आज का दिन मेरे लिए विशेष था। आज अनुभाग अधिकारी की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ था। कुछ लोग कह रहे थे कि उतीर्ण कर्मचारियों की सूची में मेरा नाम भी था। पर जब तक आँखों से न देख लूँ, विश्वास नहीं हो रहा था। परिणाम रेलवे बोर्ड में घोषित हुआ था। अभी तक सूची बड़ौदा हाउस नहीं पंहुची थी।
वर्ष 1981 की बात थी। 1978 मैं मैंने उत्तर रेलवे के लेखा विभाग में सबसे निचले पद पर ज्वाइन किया था। अवस्था थी मात्र 18 वर्ष। जीवन के अनुभव से दूर, जिस उम्र में किशोर अपना कैरियर बनाने के लिए उच्च शिक्षा की और बढ़ते है, कॉलेज का मज़ा लेते हैं, उस उम्र में घर की परिस्थितियां मुझे नौकरी पर ले आई थी। ज्वाइन करने के एक वर्ष के भीतर ही मैंने अपेंडिक्स 2A की परीक्षा उतीर्ण कर के पहली प्रमोशन ले ली थी। तीन वर्ष बाद अगली परीक्षा के लिये मेरी पात्रता बनती थी। संयोग से अगली परीक्षा ठीक 3 वर्ष बाद आयोजित हुई। इससे पूर्व, पिछले बैक-लॉग के चलते कई वर्षो तक इस परीक्षा का आयोजन नहीं हुआ था।
मैं उन दिनों स्थापना(राजपत्रित), बड़ोदा हाउस में कार्यरत था।परीक्षा के लिए मेरे अनुभाग से भी जब नाम मांगे गए तो मैंने भी अपना नाम दिया। साथ में विषय , जिनमें आपने परीक्षा देनी थी, वह भी भरने थे। एक विषय अंग्रेजी का था, एक जनरल रूल्स और प्रोसीजर का था। दो वैकल्पिक विषय चुनने थे, जिनके प्रत्येक के दो दो पेपर थे- एक किताबों के साथ और एक बिना किताबों के। किताबों के नाम पर कोड्स और मैन्युअल ले जाये जा सकते थे। दोनों - किताबों और बिना किताबों के पेपर में मिला कर भी शायद 45% या 50% नम्बर लाने आवश्यक थे।
परीक्षा आसान नहीं थी। उस पर फ्यूल विभाग के कुछ वरिष्ठ कर्मचारी जो यह परीक्षा कई बार कोशिश कर के भी उतीर्ण नहीं कर पाये थे, मेरा मनोबल तोड़ते रहते थे, कि कल की नौकरी है और चले हैं SAS पास करने। एक ने तो चेलेन्ज ही दे दिया कि "वर्कशॉप" विषय से पास करो तो जानें। ये तुम्हारा कॉलेज नहीं है। मन ही मन मैंने वह चेलेन्ज स्वीकार भी कर लिया था। एक जनून था उतीर्ण करने का।
तो मोटे मोटे कोड्स और मैन्युअल इकठ्ठा करने शुरू किये। सबसे पतला कोड था- मैकेनिकल कोड। मात्र 15 ही अध्याय थे। विषय था "वर्कशॉप"।
मैने कोड का पतलापन देखते हुए, वैकल्पिक विषयों में,"वर्कशॉप" ही चुना। दूसरा वैकल्पिक विषय था,"व्यय"। मेरे विभाग में एक कृष्ण मोहन तिवारी भी था। उसने मेरे नीचे अपना नाम भरा। और विषय भी जो मैंने भरे थे वही उसने भी भर दिये।
जब नाम अंदर अधिकारी के हस्ताक्षर के लिए गए तो उन्होंने मुझे बुलाया। आर. कश्यप उस समय मेरे अधिकारी थे। उनका मुझसे विशेष स्नेह था। उन्होंने पूछा कि तुमने "वर्कशॉप" विषय क्यों चुना? मैंने कहा कि इस कोड में मात्र 15 ही अध्याय हैं और मैं आसानी से पढ़ लूंगा। वह हंस पड़े। बोले तुमने कभी "वर्कशॉप" देखा है? उनकी वेतन प्रणाली समझी है? "वर्कशॉप मैन्युफैक्चरिंग सस्पेंस अकाउंट" समझते हो, क्या होता है, कैसा होता है। जॉब कॉस्टिंग कैसे होती है? मैंने "न" में सिर हिलाया। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे बड़े भाई जैसा हूँ। मेरी सलाह मानो और "वर्कशॉप" की जगह कोई और वैकल्पिक विषय चुन लो। प्रोबेशनर्स भी सबसे ज्यादा इसी विषय में फेल होते हैं। मैंने नम्रता के साथ उनका आग्रह अस्वीकार कर दिया। फिर उन्होंने तिवारी को बुलाया और वही सवाल किया। उसका जवाब था कि मैंने तो आशु को देखकर यह विषय लिया है। वह बोले, आशु का तो पता नहीं पर तुम इस विषय में कभी उतीर्ण नहीं हो सकते क्योंकि तुम्हारे पास तो इस विषय को लेने का कोई कारण ही नहीं हैं। इसे बदलो। पर उसने भी नहीं बदला।
परीक्षा से कुछ दिन पूर्व, कश्यप साहब ने मुझे बुलाया और बोले कि मैंने सम्बंधित अधिकारी से बात कर ली है। तुम दो दिन के लिए जगादरी वर्कशॉप चले जाओ और वँहा की कार्य प्रणाली समझ लो। मैंने कहा, श्रीमान मुझे दो दिन खराब नहीं करने हैं। आप मुझे बस पढ़ने दें। वह बोले जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।
समय कँहा रुकता है। परीक्षा भी आ गई। पंचकुइयां रोड के अंत में, एक हाल में परीक्षा आयोजित हुई। सुबह सुबह सब कोड और मैनुअल्स खोल कर न जाने क्या पढ़ते रहते थे। मैं पिछले दिन रात के 11 बजे के बाद उस विषय को फिर नहीं देखता था। सुबह जल्दी केंद्र पर पंहुच जाता और उस दिन के अख़बार का जायजा लेता। ऐसा करके मैं तनाव मुक्त महसूस करता था। इस परीक्षा की एक और विशेष बात थी। और वह ये कि ये परीक्षा मैं पहली बार अंग्रेजी माध्यम से दे रहा था। मेरी पढ़ाई हिंदी माध्यम से हुई और 6 वीं कक्षा में मैंने अंग्रेजी के अक्षरों को सीखा था।
परीक्षा हुई और समाप्त भी हो गईं। एक विषय "वर्कशॉप विद बुक्स" की परीक्षा किन्हीं कारणों से टाल दी गई थी और यह निर्णय हुआ था कि इसे अंत में आयोजित किया जायेगा। शेष सारे पेपर अच्छे गए थे।
दिसम्बर माह में जो परीक्षा रह गई थी वह बड़ौदा हाउस के लॉन में शामियाना लगाकर ली गई। मैकेनिकल कोड मेरे साथ था। पेपर बांटा गया। पढ़ कर दिसम्बर की सर्दी में भी पसीना आ गया। एक भी प्रश्न सीधा नहीं था। जिसने वर्कशॉप में काम न किया हो उसके लिये बहुत कठिन था इन प्रश्नों का जवाब लिख पाना। अब मुझे कश्यप साहब की सलाह याद आ रही थी। तिवारी ठीक मेरे पीछे की सीट पर था। उस पूरे टेंट में हम दो ही थे, वर्कशॉप विषय ले कर बैठने वाले। बाकी सभी लिखने में व्यस्त हो गए। मैंने प्रश्न पत्र दो बार पढ़ा और बैठा रहा। आठ में से पांच प्रश्न करने थे। मुझे बार बार लग रहा था कि यह विषय ले कर मैंने बड़ी भूल की थी।
मैंने निराशा को अपने पर हावी नहीं होने दिया। आँखे बंद कर अपनी अधिष्ठात्री दैवी, माँ सरस्वती का आवाहन किया कि माँ मेरी क़लम में आ विराजो।
इससे और कुछ हुआ हो या न हुआ हो मेरा मनोबल एकदम बढ़ गया। मुझे लगा कि एक दिव्य शक्ति मेरे साथ है। इसके बाद मैंने शांत मन से एक बार फिर से प्रश्नपत्र पढ़ा। मैंने स्वयं को परीक्षक के स्थान पर रख कर सोचा कि मुझे इन प्रश्नों के उत्तर कैसे चाहिए होते। मुझे लगा कि कम से कम एक प्रश्न जो "बनाये या ख़रीदें" - "मेक ओर बॉय" पर था उसे तो मैं कर ही सकता हूँ। मैंने लिखना प्रारम्भ किया। एक, दो, तीन, चार और पाँच ! पांचों प्रश्नों के उत्तर मैंने लिख डाले। बीच बीच में तिवारी पीछे से फुसफुसाता रहा, कि तू क्या लिख रहा है?
अभी भी समय शेष था। मैंने अपने लिखे हुए उत्तर पढे। संतुष्टि नहीं हुई। क्योंकि जैसे व्यहवारिक प्रश्न थे उसी के अनुरूप उत्तर थे। अब ये परीक्षक पर निर्भर था कि वह इन्हें कितने अंक देगा।समय समाप्त हुआ और मैं पेपर दे कर बाहर आ गया। आज मैं रोज की भांति घर नहीं गया। प्रगति मैदान में अकेला ही भटकता रहा। शाम को घर आया तो पापा ने पूछा कि पेपर कैसा रहा। मैंने अनमने मन से कहा, "ठीक था"। उन्होंने पूछा कितने प्रश्न करने थे? मैंने कहा, "पांच"। उन्होंने फिर पूछा, "तुमने कितने किये?" मैंने कहा, "पाँच"। वह बोले तो तुम पास हो जाओगे।
आज वही परिणाम आया था। लिस्ट बड़ौदा हाउस आ चुकी थी। बड़ी सी मेज के चारों और भीड़ लगी थी। हर कोई यह जानने को उत्सुक था कि उसका नाम है या नहीं। मैं सबसे पीछे खड़ा था। अनुभाग अधिकारी ने एक एक करके नाम बोलने शुरू किये।
जब मेरा नाम बोला गया तो मैं तुरन्त चौथी मंजिल पर कश्यप साहब के पास गया। ये खबर मैं सबसे पहले उन्हें देना चाहता था। सुन कर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और कहा , "मुझे गर्व है तुम पर।" मिठाई आज तुम नहीं बांटोगे, मैं खिलाऊंगा सब को। ये कहते हुए उन्होंने मिठाई लाने किसी को भेजा। दुर्भाग्य से तिवारी का नाम लिस्ट में कंही नहीं था।
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