आजकल दिन जल्दी छिप जाता है। सूरज भी शाम से पहले अस्ताचल में चल देता है मानो इसे भी जल्दी है कंही और निकलने की। किसी और प्रान्त को अपनी गर्मी, अपनी रौशनी बाँटने की। मानो कोई और देश प्रतीक्षारत है सूर्य की।
पक्षी भी लौटने लगे है अपने अपने नीड़ों में दिन भर की मशक्कत के बाद, जो इन्हें करनी पड़ती है अपना दाना पानी खोजने में। एक कतार में या फिर पिरामिड आकार की सधी हुई संरचना में उड़ते हुए ये नभचर दीख पड़ते है संध्या के होते ही। फिर जब ये पेड़ो पर उतरते हैं तो शुरू होता है इनका चहचहाना, मानो दिन भर के अनुभव बाँट रहे हो एक दूसरे से। जैसे ही सूर्य पूरी तरह से छिपता है, इनका सामूहिक गान एक साथ थम जाता है और एक अजीब सी शांति वातावरण में पसर जाती है।
जल्द ही अँधेरा घिर आता है और शीत बढ़ जाती है। बंदर अभी भी सक्रिय है, आशंकित से । इधर उधर देख कर बंदर का एक बच्चा नीचे उतरता है और तेजी से भाग कर दूसरी तरफ लटकी गिलोय की मजबूत लता पकड़ कर ऊपर चढ़ जाता है। दो सफ़ेद बिल्लियां नीम के पेड़ पर चढ़ने में व्यस्त है। मुझे देख कर सकपका कर रुक जाती है। मैं उनके आमोद में बाधा न बनते हुए आगे बढ़ जाता हूं। बंदरो की एक फ़ौज़ एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाती हुई आगे बढ़ रही है। एक बंदर ने मुझे देखकर घुड़की दी और मेरे प्रतिक्रिया न करने पर आगे बढ़ गया।
तुलसी पर किसी ने दिया जला दिया है। शाम अपने पूरे शबाब पर आ चुकी है। पर ऐसी शामें उदासी से भरी होती हैं। मुझे अच्छी नहीं लगती। दूर कंही मंदिर में घण्टे बज उठे है। उनकी ध्वनि वायु में तैरती हुई मुझ तक पंहुच रही है। बाहर सड़क पर वाहन तेज गति से भाग रहे हैं। जिनका शोर नीरवता को भंग कर रहा है।
मैं एकांत चाहता हूँ। शोर शराबा मुझे शुरू से ही अच्छा नहीं लगता। न ही तेज जलती लाइटे ही मुझे पसंद है। शाम के झुटपुटे में पुराने बरगद के पेड़ के पास शिव मंदिर में जलते दिए की मैं कल्पना करता हूँ। जँहा रौशनी है तो मात्र दिए की।आवाज है तो बस घंटा नाद की या फिर झींगरो की। और है प्रकृति का नाद जो पास बहती नदी से उठ रहा है। इन सब के बीच समाधिस्थ हूँ मैं,अपने को एकाकार करता उस परमात्मा से जो उपस्थित है अपनी संपूर्णता के साथ दिए की लौ में । घंटे के नाद में। झींगरो के गान में और नदी के शोर में । मुझ में । तुम में । सब में । संपूर्ण कायनात में। मैं कल्पना करता हूँ कि मैं एक ऐसी अवस्था में आ पँहुचा हूँ जहाँ न शोक है, न भय है। न राग है, न द्वेष है । न कोई सुख है और न ही कोई दुःख । न आधि है न व्याधि है। जहाँ न कोई अपना है न पराया। जँहा न मैं हूँ न तू है। है तो बस सबका निषेध करती एक ऐसी अवस्था जँहा पँहुच कर न कुछ पाना शेष है और न कुछ करना।
तभी सामने से आती कार की तेज चोंधियाने वाली हेड लाइट से मैं काल्पनिक दुनियाँ से बाहर आ जाता हूं। बाहर सर्दी बढ़ गई है। मुझे अंदर चलना चाहिए। थके क़दम घर की और बढ़ चलते है।
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