा है।

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