नव वर्ष पर दिल्ली मेट्रो की तरफ से 6 पुस्तकों का एक सेट अपने कर्मचारियों को उपहार स्वरूप दिया गया। सारी पुस्तके भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट की हैं और अध्यात्म पर हैं। इनके नाम हैं - 'पुनरागमन", "जन्म और मृत्यु से परे", "सर्वोत्तम योग पद्धति", "श्री उपदेशामृत", "कर्मयोग" और "पूर्ण प्रश्न पूर्ण उत्तर"।
इनमें से तीन पुस्तकें तो मेरी पढ़ी हुई हैं। शेष तीन मेरे लिए नई हैं। मैं समझता हूँ कि अच्छी पुस्तकें और पौध से बढ़िया उपहार नहीँ हो सकता। पर प्राप्त करने वाला भी सुपात्र होना चाहिये। कुपात्र के हाथ में तो अच्छी से अच्छी पुस्तक ऐसी ही है जैसे शराब में आप गँगा जल मिला दो तो वह भी शराब ही हो जाता है।
इस पर मुझे एक पुराना किस्सा याद आ गया। तब में रेलवे में था और हमारा एक साथी रिटायर हो रहा था। प्रश्र उठा कि सेवा निवर्ति पर क्या उपहार दिया जाय। किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ। वह व्यक्ति कुछ रंगीन मिज़ाज़ रखता था। मैंने सोचा कि एक अच्छी सी आध्यात्मिक पुस्तक उपहार में दी जाय जिससे जीवन की संध्या में इनका कुछ तो कल्याण हो । तो ये जिम्मेदारी भी मुझे ही सौंपी गई। मैं नई सड़क गीता प्रेस की दुकान पर गया और गीता पर "साधक संजीवनी" नामक टीका जिसे श्रधेय श्री राम सुख दास जी ने किया है, ख़रीद कर पैक करा लिया। अगले दिन रिटायरमेंट फंक्शन में मैंने उन्हें वह उपहार दिया और प्रार्थना की कि इसे आप कम से कम एक बार अवश्य पढ़े।
बहुत समय बाद एक दिन वह मुझे मिल गए। मैं अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाया। पूँछ ही लिया कि क्या उन्होंने वह पुस्तक पढ़ी? उन्होंने कहा कि बहुत मोटी पुस्तक थी और बीच बीच में से थोड़ी ही पढ़ी। मैंने कहा चलिये थोड़ी ही सही पर क्या आपने अपने जीवन में उसे पढ़ कर कुछ परिवर्तन महसूस किया? बोले हाँ। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने पूँछा कि क्या परिवर्तन आया? बोले मैं जीवन में कभी मन्दिर नहीं गया। अब मैंने मन्दिर जाना शुरू किया है। मैंने सोचा चलो मुझसे जीवन में एक काम तो किसीके कल्याणार्थ हुआ। फिर पूँछा कि वँहा जाकर कैसा लगता है? बोले बस पूँछिये मत! वँहा इतनी सुन्दर सुन्दर महिलाएँ आती है कि कितना ही देखो, मन नहीं भरता।
कर लीजिये बात! मेरा सारा उत्साह ठंडा पड़ गया और मैंने कहा यदि बुरा न माने तो अगली बार जब भी आयें वो पुस्तक वापस लेते आइयेगा।
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