Saturday, 26 December 2020

परधर्मो भयावहः

मेरा मानना है कि धर्म एक बहुत ही नाज़ुक और व्यक्तिगत विषय है। यही कारण है कि मैं इस विषय पर सामान्य तौर पर नहीं लिखता। 

परन्तु कल जब एक के बाद एक क्रिसमस के बधाई संदेश पोस्ट होते रहे और लोग एक दूसरे को सोशल मीडिया पर क्रिसमस के अवसर पर मुबारकबाद देते रहे, तो मुझे एक बार फिर सनातन धर्म की विशालता का अनुभव हुआ। कितना विशाल है ये धर्म कि अन्य धर्मों को इतनी सुगमता से आत्मसात कर लेता है कि पता ही नहीं चलता कि ये उत्सव इस धर्म का नहीं है। इसके ठीक विपरीत अन्य धर्मों की संकीर्णता  का भी विचार आया जब मैंने सोचा कि पिछले वर्षों में जन्माष्टमी या रामनवमी के उत्सवों पर कितने ईसाई मित्रों ने बधाई दी थी!

 व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि मूल रूप में कोई भी धर्म बुरा नहीं है। पर यदि हम  अपने अपने धर्मों में स्थित रहें, उसी का उत्सव मनाएं, अपने बच्चों को स्वधर्म के बारे में शिक्षित करें, उन्हें ये बताएं कि इस धर्म में उनका जन्म कोई अनायास घटना नहीं है, वरन प्रभु की सोची समझी लीला के कारण वे यँहा हैं, तो मैं समझता हूँ अधिक उचित होगा। वरन इसके कि हम उन्हें सांता क्लॉज बना कर क्रिसमस ट्री का सामने खड़ा कर फ़ोटो खिंचवाए। बच्चे के कोमल मन पर इन सबका बड़ा गहरा प्रभाव होता है जो भविष्य में स्वधर्म के प्रति उनकी सोच को प्रभावित कर सकता है। 

गीता कहती है ;
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

अतः आइये, हम सब जिस जिस धर्म में स्थित हैं उन्हीं का उत्सव मनाएं और इसमें गौरान्वित महसूस करें।
 

Friday, 25 December 2020

क्रिसमस की छुट्टी

छुट्टी के दिन सारा कार्यक्रम अस्त व्यस्त सा हो जाता है। अलसाते रहो, कम्बल की गर्माहट में। चाय पर चाय के दौर चलते रहें। अदरक और लौंग की चाय का जायका और वो भी कम्बल में बैठ कर लिया जाय तो आनन्द ही कुछ और हो जाता है। न शेव करने की हड़बड़ी, न नहाने की ही। काम वाली बाई अल्ल सुबह आ जाती है। वो अपना काम कर रही थी और हम पति पत्नी चाय की चुस्कियों का स्वाद ले रहे थे। क्रिसमस का और कोई जश्न मेरे लिए हो न हो, छुट्टी अपने आप में एक जश्न होता है। अख़बार आ चुका था और मैं उसके पन्ने पलट रहा था। सारी खबरें निराशा से भरी थीं। एक ही ख़बर कुछ उल्लास की थी कि कोरोना का टीका जनवरी से लगना शुरू हो जाएगा और हम जैसे वरिष्ठ नागरिकों का नम्बर जल्द आएगा। अब वो अलग विषय है कि टीका कामयाब कितना होगा। इसीके पास एक ख़बर छपी थी कि कोरोना से उबर चुके लोगो में लकवा हो रहा है। ये खबर मैंने उच्च स्वर में पढ़ी जिससे पत्नी सुन ले। ख़बर सुनते ही वह बोली कि तुम ये अख़बार पढ़ना बिल्कुल बन्द कर दो। ऐसी खबरें पढ़ते हो फिर चिंतित भी रहते हो। बात तो चिन्ता की ही थी। मैं भी कोरोना से उबरा था। मैंने अपने हाथ पैर हिला डुला के देखे। मुँह से कुछ उल्टी सीधी भंगिमाएं बनाई। सब ठीक ही लगा। अख़बार फेंक मैं उठ खड़ा हुआ। बाहर  सूर्य अपने समय से निकल आया था। मैंने खिड़की पर पड़े लम्बे पर्दे दोनों और सरका दिए। सुनहरी धूप खड़की के शीशों से छन कमरे में आ ठहरी। मैंने कम्बल तह कर सलीके से रखा, बिस्तर की सलवटें ठीक करी और तकिये सिरहाने पर यथा स्थान रख दिये। नीम के पेड़ की शाखों के बीच से भुवन  भास्कर झाँक रहे थे। दरवाज़ा खोल मैं बॉलकोनी में आ गया। सर्द हवा के झोंकों ने सारी खुमारी उतार दी। रीढ़ की हड्डी में एक सिरहन सी दौड़ पड़ी। कुछ पक्षी मधुर स्वर में कलरव करते हुए किलोल कर रहे थे। मैं अधिक देर बाहर नहीं ठहर पाया और अंदर आ दरवाज़ा बन्द कर लिया। एक और छुट्टी के दिन की शुरुआत हो चुकी थी। क्या करना है कुछ भी तय नहीं था। जैसे चाहो रहो। जो चाहो करो। मैंने गूगल को आदेश दिया कि सूरदास जी का भजन 'तुम मेरी राखो लाज हरि' जगजीत सिंह के स्वर में प्रस्तुत करे। आदेश का पालन हुआ और भजन के बोल घर में गूँजने लगे।  ये तो सबको पता है कि आज क्रिसमस है। बहुतों ने क्रिसमस ट्री भी सज़ाए हैं। बच्चों के लिए उपहार भी लाये होंगे  । पर कितने जानते हैं कि आज गीता जयंती भी है। वैसे आज मोक्षदा एकादशी भी है। आप सब पर भगवान श्री कृष्ण की कृपा बनी रहे, इसी कामना के साथ गीता जयंती की बधाई। चलें इस छुट्टी का आनंद लें।

उपेक्षित बचपन

सुबह के साढ़े आठ बजे रहे हैं। सूरज अभी भी कोहरे की चादर के पीछे छिपा है। रिंग रोड से कश्मीरी गेट बस अड्डे की तरफ़ आते हुए कोहरा और घना हो गया है। कोहरा उड़ते हुए भाग रहा है। कार की सीट बर्फ की भांति ठंडी है। मैंने ड्राइवर से थोड़ी देर हीटर चलाने को कहा जिससे कार में कुछ गर्मी आये। यमुना का पुराना पुल पूरी तरह से कोहरे से ढका है।  रात किसी ट्रक ने डिवाडर पर गाड़ी चढ़ा दी थी। सड़क पर बोरियां बिखरी पड़ी हैं। यातायात धीरे धीरे निकल रहा है। राजघाट की लाल बत्ती पर कार रुकी है। एक लड़की कोई आठ दस वर्ष की, कमर पर चुन्नी बाँधे, एक छोटे से लोहे के रिंग से निकल अपना करतब दिखा रही है। गर्म कपड़ों के नाम पर एक पतला सा स्वेटर पहने है। पैरों में हवाई चप्पल हैं। मैं उसे ध्यान से देखता हूँ। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं है। न प्रसन्ता का न ही विषाद का। दो चार करतब दिखा वह कारों के बंद शीशे खटखटाती है। माँगते हुए उसके चेहरे पर दया या लाचारी नहीं है। मानो अपनी मेहनत का पुरस्कार चाहती हो। अब वो मेरी कार की तरफ़ आती है। पहले ड्राइवर का शीशा बजाती है । फिर उसी तरफ से पीछे की सीट का शीशा ठोकती है। मैं बाईं ओर बैठा हूँ। मैं उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा हूँ। चाहता हूँ कि इसे कुछ दे दूं। पर पर्स आगे ब्रीफ केस में पड़ा है। बत्ती हरी हो चुकी है। कार ने सरकना शुरू कर दिया है और गति पकड़ ली है। वह पीछे छूट गई है। फिर बत्ती के लाल होने के इंतज़ार में सड़क किनारे खड़ी हो गई है। दिल्ली के चौराहों पर दिन भर ऐसे ही कितने बच्चे आपको दिख जाएंगे। इनकी इस दुर्दशा का ज़िम्मेदार कौन है? वो माता पिता जिन्होंने इन्हें पैदा कर सड़कों पर छोड़ दिया। या फिर वो सरकार जो इनके प्रति पूर्णतया उदासीन है। या हम सब जो इन्हें देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।

Sunday, 20 December 2020

समय कैसे कटे

ये दो दिन की छुट्टियाँ भी अलसाने वाली होती हैं। जब छात्र था तो सोचता था कि एक बार पढ़ाई समाप्त हो जाये फिर तो खूब मजा करूँगा। अब समय ही नहीं कटता । सोचता हूँ फ़िर से पढ़ाई शुरू करूँ। जीवन की यही विडम्बना है। जो नहीं होता उसकी पीछे भागता है। 

पिछले दिनों यूँ ही बैठे बैठे सोचा कि फेस बुक समय नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं है। सो एकाउंट डिलीट कर दिया। फिर जब कोरोना से ग्रस्त हो चौदह दिन का एकान्तवास काटा तो सोचा समय कैसे काटा जाय। पर ये निश्चय तो दृढ था कि कुछ भी हो, फेस बुक पुनः नहीं जॉइन करूँगा। इन दिनों साहित्य खूब पढ़ा।  फिर कुछ शुभचिंतको के फोन आये जो जानना चाहते थे कि मैं फेस बुक से अचानक कँहा लापता हो गया। वो सभी मित्र मेरी ख़बर न मिलने से चिंतित थे। मैंने कहा कि मैं ठीक हूँ।  इस बीच मेरी सासू मां ने इस नश्वर सँसार को अलविदा कह दिया। उनका स्वास्थ्य पिछले कुछ समय से ठीक नहीं चल रहा था। सो जयपुर चक्कर लगते रहे।  

आज कई दिनों बाद करने को कुछ नहीं था। जैसे तैसे शानिवार कटा। दो फिल्में देख डाली। आज  रविवार था। फिर वही प्रश्न आ खड़ा हुआ - क्या करूँ ! सोचा सो लेता हूँ।  पर सो भी कितना सकते हैं? दिन में सो जाओ तो रात में नींद रूठ जाती है। कोरोना के चलते बाहर निकलना तो लगभग बंद ही है। फ़िर सोचा पुनः फेस बुक एकाउंट बनाया जाय। सो पुनः उपस्थित हूँ। सोचता हूँ जब जॉब नहीं होगी तो समय कैसे कटेगा। जयपुर प्रवास के दौरान यही प्रश्र मैंने अपने एक परिचित से किया जिन्हें सेवा निवृत हुए ग्यारह वर्ष हो गए हैं। उनका उत्तर अप्रत्याशित था। बोले, "हरा साग ले आओ। पत्ता पत्ता कर तोड़ो। पत्नी भी खुश और समय भी कटेगा।" 

कल  मैंने यही किया। बथुआ, पालक, सेंगरी, धनियां जो भी पत्नी ने लिया था सब अच्छे से सँवार दिया। पर मुश्किल से घंटा भर ही कट पाया। यँहा तो पूरा दिन काटना है। और दिन ही नहीं वर्षों काटने हैं। कुछ और सोचना पड़ेगा।

किसी ने कहा है कि हम समय नहीं काटते, समय हमें काट रहा है। शायद यही सत्य है। काफ़ी विचार करने के बाद भी यक्ष प्रश्न अपनी जगह खड़ा है- समय कैसे कटे? आपके पास कोई उत्तर हो तो बताएं। फ़िलहाल तो कल से ऑफिस है। 

Monday, 12 October 2020

नम्बरों की दौड़

दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रथम कट ऑफ 100% गई है। 90% लाने वाले बच्चों का नम्बर तो शायद अंतिम कट ऑफ में भी नहीं आ पाए। तो ये बच्चे कहाँ जाएं प्रवेश के लिए? बचे फिर वही प्राइवेट कॉलेज जिनकी फीस बहुत है। जो शिक्षा की दुकान खोले बैठे हैं। और दिल्ली यूनिवर्सिटी ऐसी क्या शिक्षा देती है जिसे 100% वाले ही ले पायें। वही कोर्स वही सिलेबस। आधे सत्र तो पढ़ाई ही नहीं होती। और इसमें पढ़ने वाले क्या सारे ही छात्र जीवन में सफ़ल जो पाते हैं? और जो शीर्ष पर पँहुचते भी हैं वो तो वैसे ही पहुंच जाते चाहे किसी भी यूनिवर्सिटी से पढ़ते। कहीं न कहीं 12 की परीक्षा में कमी है । ये ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्नों का खेल खत्म होना चाहिए जिसमें या तो सही उत्तर होता है या ग़लत। और सही है तो पूरे नम्बर। ये व्यवस्था ही 100 प्रतिशत नम्बर लाने के लिए ज़िम्मेदार है। हमारे समय में पांच प्रश्न हल करने होते थे और सभी के उत्तर विस्तृत होते थे कितना ही अच्छा लिख लो 20 में से 20 कभी आते ही नहीं थे। बस गणित का पेपर ऐसा था जिसमें आप पूरे नम्बर ले सकते थे यदि सारे प्रश्न सही तरीके से हल किये हों। उत्तर यदि सही भी हो और एक दो स्टेप न लिखे हों तब भी नम्बर कट जाते थे। या तो ये ऑब्जेक्टिव प्रश्नों का खेल खत्म हो या फिर यूनिवर्सटी में प्रवेश लॉटरी से हो तभी बच्चो और अभिभावकों पर से ये बोझ कम हो पायेगा। और आख़िरी प्रश्न - यदि हमारे बच्चों में इतनी भी प्रतिभा है तो नोबल पुरस्कारों में भारतीयों का  नाम क्यों नहीं आ पाता सिवाय कुछ अपवादों के? और वो भी जहां तक मुझे ज्ञात है, तीन बार 'शांति' के लिए आया है और एक बार 'अर्थशास्त्र' के लिए। न कि किसी अविष्कार या खोज के लिए !

Friday, 25 September 2020

कपलचेलैंज

इन दिनों जिसे देखो फेस बुक पर हैश टैग कपलचैलेंज पर अपनी और पत्नी या पति की फ़ोटो पोस्ट कर रहा है। फेस बुक की माने तो अब तक 25 लाख जोड़े अपनी फोटो पोस्ट कर चुके हैं। और ये नम्बर बढ़ता ही जा रहा है। हमारे एक समझदार पुराने मित्र हैं जो अब फेस बुक पर भी जुड़े हैं। जब उन्होंने अपनी पत्नी के साथ फ़ोटो पोस्ट करी तो हमने उनसे जानना चाहा कि इसमें चेलैंज क्या है? तो बोले, 'यही तो चेलैंज है।' हमारी समझ नहीं आया कि ये कैसा चैलेंज है भाई! पत्नी या पति संग फ़ोटो डालना कौन सी बड़ी बात है! हमने आगे पूछा कि अपनी पत्नी के साथ ही फ़ोटो पोस्ट करनी है या दूसरे की पत्नी के साथ। अब हमारी समझ से तो चेलैंज वो ही है जब दूसरे की पत्नी के साथ फोटो पोस्ट की जाए। तो वे बोले कि ये तो पोस्ट करने वाले कि जोख़िम उठाने की क्षमता पर निर्भर करता है। अपनी तो समझ आया नहीं। हाँ, ऐसा एक चेलैंज कभी हमने दिया था अपने एक मित्र को। जोश में आकर उन्होंने चेलैंज ले तो लिया पर लेने के देने पड़ गए। 

बात पुरानी  है। हाँ, पुरानी ही होगी क्योंकि तब हम जवान थे । कोई 21-22 वर्ष के। बड़ौदा हॉउस में बसंत मेला लगा था। कई दिनों से तैयारी चल रही थी। खाती काम पर लगे थे। अस्थायी स्टॉल बनाये जा रहे थे। टैंट लगाए जा रहे थे। आख़िर वो दिन आ गया जिस दिन मेला लगना था। विभिन्न मंडलों से कर्मचारी आये हुए थे । हर मंडल की प्रसिद्ध वस्तुएं बिक्री के लिए उपलब्ध थीं।  हम और हमारे एक मित्र भी चले आये मेले की रौनक देखने। क्या रँगीन माहौल था। लड़के लड़कियां तड़क भड़क के साथ इधर उधर विचर रहे थे। कँही जोधपुरी स्टाल तो कँही मुरादाबादी पंडाल। कँही लखनऊ का चिकन वर्क तो कँही जोधपुरी बन्धेज। जैसे जैसे शाम ढल रही थी, भीड़ बढ़ती जा रही थी। जँहा रोज़ फिनाईल की गंध आया करती थी वँहा की फ़िज़ा तरह तरह के इत्र फुलेल की महक से सरोबार थी। पूरा मेला रोशनी से नहाया हुआ था। इस वर्ष के मेले का विशेष आकर्षण था कैंटीन में लगा बार। फरवरी का गुलाबी मौसम, बसंत ऋतु, जवां उम्र और ये समा! ऐसे में किस का दिल न दीवाना हो! हुआ तो हमारा भी पर हमें तो इसे मारने की आदत थी सो मार कर बिठा दिया। बेचारा कुछ नहीं बोला। पर हमारे मित्र अपना मन नहीं मार सके। बोले, 'यार कैंटीन में बार लगा है। चलो एक एक पैग लेते हैं।' मैंने कहा कि मैं तो पीता नहीं। तो बोले, ' मत पीना। साथ तो चलो। बारटेंडर ही देख लेना। हो सकता है कोई खूबसूरत बला ही सर्व कर रही हो। ' हम चल पड़े। कैंटीन के काउंटर से जँहा रोज़ लाइन में लगकर हम चाय, समौसे और गाजर-खोए की बर्फी के  कूपन लेते थे आज वहाँ कैंटीन में प्रवेश के लिए टिकट बिक रहे थे और वो भी अच्छे खासे महँगे। खैर, हमारे मित्र ने लाईन में लग टिकट खरीदे और हम बेधडक़ कैंटीन में घुसने लगे। पर गेट पर खड़े व्यक्ति ने हमें रोक दिया। बोला, 'कपल्स ओनली'। आज वो व्यक्ति होता तो समझता कि कपल्स के दायरे में दो लड़के या दो लड़कियां भी आती हैं। पर वो समय कुछ और ही था। तब विपरीत लिंग के जोड़े को ही कपल्स कहा जाता था। हम दोनों एक दूसरे की शक्ल देखने लगे। तब हमने देखा कि अंदर प्रवेश करने वाले सभी जोड़े ही थे। हमारा ऑफिस और हम पर ही रोक!  हमारी भृकुटियां तन गईं। पर हमारी एक न चली। प्रवेश द्वार पर खड़ा व्यक्ति टस से मस नहीं हुआ। हम पीछे हट गए। 

अब क्या करें? हमारा मित्र निराश था। वो बड़बड़ाया, 'कोई तो ढूंढ़नी पड़ेगी।' वो इधर उधर देख रहा था। उसकी निगाहें किसी आधुनिक अकेली लड़की को तलाश रही थी जो उसे अंदर जाने में मदद कर सके। जल्द ही उसने एक लड़की ढूंढ़ ली। वो मिनी स्कर्ट्स और टाइट टॉप पहने पीपल के पेड़ के नीचे अकेली खड़ी सिगरेट से धुआं उड़ा रही थी। एक मिनी पर्स उसके हाथ में टँगा था जिसे वो रुक रुक कर झूला रही थी। शायद किसी के इंतज़ार में थी। 

'ये मान जाएगी।', हमारा मित्र बोला। 

'पगला गए हो क्या?देख नहीं रहे कितनी ऊंची हील पहनी है। बेभाव की पड़ेगी। दारू पीने की जगह जख्मों पे लगानी पड़ेगी।',हमने अपना डर जाहिर किया।

'अमां तुम भी यार। क्या लड़की के चरण देख रहे हो। जीवन में कोई लड़की नहीं पटा सकते। कुँआरे ही मरोगे। अरे मुख देखो फिर बताओ, मानेगी या नहीं।, 'वो ढिटाई से बोले।

'रहने दो। तुम्हारे साथ तो नहीं ही जायगी। ' हमनें चेलैंज किया। 'और हमें तो तुम्हारी ही मौत नज़र आ रही है। क्यों शाम खराब करते हो। चलो किसी और स्टाल पर चलते हैं। ',हमने सुझाव दिया।

'हमें चेलैंज करते हो ?'उनके स्वर में गर्व था।'चलो स्वीकार है।'

'देखो ! सोच लो। पिटोगे तो हम नहीं पहचानेंगे तुम्हें।'हमने कहा।

'अरे तुम्हारा चरित्र प्रणाम पत्र किसे चाहिए!' ,कहते हुए वो आगे बढ़ गए।

'सुनो तो...', हम पीछे से चिल्लाए। पर वँहा कौन सुनता! वो तो छलांग लगा चुके थे।

हम दूर खड़े  तेज़ धड़कते दिल से देख रहे थे। किसी अनहोनी की आशंका से दिल घबरा रहा था। वो टहलते हुए से उसके पास जा पँहुचे । पता नहीं उन्होंने उससे दो चार मिनट क्या बात की कि वो अनजान लड़की उनके साथ बार में जाने को तैयार हो गई। जब वो दोनों मेरे पास से गुजरे तो हमारे मित्र ने कनखियों से हमें देखा और मुस्कराए। हमें उनसे ईर्ष्या हो आई। एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए वो कैंटीन में चले गए और हम किसी खाने पीने के स्टाल की तलाश में स्कूटर स्टैंड की और लगे स्टॉल्स की तरफ़ जाने को मुड़ गए। अभी हम दो चार कदम ही चले होंगे कि हमारे मित्र तेज़ी से भागते हुए से आये जैसे उनके पीछे भूत लगा हो। बदहवास से बोले , 'चलो जल्दी निकलो यँहा से।' पीछे वो लडक़ी भी तेज कदमों से चली आ रही थी। ' हे! व्हाट हैपण्ड?' ,हम बस इतना ही सुन सके। 

चलते चलते हमने पूछा,' क्या हुआ? वापस क्यों आ गए?'

उन्होंने कहा, 'काउंटर पर पता है बारटेंडर कौन है।? हमने पूछा, 'कौन?' बोले, 'पापा! हमें क्या पता था कि उनकी ड्यूटी यँहा लगी है। कँही देख न लिया हो इस लड़की के साथ।पूछेंगे तो क्या जवाब दूँगा! '

हम मेन गेट से जल्दी से बाहर आये औऱ सामने जो भी बस रुकी, उस में चढ़ गए। 

बहुत कोशिश करने पर भी उन मित्र का नाम याद नहीं आ रहा। स्मृति धुँधली हो गई है। यदि रेलवे के फेस बुक मित्रों में से कोई हो और इस किस्से को पढ़ रहा हो, तो अपना नाम हमें अलग से सूचित जरूर करें।



Monday, 7 September 2020

बदलते युग की साक्षी ये पीढ़ी - 2

आज हम जितनी आसानी से स्मार्ट फ़ोन पर उंगलियां चला व्हाट्सएप, फेसबुक आदि का इस्तेमाल करते हैं, हम नहीं जानते कि इस छोटे से डिवाइस में इतनी कम्प्यूटिंग पॉवर भरने के पीछे का क्रमिक विकास क्या है। तो उस विकास यात्रा के प्रारम्भ में, चलते है 1880 में।

1880  में अमेरिका की आबादी इतनी बढ़ चुकी थी कि जनसंख्या की गणना में सात साल लग गए। अमेरिका कोई ऐसा तरीका अपनाना चाह रहा था जिससे ये काम जल्द हो सके। इसी बीच फ्रांस में जोसेफ़ मैरी ने एक ऐसी बुनाई मशीन ईज़ाद की जिसमें लकड़ी के बोर्ड को एक अलग पैटर्न में छेद कर इस्तेमाल करने से बुनाई में वो डिज़ाईन अपने आप बुन जाता था। बाद में यही विधि कार्ड पंचिग से डेटा तैयार करने का आधार बनी। 

1890 में, हरमन होलिरीथ ने इसी पंच कार्ड सिस्टम को अमेरिकी जनसँख्या की गणना के लिए प्रयोग कर सात वर्ष का कार्य मात्र तीन वर्ष में पूरा कर दिखाया जिसे अमेरिकी सरकार की कई बिलियन डॉलर की बचत हुई। कम्प्यूटर की आधार शिला रख दी गई थी।

1953 में पहली कम्प्यूटर भाषा कोबोल COBOL बनाई गई। जो लिखने में साधारण अंग्रेज़ी की तरह थी पर कम्पाइल होने पर मशीनी भाषा में परिवर्तित हो जाती थी। इससे कम्प्यूटर को निर्देश देने के लिए मशीनी भाषा में कोडिंग की आवश्यकता नहीं रही। 1954 में फ़ोर्टरान FORTRAN भाषा का विकास हुआ। 1958 आते आते, इंटिग्रेटेड सर्किट IC कम्प्यूटर चिप के रूप में प्रयोग में आने लगे। पर अभी कम्प्यूटर आम आदमी के लिए तैयार नहीं था। इसका प्रयोग बड़े संस्थानों, वैज्ञानिक कार्यशालाओं तक ही सीमित था। 

1960 के अंत तक भारतीय रेल में कम्प्यूटर आ गया था जब 9 ज़ोनल रेलवे, तीन प्रोडक्शन यूनिट्स और रेलवे बोर्ड में IBM 1401 मेन फ्रेम लगाए गए। वो अलग बात है कि आरक्षण के कंप्यूटर युग का प्रारम्भ इसके काफ़ी बाद हुआ। बहरहाल मेरे इस दुनियां में आने तक कम्प्यूटर की विकास यात्रा इतनी आगे बढ़ चुकी थी।

1969 में बेल कम्पनी ने एक नया ऑपरेटिंग सिस्टम पेश किया जिसका नाम UNIX रखा गया। ये 'C' भाषा में लिखा हुआ था और विभिन्न कम्प्यूटरों पर चल सकता था। ये OS पोर्टेबिलिटी में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसके एक वर्ष बाद ही नई बनी इंटेल कंपनी ने एक ऐसी मेमोरी  चिप ईज़ाद की जो डेटा की हर बिट को एक छोटे से मेमोरी सेल जो कैपेसिटर और ट्रांजिस्टर से बना हो, में स्टोर करने की क्षमता रखती थी। इसके कपैसिटर को चार्ज या डिस्चार्ज किया जा सकता था। चार्ज का अर्थ होता है - 1 और डिस्चार्ज का 0 - बाइनरी के इन्हीं दो अंको को कम्प्यूटर समझता है। इसे DRAM चिप के नाम से जाना गया जिसका अर्थ है - डायनामिक रेंडम एक्सेस मेमोरी। फिर तो  विकास की गति तेज होती चली गई।

 1971 में फ्लॉपी डिस्क का अविष्कार हुआ जिससे दो कम्प्यूटरों में डेटा शेयर किया जाना संभव हुआ। 1973 में, रॉबर्ट मेटकॉफ ने ईथरनेट बना लिया जिससे दो या इससे ज़्यादा कम्प्यूटर आपस में जोड़े जाने सम्भव हुए।

1975 में बिल गेट्स ने अपने एक सहपाठी के साथ मिल कर माइक्रोसॉफ्ट नाम से कंपनी बनाई। इसके अगले ही वर्ष स्टीव जॉब्स ने एप्पल कंप्यूटर शुरू किया। एप्पल का विंडो बेस्ड ग्राफ़िक यूजर इंटरफ़ेस होने के बाबजूद भी एप्पल आम आदमी का कंप्यूटर नहीं बन पाया। 1981 में IBM ने पहला पर्सनल कम्प्यूटर बाज़ार में उतारा। ये MS-DOS ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलता था और इसमें दो फ्लॉपी ड्राइव थीं। इसी के साथ माइक्रोसॉफ्ट का MS-DOS ऑपरेटिंग सिस्टम आम आदमी तक पँहुचा और खूब चला। पर अभी भी ये ग्राफ़िक में एप्पल से बहुत पीछे था।

 1985 में माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज की घोषणा की। पर ये अभी भी MS-DOS पर ही चलता था। फिर धीरे धीरे MS-DOS इतिहास हो गया। और इसकी जगह विंडोज ने ले ली। आज विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम से सभी परिचित हैं। 

15  मार्च 1985 में ही पहला डॉट कॉम डोमेन नेम symbolics.com रजिस्टर्ड किया गया। इसके कोई चार वर्ष बाद 1989 में , ब्रिटिश वैज्ञानिक बर्नरस ली ने www का अविष्कार किया। जिसे आज हम सब परिचित हैं। इसके पीछे जो सोच थी ,वह तेज़ी से उभरती तकनीक को जिसमें कंप्यूटर, डेटा नेटवर्क और हाइपरटेक्स्ट शामिल थे, एक ताकतवर विश्वव्यापी सूचना तंत्र के रूप में समाहित करने की थी , जिसे आसानी से प्रयोग में लाया जा सके। इंटरनेट की शुरुआत हो चुकी थी हालांकि ये आम आदमी की पँहुच से दूर था। मुझे याद है विदेश संचार निगम लिमिटेड से इंटरनेट कनेक्शन लेना होता था जो टेलीफोन लाइन के जरिये मिलता था और जिसकी स्पीड बहुत कम होती थी। हमारे ऑफिस में ये सुविधा कुछ उच्च अधिकारियों तक ही सीमित थी। 

मैं 1980 से कंप्यूटर की इस विकास यात्रा का साक्षी रहा हूँ। 1980 के प्रारंभ तक मेरा इससे पाला नहीं पड़ा था पर इस क्षेत्र में हाथ आज़माने की उत्कट अभिलाषा थी। पर मैं ठहरा कॉमर्स का छात्र, मुझे कौन इस क्षेत्र में आने देता! और जैसे तैसे घुस भी जाऊं तो क्या मैं इस तकनीकी क्षेत्र में अपने को साबित कर पाऊंगा? पर जहाँ चाह, वहाँ राह। मैं इस क्षेत्र में कैसे घुसा और क्या मैं अपने आप को साबित कर पाया? ये सब अगली कड़ी में।


Sunday, 6 September 2020

बदलते युग की साक्षी ये पीढ़ी - 1

अभी कल  ही मैं अपनी जन्म तिथि किसी क्रेडिट कार्ड की साइट पर डाल रहा था तो मुझे अपना जन्म वर्ष चुनने को 61 वर्ष पीछे जाना पड़ा। अचानक एहसास हुआ कि कितना लम्बा जीवन काल निकल गया। इन बीते वर्षो में कितना कुछ बदल गया! तकनीक बदली, शहर बदले, सोच बदली, व्यक्ति भी बदल गए। जीने का तरीका बदल गया। नदियां बदली। हवा बदली। और भी बहुत कुछ बदल गया। आज पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ इस बदलाव में कितना कुछ पीछे रह गया। जो भी हो जीवन का रस चला गया इस बदलने की दौड़ में। यदि आज के परिपेक्ष्य में इस बदलाव को देखें तो पाएंगे कि बदलते जमाने की आंधी में क्या कुछ नहीं उड़ गया।

जब मेरा जन्म हुआ तो हमारे यँहा बिज़ली नहीं थी। लालटेन जलती थी। माँ तो कभी कभी कहती थी कि इसीलिए मुझे अँधेरा अच्छा लगता है। जब तक मैंने होश संभाला , घर मे बिज़ली आ गई थी। एक रेडियो था बड़ा सा। जिसमें वाल्व लगे थे। वाल्व गर्म होने में समय लगता था इसलिए ऑन करने में और आवाज़ आने में कुछ समय का अंतराल होता था। उसमें एक हरे रंग की मैजिक लाइट थी जो सही स्टेशन ट्यून होने पर पूरी हरी हो जाती थी। उन दिनों रेडियो का लाईसेंस बनता था जिसका समय समय पर नवीनीकरण करवाना पड़ता था। इंस्पेक्टर घर घर जाकर उसकी जाँच करते थे। 

ऐसे ही साईकल का भी रोड टैक्स जमा होता था। एक गोल टीन का टोकन मिलता था जिसे साईकल पर लगाना अनिवार्य था। कुछ शौकीन लोग अपनी साईकल पर सामने लाइट भी लगाते थे जो पिछले पहिये के टायर से सट कर चलने वाले छोटे से डायनुमा से बिजली लेती थी। स्कूटर तो किसी किसी के पास होता था। कार की तो बात ही क्या थी। चँद गिने चुने सम्पन्न लोगों के पास ही हुआ करती थी। उन दिनों लम्ब्रेटा स्कूटर आता था जो आज के स्कूटरों से लम्बा होता था। बाद में बज़ाज़ ने अपने स्कूटर बाज़ार में उतारे। आम जन तो साईकल पर ही चलता था। पैंट सूती होती थी और नीचे से बाहर की ओर मुड़ी हुई। उन की खुली, चौड़ी मोहरी पर लगाने को स्टील के क्लिप मिलते थे जिससे साईकल की चैन से वे गन्दी न हों। 

टेलीविजन तो तब आया नहीं था। इसके बाद जब टेलिविज़न आये तो वे ब्लैक एंड व्हाट थे। भारतीय बाज़ार में वेस्टन का टेलेविज़न ज़्यादा बिकता था। सेमीकंडक्टर का उतना प्रचलन नहीं था या वो तकनीकी तब विकसित हो रही थी। अतः टेलेविज़न में भी वॉल्व प्रयोग में आते थे और इसलिए  उनका आकार अपेक्षाकृत बड़ा हुआ करता था। कुछ सम्पन्न घरों में ही टेलेविज़न हुआ करते थे। और इनके प्रसारण का समय भी दिन के कुछ ही घँटे था। प्रसारण में बाधा भी आ जाया करती थी और तब "असुविधा के लिए खेद है" कैप्शन स्क्रीन पर दिखाया जाता था। रविवार को कोई फ़िल्म प्रसारित होती थी। हम बच्चे आस पड़ोस में उस फ़िल्म को देखने जाते थे। कभी बैठा लिए जाते तो कभी भगा दिए जाते। फ़िल्म के बीच में विज्ञापनों और समाचारों के लिए अंतराल होता था। पर हम इस लालच में कि बाद में पता नहीं आने दें या न आने दें, अंतराल में भी बैठे ही रहते।

बाद में सेमीकंडक्टर का युग आया। ट्रांज़िस्टर और डायड का प्रयोग शुरू हुआ जो बाद में इंटीग्रेटेड सर्किट (IC) में बदल गया। हाइब्रिड टेलेविज़न बनने लगे और फिर वॉल्व को सदा के लिए विदा कर दिया गया। रेड़ियो और टेलेविज़न का आकार पहले से छोटा हो गया। ये एक बहुत बड़ी क्रांति थी जो मेरी उम्र के लोगों ने देखी है। इसका प्रभाव और विस्तार इतना व्यापक था जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। एशिया 72 प्रगति मैदान में लगने वाला मेला था। जँहा पहली बार मैंने रँगीन टेलिविज़न पर समाचार प्रसारित होते हुए देखे।

टेलिफ़ोन, जी हाँ दूर संचार के इस माध्यम ने भी इसी समय मे बहुत परिवर्तन देखा है। आज़कल मोबाईल से देश विदेश बात करने और वीडियो कॉल करने वाली पीढ़ी को क्या पता कि उस जमाने में दिल्ली से जयपुर भी बात करनी हो तो ट्रंक कॉल बुक करनी पड़ती थी। STD और  ISD की सुविधा तो बहुत बाद में जा कर देखने में आई। घर में टेलीफोन लगवाने के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। लोग सांसद कोटे से फ़ोन लेने के लिए सांसदों के चक्कर काटा करते थे। हमारा ही फोन बुकिंग के 13 वर्ष बाद लग पाया था। सूचना लेकर आने वाले डाकिए ने इनाम मांगा। फ़ोन  लगाने पर लाईन मेन ने इनाम लिया। कनेक्शन शुरू करने पर फिर मिठाई के पैसे भेंट किये। और लाईन चालू रहे इसके लिए लाईन मेन से बना कर रखनी भी ज़रूरी थी। इस क्रांति में जब मोबाईल का युग आया तो सबसे पहले पेज़र आये। उसमें संदेश का आदान प्रदान ऑपरेटर के माध्यम से होता था। जिनके पास पेज़र थे वो बड़ी शान से अपनी बेल्ट में लगा कर घूमते थे।देखते ही देखते पेज़र इतिहास हो गए और उनकी जगह मोबाईल ने ले ली। फिर आया स्मार्ट फ़ोन जिसने की बोर्ड वाले मोबाईल को पीछे धकेल दिया। फोल्डिंग फ़ोन भी आये मग़र टिके नहीं। स्मार्ट फोन ही मार्किट में छा गए और आज भी अग्रणी बने हुए हैं।

स्मार्ट फोन की इस सफ़लता के पीछे इंटरनेट का बड़ा योगदान रहा है। अगली पोस्ट में इंटरनेट और कम्प्यूटर के क्रमिक विकास की बात करेंगे।



Tuesday, 1 September 2020

पहले सी दुनियां

एक कलाकार ने आत्महत्या क्या कर ली, सारे समाचार चैनलों को मानो जीवन दान मिल गया हो। सूखे पड़े खेतों में मानो वर्षा की रिमझिम फुहारें गिर गई हों। पुरानी बासी खबरों को पीछे छोड़ सभी में इस मुद्दे को भुनाने की मानो अंधी दौड़ लगी हो। नित नई कहानियां, नित नए साक्षात्कार, मुंबई पुलिस, पटना पुलिस, केंद्रीय जाँच आयोग, अंकिता, रिया, संदीप और भी न जाने कितने नाम इन्होंने रात दिन, चौबीस घँटे दर्शकों को परोसे। सारे चैनल एक ही गीत गा रहे थे, गा रहे हैं और अभी न जाने कब तक गाते रहेंगे - सुशांत को न्याय। जबकि सुशांत से इन्हें कोई हमदर्दी नहीं।  

सोशल मीडिया को ही ले लो। वो कैसे इससे अछूता रह सकता था। फेस बुक, ट्विटर, व्हाट्सएप या इंस्टाग्राम सभी पर यही चल रहा है। न जाने कौन कौन से चहरे जिन्हें हम आज से पूर्व नाम से भी नहीं जानते थे, रातो रात सोशल मीडिया पर छा गए। सभी एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं बिना ये जाने कि इसके छीटें तो उन पर भी गिर रहे हैं। पर अपना दामन कौन देखे! वो तो दूसरे का दामन मैला करने में वयस्त हैं। किसी को कोई मतलब नहीं है मरने वाले के पिता या परिवार से। इन्हें तो बस अपनी वियूइंग बढ़ानी है। कुछ तो फीता लेकर मृतक के पलंग से छत की ऊंचाई नाप रहे हैं ये बताने को कि ये आत्महत्या नहीं, हत्या है। इन्हें तो किसी जांच एजेंसी में होना चाहिए था, समाचार चैनल में पता नही क्या कर रहे हैं। सारे चैनल एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। न कोई उन्नीस न ही बीस। 

मुझे इस पत्रकारिता से न तो ऊब होती है न ही घृणा। मुझे तो उन दर्शकों पर तरस आता है जो इस तरह के घटिया समाचार देखते, सुनते हैं। फिर उन पर टीका टिप्पणी करते हैं। सोचता हूँ कितना गिर गया है पत्रकारिता का स्तर! इन सब के बीच आज भी दूरदर्शन समाचार अपना स्तर बनाये हुए है। विविध भारती से प्रसारित समाचार आज भी अपनी गरिमा बनाये हुए हैं। मेरे जमाने के लोगों ने बी बी सी न्यूज़ तो रेडियो पर जरूर सुनी होगी। शार्ट वेव के बैंड पर बड़ी मुश्किल से ये रेडियो स्टेशन लगा करता था।

 ब्लैक एंड व्हाइट टी वी पर जब सलमा सुल्तान बालों में फूल लगा समाचार वाचन करती थी तो पूरे दिन के समाचार बिना चेहरे पर कोई भाव लाये पढ़ जाती थी। न कोई शोर, न बहस, न आरोप प्रत्यारोप। बस विशुद्ध समाचार। जब से ये समाचार चैनलों का युग आया है, इसने समाचारों की, उसके प्रसारण के तरीके की धज़्ज़िया उड़ा दी। आज समाज़ में जो अशांति व्याप्त है, जो मूल्यों का ह्यास देखने में आता है, उसके लिए बहुत हद तक ये समाचार चैनल दोषी हैं। और क्यों न हो, इन्हें पैसा ही इसी का मिलता है। कुछ दिन पहले मैं कँही इनको मिलने वाली तन्खाह के बारे में पढ़ रहा था। अगर वो ख़बर ठीक है तो इन्हें माह का एक करोड़ से लेकर पचास लाख तक मिलता है। जो जितने दर्शक बटोर सके उसे उतना ही अधिक मेहनताना। 

ये समाज़ को पता नहीं कहाँ ले जाएंगे! आज कल समाचार देख मन विचलित हो जाता है। और ऐसा नहीं है कि ये केवल उल्टे सीधे समाचार ही परोसते हों। इसके अलावा और भी बहुत कुछ ऐसा दिखाते हैं जिनका समाचारों से दूर दूर तक का नाता नहीं होता। मसलन बिल्ली को कैट वॉक करते, चीतों को कम्बल ओढ़ सोते, पार्क में भूत की झूला हिलाते। 

यदि शांति चाहिए तो न्यूज़ चैनलों से और सोशल मीडिया से परहेज़ करें। आप पायेंगे कि सर्वत्र शांति है। दुनिया सुरक्षित है। कोरोना का भय कम हो गया है। दुनियां फिर पहले सी हो गई है।

बादल

दो ऊँची इमारतों के बीच एक बादल का टुकड़ा फंस गया है । इमारतें तो ठहरी सीमेंट और लोहे की। भला उस बादल की क्या औकात कि इन से उलझे! बेचारा चुपचाप टँगा हुआ है। मैं बहुत देर से इस बादल की विवशता देख रहा हूँ। पर क्या करूँ? इसे इन गगन चुम्बी इमारतों से मुक्ति दिलाना मेरे बस में नहीं है। नीले आकाश की पृष्ठभूमि में कई बादलों के दुकड़े तैर रहे है, कुछ काले, कुछ रुई से उजले तो कई स्लेटी रंग लिए। पर इस विवश टुकड़े के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है। कितने कृतघ्न हैं ये। तभी हवा बह चली इस बादल के टुकड़े को लिए हुए। हवा में तैरता हुआ ये इन इमारतों से आज़ादी की और बढ़ चला। दोनों इमारतों ने इसे पकड़ कर रखने की बहुत कोशिश की पर ये तो निकल ही गया इनके चुंगल से। अब बस अंतिम छोर बचा है। देखो ! वो भी निकल गया। इमारतों के बीच अब बस नीला आकाश है जिस पर पक्षी मंडरा रहे हैं। पीछे से एक और घने काले बादल का टुकड़ा तैरता आ रहा है। इस बात से अनजान कि इमारतों के बीच फंस सकता है। इमारतें चुपचाप किसी शिकारी की भांति खड़ी है। प्रतीक्षा में। पर ये क्या ! ये तो जैसे आया था वैसे ही आगे बढ़ गया। इमारतें खड़ी रह गईं ठगी सी।  अब बादल बेचारे को क्या पता किस राह जाना है ! बादल की इसी दीवानगी को, निदा फ़ाज़ली ने क्या शब्द दिए हैं -

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने

किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

Saturday, 11 July 2020

म्हारो राजस्थान

कुछ लोग होते हैं जो जीने के लिए खाते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे भी होते हैं जो खाने के लिए जीते हैं। ये जो खाने के लिए जीने वाले होते हैं, ये स्वभाव से घुमक्कड़ होते हैं। इन्हें, जहाँ ये रहते हैं या जहाँ भी जाते हैं, वहाँ के एक एक ऐसे स्थान को ढूंढने में दिलचस्पी होती है जहाँ बढ़िया खाने को मिलता है। दूर दूर के चाट पापड़ी के ठिकाने, होटल और ढ़ाबे, शाकाहारी या निरामिष, कुछ भी हो इनकी लिस्ट में रहते हैं। इनमें से कुछ तो स्वाद के इतने दीवाने होते हैं कि दिल्ली से मुरथल, 50 किलोमीटर मात्र परांठे खाने भी चले जाते हैं, वो भी रात के 2 बजे। अब जीभ का क्या है, कभी भी लपलपा ले। ऐसे लोगों का हाज़मा भी इतना अच्छा होता है कि चाहे कहीं भी खा लें, कुछ भी खा लें, कभी भी खा लें, सब हज़म हो जाता है। मैंने इनमें से किसी को खाने से बीमार होते नहीं सुना। इसके विपरीत, प्रथम श्रेणी के लोग जिनमें मेरे जैसे कुछ आते हैं, रोड साइड ढाबे का पानी भी पी लें तो डायरिया हो जाये, खाना तो दूर की बात है। अब इनमें से कौन ठीक है, ये एक बहस का विषय हो सकता है। पर आखिर में मरते दोनों तरह के लोग हैं। कम से कम खा कर मरने वालों को ये तो संतोष हो ही सकता है, कि उन्होंने जीवन में जी भर कर षडरस का आनंद लिया। उम्र के साथ साथ मैं अब खाने पीने में और भी अधिक सयंमित हो गया हूँ।

वैसे तो पुरानी दिल्ली अपनी चाट पकौड़ी के लिए जानी जाती है पर खाने में राजस्थान का भी जवाब नहीं। आज यूँही बैठे बैठे जोधपुर याद हो आया। उन दिनों में जवान था। वैसे तो खाने पीने में मैं शुरू से बहुत ही सयंमित रहा हूँ, पर बीस वर्ष की अवस्था कितनी संयमित हो सकती है! अकेला था, तो खाने के लिए होटलों और ढाबों पर ही निर्भर था। नाश्ते के लिए तो रावत मिष्ठान भंडार था। वहाँ सुबह सुबह, गरमा गरम कोफ़्ते और मिर्ची बड़े उतरते थे। आनन्द सिनेमा घर के पास स्टेशन रोड पर ही दुकान थी। सुबह सुबह ऑफिस के लिए तैयार हो, वहाँ चला आता। एक कोफ़्ता या फिर मिर्ची बड़ा नाश्ते के लिए बहुत होता था। अखबार के कागज़ में ले वहीं खड़े हो खा लिया, चिकने हाथ सिर से पोंछे और चल पड़े घूमते फिरते डी एस ऑफिस की ओर। रास्ते में, ठेलो पर लस्सी बिक रही होती थी। गर्मियों में तो नियम से नाश्ते  के बाद लस्सी पीनी। मिट्टी के कुंडे में चक्का दही जमा रहता। एक के ऊपर एक कई कुंडे ढक के रखे होते। खालिस दही, बिना पानी के बर्फ़ डाल कर बिलोया जाता। गाढ़ी गाढ़ी झागदार लस्सी, गिलास में भर के ऊपर से रूह अफज़ा और गुलाब डाल कर, मलाई की मोटी परत सज़ा कर जब दी जाती तो हर घूँट के साथ जो तृप्ति मिलती, शब्दों में कहना मुश्किल है।

रावत मिष्ठान भंडार की एक और विशिष्ट मिठाई थी- मावा कचौरी।  इसे मिठाई कहें या न कहें ये दुविधा है। मैदा की कचोरी में मावा भर कर उसे बनाया जाता था। फिर उसके बीच में एक गड्ढा कर उसमें चाशनी भर दी जाती थी। फिर तो पूरी कचौरी ही चाशनी में डाल दी जाती। अंदर भरे मावे में जो बड़ी इलायची का स्वाद होता था वह उस मीठे और फीके के मिले जुले स्वाद में और वृद्धि कर  उसे अपने आप में विशिष्ट दर्ज़ा देता था। 

बीच मे भूख सताए तो ऑफिस कैंटीन में ग्यारह बजे के आसपास दाल की कचौरी उतरती थी। एक कप चाय, एक कचौरी पर्याप्त थी क्षुधा शमन के लिए। दोपहर के भोजन के लिए, स्टेशन के ठीक सामने शर्मा लॉज में व्यवस्था थी। लॉज का मालिक, बड़ी बड़ी मूछों वाला भारी भरकम व्यक्तित्व का स्वामी था। वो गल्ले पर बैठा रहता। मेरा तो माह के लिए अग्रिम ही जमा होता था। आधी थाली जिसमें चार चुपड़ी तवा रोटी, तीन तरह की सब्ज़ी, एक दाल और चावल, अचार व पापड़ होता था, मेरे लिए पर्याप्त थी। गट्टे या पापड़ की एक सब्ज़ी जरूर होती थी। सब्ज़ी दाल चाहे जितनी लो, रोटियों की संख्या आधी थाली में चार तक सीमित थी। "हुकुम", "हुकुम" कहते हुए जितने प्यार से वो खाना खिलाते थे, पेट के साथ मन भी भर जाता था। खाने के बाद जो मुखवास वहाँ रखा रहता था, वो तो सोने पर मानो सुहागा ही हो। कभी कभी, बहुत मन होता तो पास की दुकान से देसी पत्ते पर मीठा पान लगवा लिया करता था। बाद में, पान खाना तो बिल्कुल छोड़ दिया था।

रात के खाने का कुछ ठीक नहीं था। जो भी मिला थोड़ा बहुत खा लिया। गन्ने का रस वहाँ रात के एक बजे भी मिल जाता था। या तो कढ़ाई का कुल्हड़ वाला दूध पियो या फिर गन्ने का अदरक, पुदिना, नींबू और मसाले वाला रस। दोनों का अपना स्वाद था। 

माखनिया लस्सी के जिक्र के बिना ये पोस्ट पूरी नहीं होगी। वैसे तो ये कई दुकानों पर उपलब्ध थी, पर हमारी एक विशेष पुरानी दुकान थी जो घन्टाघर पर स्थित थी। सोजती गेट से सीधे घंटाघर का रास्ता था। महीने में एक यो दो बार पैर स्वयं ही उठ जाते थे माखनिया लस्सी के लिए। लस्सी के नाम पर रबड़ी होती थी। एकदम गाढ़ी। चम्मच खड़ा करो तो खड़ा हो जाये गिलास में। हल्के पीले रंग की रबड़ी के ऊपर सफ़ेद माखन उसे वास्तव में माखनिया लस्सी बनाता था। उसे पिया नहीं जा सकता था, वरन चम्मच से खाया जाता था। वो लस्सी और वो स्वाद मैंने और कहीँ नहीं पाया। उसके कई वर्ष बाद मेरा पुनः जोधपुर जाना हुआ। पर न तो माखनिया लस्सी में अब वो स्वाद था, न ही मिर्ची बड़े और कोफ़्ते में। और न ही मावा कचोरी में। समय ने सब बदल दिया। पर मेरे ज़ेहन में ये सब स्वाद अभी भी ज्यों के त्यों है। 

Thursday, 25 June 2020

जिंदगीनामा

एक मुद्दत बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के नार्थ कैम्पस आना हुआ है। कार मैंने कुछ दूर ही पार्किग में लगा दी और पैदल ही चल पड़ा। जब मैंने स्कूल पास किया था तो कितने रंगीन सपने थे आँखों में इस कैम्पस में एडमिशन को लेकर। पर घर के माली हालात कुछ ऐसे थे कि कोई छोटी मोटी नोकरी तुरन्त पकड़नी आवश्यक थी। सारे सपने जिंदगी की इसी जद्दोजहद के बीच कुचले गए।

आज कोई 25 बरस बाद आया हूँ बेटी की रिसर्च के सिलसिले में। पूरा कैम्पस रंग बिरंगी ड्रेसेस पहने लड़के लड़कियों से गुलज़ार है। झुंड के झुंड इधर उधर घूमते दिखाई दे रहे हैं। हंसी ठहाकों की गूंज है। चाय के स्टाल पर भीड़ जमा है। कोई युवक कुर्ता पजायमा पहने झोला लटकाए है तो कोई युवती टाइट जीन और टॉप से सजी है। जीवन की सच्चाइयों से परे, स्कूल की बंदिशों से आज़ाद ये युवक युवतियां अपने सपनों को जी रहे हैं। एक से एक टॉप मॉडल की कारें दिख पड़ती है। एक से एक महंगी मोटरसाइकिल। मानो पैसे की कोई कमी ही नहीं है। माता पिता के पैसों के बल पर पँख लगा कर उड़ते ये युवक युवतियां क्या जाने की धरातल कितना कठोर है और जीवन कितना कठिन!

सड़क के दोनों और ऊँचे ऊँचे वृक्ष खड़े हैं। चटक लाल और पीले फूलों से लदे। काश ! मैं युवावस्था के वो बेशकीमती तीन वर्ष यँहा इस माहौल में जी पाता। विश्विद्यालय मार्ग पर बने मुख्य दरवाजे के दोनों और वर्दी पहने गार्ड खड़े है। अंदर घुसते ही सामने कुछ दूर चलकर  जवाहर गुलाब वाटिका है - गुलाबों से भरी हुई। बीच में लगा फव्वारा पूरी गति से चल रहा है। मुझे भौतिकी और खगोल भौतिकी विभाग जाना है। अपनी बेटी की रिसर्च के लिए इस शाखा की हेड ऑफ डिपार्टमेंड से मिलना है। उसकी जिद है कि उसे यही गाइड चाहिए। और ये मैडम हैं कि "हाँ" ही नहीं कर रही हैं। मानव संसाधन मंत्रालय के एक उच्चाधिकारी ने मीटिंग तय करवाई है। पूछते पूछते आखिर मैं अपनी मंजिल पर आ ही जाता हूँ।

कमरे के बाहर बोर्ड पर बड़े बड़े ब्रास के अक्षरों से लिखा था -" डॉ हरप्रीत " मैंने बाहर बैठे दरबान को अपना कार्ड दिया। बाहर आकर उसने कहा ," आप इंतज़ार करिए। मैडम अभी बुलाएंगी ।" मैं गलियारे का अवलोकन करने लगा। करीने से रखे गमलों में पौधे लगे थे। कँही कँही मनी प्लांट की बेल गलियारे के खम्भे का सहारा ले बल खाती हुई ऊपर चढ़ गई थी। गलियारे में कम ही चहल पहल थी। तभी कमरे के बाहर लगी घण्टी घनघना उठी। दरबान तेज़ी से अंदर गया और बाहर आकर बोला,"जाइये। मैडम ने बुलाया है।" मैंने अपना फ़ोल्डर सम्भालते हुए अंदर प्रवेश किया। 

एक बड़े से कमरे में जिस पर लाल रंग का कालीन बिछा था, एक मोहतरमा एक बड़ी मेज़ के पीछे ऊंचे सिरहाने वाली कुर्सी पर बैठी थी। पीछे की खुली खिड़की के  पर्दे दोनों तरफ़ करके बांध दिए गए थे जिससे बाहर का बग़ीचा नज़र आ रहा था। साइड में लगी दो लकड़ी की अलमारियों में जिन पर शीशे के दरवाजे थे, एक में तरतीब से किताबें रखी थी तो दूसरी में कई सारी ट्रॉफियां सजी थी। दूसरी साइड में सोफ़ा और सेंटर टेबल रखी थी जिस पर अख़बार और पत्रिकाएं पढ़ी थी। कुछ गमले जो चमकदार ब्रास के कवर में रखे गए थे, इंडोर प्लांट्स से सुसज्जित थे। 

इससे पहले मैं कुछ और देख पाता, वो मुझसे मुखतिब थी। "प्लीज बी सीटेड. गिव मी अ मोमेंट" एक फ़ाइल पलटते हुए वो बोली।
मैंने कुर्सी सरकाई और बैठ गया। कमरा देखने के चलते मैं इन मोहतरमा को ठीक से नहीं देख पाया था। अब मेरी दृष्टि सामने बैठी महिला पर पड़ी। साधारण सूती साड़ी जिसका पल्ला करीने से पिनअप था, काले रंग के ब्लाउज़ के साथ खूब फब रही थी। बालों में चांदी चमक रही थी पर अभी भी काफी घने थे। बालों को समेट कर जूड़ा बनाया हुआ था। चहरे पर सिल्वर फ्रेम का चश्मा, माथे के बीच छोटी सी बिंदी और कानों में डायमंड टॉप्स थे। न जाने मुझे एक पल को ये क्यों लगा कि ये चेहरा मैंने कँही देखा है। वो फाइल देखती रही और बीच बीच में नज़रे उठा कर मुझे देखती रही मानो देरी के लिए क्षमा मांग रही हो। और मैं ये सोचता रहा कि चालीस-पैंतालीस बरस पूर्व ये चेहरा कैसा दिखता होगा। तभी मेरे दिमाग़ में बाहर नेम प्लेट पर लिखा कौंधा। क्या लिखा था - "डॉ हरप्रीत" । तो क्या ये हरप्रीत है? सुना था वो भी हंसराज कॉलेज में प्रोफ़ेसर हो गई थी। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
तभी उसने फ़ाइल बंद कर एक और सरका दी। "हाँ तो बताइए मिस्टर मेहरा, मैं आपकी किस प्रकार मदद कर सकती हूँ?" उसने विनम्रता से पूछा।

मेरी उत्सुकता दबाए नहीं दब रही थी। न चाहते हुए भी मैं पूछ ही बैठा, "एक बात पूछू यदि आप बुरा न माने तो।"उसके चहरे पर प्रश्न वाचक चिन्ह उभरे।
"क्या आप किसी हरभजन जी को जानती हैं।"
उसके माथे पर त्यौरियां साफ़ देखी जा सकती थी मानो ये प्रश्न उसे नागवार गुज़रा। 
"जी, मेरे पिता का नाम हरभजन है।"
"तो आप वो ही हरप्रीत हैं जो कृष्णा नगर गली नम्बर 22 में रहती थीं।"
उसकी आँखे आश्चर्य से फटी रह गईं।"पर आप कैसे जानते हैं ये सब?"
"मुझे नहीं पहचाना? मैं गिरीश।"
"अरे भय्या तुम!" वो सीधी "तुम" पर आ गई। "कितने बदल गए हो। मैं तो पहचान ही नहीं पाई। पर तुमने खूब पहचाना।

मेरे आगे मेरा अतीत, मेरा बचपन एक बार फिर से जीवंत हो उठा।

"नी हरप्रीत। नी हरप्रीत।"
बूढ़ी दादी जोर  से चिल्लायी। जोर से चिल्लाने से उसके गले की नसें जो पहले से ही उभरी हुई थी और फूल गईं। उसका चरखा कातना रुक गया था । वो अपना उखड़ा साँस संभालने लगी। उम्र ने उसके पूरे बदन को झुर्रियों से भर दिया था। तांबे जैसे पके रंग के उस बदन पर पड़ी झुर्रियां साँप की केंचुल जैसी दिखती थी। हाथों का माँस ढ़ीला हो लटक गया था जो चरखा चलाते हुए एक गति से झूलता था। सिर पर बचे हुए बाल चाँदी से चमकते थे। पर कस कर उनकी पतली सी चोटी की हुई रहती थी। आँखों पर गोल फ्रेम का चश्मा जिसके ग्लास धुँधले हो चुके थे और जिसकी एक कमानी की जगह मोटे से धागे के लूप ने ले रखी थी, चढ़ा रहता था। कानो में मोटी मोटी सोने की बड़ी बालियां लटकी रहती। उनके वज़न से कानों के छेद बड़े हो कर लम्बाकार हो गए थे। अंत में बस जरा सा बचा हुआ माँस उनका वजन ढो रहा था। इतनी उम्र में भी वो बूढ़ी दादी  जिसकी कमर झुक कर दोहरी हो गई थी, और जो बिना लाठी के चल नहीं सकती थी, चरखा कातती, कपास की पुनियों से सूत बुनती। मैदे से सेवईयां बटती। अचार धूप में रखती फिर उठाती। हैंड पम्प से घण्टो पानी खींच कर अपने पैर धोती रहती।  गोया खाली बैठना या लेटना उसे आता ही नहीं था। गर्मियों की सुनसान दुपहरी में जब कबूतरों की गुटर गूँ ही सुनाई पड़ती, उसका चरखा चुरम चूं चुरम चूं की लय से चलता ही रहता। मैंने बचपन से उस दादी को  ऐसे ही देखा था। न घटती थी, न बढ़ती थी।

"न जाने कँहा मर जाती है, मर जानी।" वो बड़बड़ाई और एक बार पूरे जोर से फिर चिल्लायी- "नी हरप्रीत।"
"आई दादी।" कहती हुई एक 11- 12 साल की लड़की  सफेद सलवार और छींट का कुर्ता पहने, नेट का दुप्पटा सिर पर ओढ़े दौड़ी हुई आई।
"क्या है दादी? क्यों चिल्ला रही हो।"
"दादी की बच्ची। कँहा मरी थी।"
"पीछे बरामदे में पढ़ रही थी।"
"बड़ी आई पढ़ने वाली। क्या करेगी इतना पढ़ कर?  जिसे पढ़ना चाहिए वो तो सारा दिन किताब उठा कर नहीं देखता। अच्छा चल, ये चरखे की डोरी उतर गई है। इसे चढ़ा दे ठीक से। मुझे इस मुए चश्मे से दिखता नहीं है।"
"कितनी बार कहा है दादी, डैडी से बोल कर नया चश्मा ले लो। पर नहीं। जब दिखता नहीं तो पहनती क्यों हो?"
"अब मुझे चश्मे का क्या करना है? तू है न मेरा चश्मा।" दादी ने प्यार से पोती के घने बालो पर हाथ फेरा। ये दादी की बरसों की मेहनत थी जो घँटों तेल खपा खपा कर पोती के बाल इतने लंबे और घने कर दिए थे। अभी भी जब कभी खाली होती कंघी और तेल ले कर बैठ जाती पोती के सिर में डालने को। हरप्रीत उकता कर लाख बहाने करती पर मजाल है दादी घण्टे भर पहले से छोड़ दे।
"और जब मेरी शादी हो जाएगी, तब क्या करेगी दादी?" हरप्रीत बोल उठी। विवाह के जिक्र से ही उसके गाल आरक्त हो आये।
"तब तक मैं यंही बैठी रहूंगी क्या? वाहे गुरु के घर भी तो जाना है।" दादी हँस दी थी। इस उम्र में भी सारे के सारे दाँत सलामत थे दादी के। चाहे दिखाने के ही क्यूँ न हों।

ये एक छोटा सा पंजाबी परिवार था जो बंटवारे के समय पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से दिल्ली आ बसा था। हरभजनसिंह मोरी गेट में ऑटो पार्ट्स की दुकान पर काम करते थे। पत्नी के मुंह में तो मानो जबान ही नहीं थी। उसे बोलता शायद ही किसीने सुना हो। पति के क्रोध की अधिकता ने उसकी वाक शक्ति ही हर ली थी। बड़ा बेटा जो मेरा हम उम्र था गलत संगत में पड़ कर बिगड़ चुका था या इस दिशा में अग्रसर था। पढ़ाई में उसका दिल नहीं लगता था। दिन भर पतंग बाज़ी, कँचे और गिल्ली डंडा खेलना यही उसके शौक थे। उसकी जिंदगी का लक्ष्य ऑटो ड्राइवर बनना था। छोटी बेटी हरप्रीत शायद छठी कक्षा की छात्रा थी। सरस्वती का वरद हस्त इस लड़की के सिर पर था। जो भी एक बार पढ़ ले, कंठस्थ हो जाये, ऐसी मेधावी थी ये बालिका। सफेद स्कूल ड्रेस में, काले चमकते जूते और घने बालो में तेल लगा मोटी मोटी चोटियों पर लाल रिबन के फूल बांध बस्ता लटकाए जब ये स्कूल जाती तो लगता साक्षात विद्या  ही विद्या ग्रहण करने जा रही हो।  जिस दादी का जिक्र हम ऊपर कर आये हैं, वह इस परिवार का मुखिया थी। जब से मैंने होश संभाला इस परिवार को अपने साथ ही पाया। हम सब एक ही मकान में रहते थे। बीच में एक आँगन था जो साझा था। 

एक दिन मैंने देखा कि हरप्रीत दादी की गोद ने सिर रखे रो रही थी। पता चला कि छठवीं के बाद उसका स्कूल छुड़ाया जा रहा था।
"दादी, मुझे और पढ़ना है।"
"क्या करेगी आगे पढकर? हमारे जमाने में तो लड़कियों को पढ़ाया ही नहीं जाता था। अब तू तो इतना पढ़ ली। गुरबानी देख कितने अच्छे से पढ़ती है।
"नहीं दादी। मुझे कॉलेज़ जाना है बस। मुझे नहीं पता। डैडी को आपने समझाना है। मम्मी ने तो साफ़ कह दिया कि वो इस बीच नहीं बोलेगी।"
बूढ़ी दादी ने उसके सिर पर हाथ फेरा।"अच्छा अच्छा, तू रो मत। मैं बात करूंगी तेरे डैडी से।" दादी ने आश्वस्त किया। आँसू पोंछते हुए हरप्रीत अंदर चली गई।

कोई दो दिन बाद, सामने के घर से तेज़ आवाज़े आने लगीं। दरवाज़े पर चिक पड़ी होने से ये तो नहीं दिख रहा था कि कौन कौन पीछे है। पर माँ और बेटे में ठनी हुई थी।

हरभजन- मैंने कहा न नहीं जाएगी अब ये स्कूल। बस बात खत्म। इस बारे में और कोई बात नहीं होगी।
माँ- तू होता कौन है मेरे होते इस तरह हुक्म चलाने वाला? लड़की पढ़ लेगी तो इसमें बुरा ही क्या है?
हरभजन-तुझे क्या पता जमाना कितना खराब है। ये अब बच्ची नहीं रही। बड़ी हो गई है। मैंने पहले ही कहा था पाँच क्लास तक पढ़ाऊंगा। ये तो एक साल और पढ़ ली। बस अब नतीजे आ जाएं, इसका नाम कटा देना है। 
माँ- मैं भी देखती हूँ कैसे कटाता है तू नाम!

बहस चलती और बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई। दादी के सब्र का बाँध टूट कर आँखों से बहने लगा। वो आँखे चुन्नी से पोंछती बाहर आ खाट पर बैठ बड़बड़ाने लगी।
"पता नहीं क्या समझने लगा है अपने आप को। ये क्या मेरी कुछ नहीं लगती। इतना भी हक़ नहीं मुझको। वाहे गुरु ! अब तो उठा ही ले।" 

दादी न जाने कब तक स्वयं को कोसती रही। अब ये झगड़ा रोज़ की बात हो गया। दोनों पक्ष अपने अपने मोर्चे पर डटे थे। कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था। बीच में असमंजस में थी हरप्रीत। उसके चेहरे से वो हँसी इस दिनों गायब थी। वो बहुत पढ़ना चाहती थी पर उसे पढ़ाने को उसका पिता तैयार न था। और जिस बेटे को पिता खूब पढ़ाना चाहता था वह पढ़ने को तैयार नहीं था। अजीब विडम्बना थी।

 क़रीब महीना ऐसे ही गुज़र गया। हर दूसरे रोज़ झगड़ होता फिर सन्नाटा पसर जाता। अंत में तंग आ कर दादी ने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। सब की मिन्नतें व्यर्थ हो गईं, दादी ने पानी भी नहीं लिया। बहू खाना लगा कर लाती, थाली ऐसे ही पड़ी रहती खाट के नीचे।  मुझे लगा दादी अब बचेगी नहीं। दो दिन बाद बेटे ने हार मान ली और नाटक का पटाक्षेप हो गया। हरप्रीत की पढ़ाई जारी रही।

कुछ समय बाद हमनें वह मकान छोड़ दिया। बाद में सुना, हरप्रीत ने हायर सेकेंडरी में स्कूल टॉप किया था। हँसराज़ कॉलेज़ से उसने स्नातक की डिग्री ली। फिर स्नातकोत्तर कर उसी कॉलेज़ में लेक्चरार लग गई थी। उसकी तरक्की के उड़ते उड़ते समाचार तो आते रहे पर वह मकान छोड़ने के बाद उससे मिलना कभी नहीं हुआ। आज इतने बरस बाद उससे ये अप्रत्याशित मुलाकात हुई है। कितनी बदली गई है हरप्रीत। उम्र किसी को नहीं छोड़ती।

हरप्रीत ने कब चाय मंगा ली मुझे पता ही नहीं चला। मैं तो अतीत में विचर रहा था। 
"चीनी कितनी लेते हो भय्या?" उसने पूछा तो मैं वर्तमान में लौटा।
"चीनी नहीं। डायबिटिक हूँ।"
"ओह!"
चाय पीते हुए मैंने उससे मिलने का अपना उद्देश्य बताया। तो वो मुस्करा दी।
"हाँ। अब मैं ये सब नहीं करती। न जाने कितने छात्र छात्राएं मेरे अंडर पी एच डी कर के आगे बढ़ गए। मेरा रिटायरमेंट भी ज़्यादा दूर नहीं। पर तुम्हारी बेटी है तो मैं सहर्ष उसकी गाइड बनूंगी। उसे मेरे पास भेज देना। मैं बात कर लूंगी। तुम निश्चिंत रहो। समझो हो गया।"

फिर उसने मेरे बारे में न जाने कितने सवाल पूछ डाले। शादी कब हुई? पत्नी क्या करती है? जॉब कँहा है? बच्चे कितने हैं? क्या कर रहे हैं? बच्चो की शादी वादी की या नहीं? मकान कहाँ बनाया है? और न जाने क्या क्या।

"कुछ अपने बारे में भी तो बताओ।" मैंने कहा। तो वो उठ खड़ी हुई। बैग कंधे पर लटका कर बोली चलो रास्ते में बात करते हैं। मेरा क्वार्टर कैम्पस में ही है। अब इतने सालों बाद मिले हो तो घर तक तो चलो। जल्दी तो नहीं हैं? "
मैंने कहा, कोई जल्दी नहीं है। पर अधिक न रुक पाऊँगा। बेटी को खुशखबरी भी तो देनी है।और हम चल पड़े।

जल्द ही हम मुख्य कैम्पस मार्ग पर थे। शाम ढल रही थी। दोनों और लगे पेड़ो पर सैकड़ों पक्षी शोर कर रहे थे। 

"मैं पैदल ही आ जाती हूँ। कार की आवश्कता ही नहीं लगती।" उसने बात शुरू की। "फिर मुझे इन सड़कों पर इन पेड़ो के नीचे चलना अच्छा लगता है। जिंदगी यंही गुज़र गई बंद मुट्टी से रेत की तरह । कब करके, पता ही नहीं चला। जब इन लड़के लड़कियों को देखती हूँ तो ईर्ष्या होती है। कितने स्वछन्द हैं ये। हमारे जमाने में मजाल थी  कि चुन्नी सिर से सरक जाए। आठ वर्ष हो गए पति को गुज़रे। वे यंही प्रोफ़ेसर थे। अर्थशास्त्र पढ़ाते थे। एक बेटी है जो लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाती है। उसके पापा की बड़ी इच्छा थी कि वह वँहा पढ़े। उसने वंही शादी कर ली। लड़का इंडियन है। वर्ड बैंक में काम करता है। दो बच्चे हैं उसके । वह अपने परिवार में खुश है। मुझ से कहती है कि नोकरी छोड़ कर लन्दन आ रहो। अब यँहा है भी कौन अपना।" 
"और तुम्हारे घर वाले?" मैं बीच मे ही पूछ बैठा।
"घर वालो में जो थे अब नहीं रहे। और भाई को तो तुम जानते ही हो। हमनें कई वर्ष पहले नाता तोड़ दिया था। पता नहीं जिंदा भी है या नहीं।"
"ओह!"
"मैं जाती रहती हूँ बेटी के पास, पर मेरा मन नहीं लगता वहाँ। या यूं कहें, कि मैं उस तरह का जीवन जीने की आदि नहीं हूं। पति ने बहुत शौक से दिल्ली में घर बनाया था। उनके जाने के बाद मैंने बेच दिया। क्या करना था? कौन संभालता उसे। कोई कब्ज़ा ही कर बैठता।"
"तो फ़िर, रिटायरमेंट के बाद रहोगी कहाँ? ये कैम्पस का क्वार्टर तो छोड़ना होगा।"
"हिमाचल में एक छोटा सा कॉटेज ले रखा है। वहीं चली जाऊंगी। एक संस्था से बात चल रही है। छोटा सा स्कूल स्थापित कर गाँव के बच्चों के लिए चलाना चाहती हूँ। और करूंगी भी क्या? जीवन संध्या के बचे खुचे दिन वंही बिताने का सोचा है।" माहौल गंभीर हो चला था। मैंने हल्का करने को कहा,"और कितना चलाओगी?"
"बस आ ही गया।"

घँटी बजाने पर नोकर ने दरवाज़ा खोला। घर सुसज्जित था। बैठते ही नोकर ने पूछा, "क्या लेंगें आप?" मैंने कहा,"बस एक गिलास पानी पिला दो।"हरप्रीत स्वयं उठी पानी लाने को। और नोकर से अनार का जूस निकालने को कहा। मेरी नज़र साइड टेबल पर रखी तस्वीरों पर गई। दादी का एक बड़ा सा फ़ोटो गोल्डन फ्रेम में सजा था। उस पर चंदन की माला लगी थी। पास में एक और तस्वीर थी जो शायद हरप्रीत के पति की थी। बायीं और लगी एक और तस्वीर में हरप्रीत  शायद अपनी बेटी के साथ नज़र आ रही थी। पीछे लन्दन का टावर ब्रिज दिख रहा था। 

पानी देते हुए उसने मुझे तस्वीरों में अपनी बेटी और पति को दिखाया। और बोली, "दादी को तो तुम जानते ही हो। आज मैं जहाँ भी हूँ , जो भी हूँ बस दादी के कारण हूँ।" 
मैंने कहा," मुझे सब याद है।"
"मैं एक किताब लिख रही हूँ इन दिनों। शाम और छुट्टी इसी में व्यतीत हो जाती है।"

हम करीब घंटे भर बतियाते रहे। कुछ अपनी कुछ जगत की। फिर मैंने उससे विदा ली।
चलते चलते उसने कहा, कभी भाभी को लेकर आओ। खाना साथ खाएंगे। और हाँ, बेटी को भेज देना। जब भी आना चाहे। मैं कँही भी रहूं, उसकी रिसर्च मेरे अंडर ही पूरी होगी। मैं मुस्करा दिया। 

वापस जाते हुए में सोच रहा था, क्या ये वो ही हरप्रीत है जिसे मैं जानता था। शाम ढल चुकी थी। पक्षी शांत हो गए थे। विश्विद्यालय की मुख्य सड़क पर इक्का दुक्का वाहन थे। मन भी भारी हो चला था। और भारी कदम लिए मैं उस और बढ़ रहा था जँहा मैंने कार पार्क की थी। 

© आशु शर्मा



Sunday, 21 June 2020

अपराध बोध

मेरे विचार से एक भारत ही ऐसा देश है जहाँ इतनी ऋतुएं आती हैं। वसंत ,ग्रीष्म ,वर्षा शरद ,हेमंत और शिशिर। एक ऋतु से जब दूसरी ऋतु में पदार्पण होता हैै तो इस संधि में मन की विचित्र स्थिति होती है। मन न जाने कैसा सा हो आता है। पुरानी यादें, जीवन के अनुभव, घटनाएं जिनमें से कुछ अघटित रह गईं, सब स्मृति पटल पर किसी चलचित्र की भांति चलने लगता है।

जहाँ तक मेरा प्रश्न है मुझे तो इन छः ऋतुओं में से दो बहुत भाती हैं- बसंत ऋतु और शरद ऋतु। हिंदी माह के अनुसार ये समय क्रमशः चैत्र- वैशाख और भादौ- अश्विन का रहता है। एक में सर्दी विदा लेती है तो दूसरे में आगमन की पूर्व सूचना देती है। वैसे दोनों ही संधियां बीमारियों के साथ आती हैं। जरा सी असावधानी हुई और बुखार, खांसी, जुकाम ने पकड़ा। फिर भी इन ऋतु परिवर्तनों का अपना आनन्द है। चैत्र हालांकि बीत चुका है पर आज जब बाहर सूर्य ग्रहण पड़ रहा है, खाली मन में चैत्र जीवित हो उठा है। उससे जुड़ी एक घटना कुछ इस प्रकार है।

बात उन दिनों की है जब मैं कोई दस बरस का रहा हूँगा। चैत्र का आगमन हो चुका था। सर्दी की ठिठुरन अब नहीं थी। स्कूल की भी छुट्टियां थीं। सारा दिन घर में उछल कूद- बस यही एक काम था। गौरेया ने तिनके जुटाने शुरू कर दिए थे। यों तो छत पर लटके पंखे का ऊपरी कप उसका निरापद स्थान था, पर इस बार उस कप को ऊपर चढ़ा कर बंद कर दिया था। पिछले वर्ष चलते पंखे से कट कर गौरया और उसके एक बच्चे ने प्राण दे दिए थे। 

इस बार अपने चिर परिचित स्थान को न पा कर वो जोड़ा कई दिनों तक कमरे के चक्कर लगाता रहा। फिर एक दिन मैंने पाया कि उन्होंने रौशनदान में तिनके रखने शुरू कर दिए। वैसे तो यह स्थान कदापि निरापद नहीं था। और ताक लगाए घूमती बिल्ली की जद में था पर गौरेया को शायद यही सबसे उचित लगा हो। जो भी हो, मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था। पलँग से खिड़की पर चढ़ कर मैं वँहा तक पहुँच सकता था। पिछले कई वर्षों से ये देखने की उत्कट अभिलाषा थी कि अंडों से जीवन कैसे जन्म लेता है पर कोई इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं देता था। अब मैं स्वयं अपनी आँखों से देख पाऊँगा। बच्चे प्रारम्भ से ही जिज्ञासु होते हैं और यदि बच्चे की जिज्ञासा उसकी संतुष्टि तक न शांत की जाए तो वो उसे जानने समझने के अपने तरीके खोज़ लेता है। फिर चाहे वे तरीका ग़लत ही क्यों न हो। 

रोज़ दिन में दो बार उस रौशनदान तक चढ़ कर मैं उस घोंसले के निर्माण की प्रगति का अवलोकन करता। मेरे हिसाब से प्रगति कुछ ज़्यादा संतोषजनक नहीं थी। एक रात मुझे स्वप्न दिखा कि घोसलें में तीन नन्हें बच्चे हैं। नींद खुलते ही मैं भाग कर खिड़की की तानो पर चढ़ा और उचक कर रौशनदान में झांका। उनींदी आखों से मैंने देखा , जुटाए गए तिनकों पर दो चितकबरे से अंडे पड़े हैं। मैंने एक हाथ की हथेली से आँखे मली पर न तो अंडों की संख्या में कोई वृद्धि हुई और न ही अंडे बच्चों में बदले। अपने घरौंदे के पास किसी अज़नबी को पा कर, न जाने कहाँ से गौरेया का वो जोड़ा उड़ कर अंदर आ गया और चीं चीं करता कमरे का चक्कर लगाने लगा। मैं नीचे उतर आया। खिड़की की ताने पकड़ने से दोनों हथेलियां दर्द कर रही थीं। तभी माँ चिड़ियों का शोर सुन कमरे में आई। मुझे नीचे उतरता देख बोली, " वँहा क्यों चढ़ा था?"
 मैंने कहा," माँ , वँहा चिड़िया ने अंडे दिए हैं।" 

माँ ने कहा तूने अंडों को छुआ क्या? मैंने इनकार में सिर हिलाया तो माँ बोली, "छूना भी मत। नहीं तो चिड़िया उन्हें नहीं रखेगी।" 

मैंने सोचा माँ भी न मुझे बच्चा ही समझती है। अब भला चिड़िया को कैसे पता लगेगा कि मैंने उसके अंडे छुए हैं! जब चिड़िया नहीं होगी तभी तो मैं छू पाऊंगा। माँ शायद नहीं चाहती कि मैं इतने ऊपर चढूं।इसीलिए मुझे डरा रही है ।

अब तो मेरी आँखों के आगे वो ही दो अंडे रहते। कैसे सूखे से खुले तिनकों पर पड़े है। ये कोई अच्छा सा गद्देदार घोंसला नहीं बना सकते थे। बेचारे बच्चे जब इन अंडों में से निकलेंगे तो ये तिनके उनके चुभेंगे। कुछ भी हो, माँ चाहे कुछ भी कहे, मुझे इनके लिए गद्दे की व्यवस्था करनी है। स्टोर रूम में माँ ने एक रजाई की रुई निकाल कर रखी थी। मैंने उसमें से एक रुई का पैल निकाल लिया। उस पर एक महीन कपड़े का टुकड़ा रखा। अब अंडों को रखने के लिए ये गद्दा तैयार था। माँ छत पर कपड़े सुखा रही थी। मेरा कार्य क्षेत्र खाली था। मैंने  चिड़े और चिड़िया को कमरे से बाहर किया और दरवाज़ा बंद कर लिया। गौरया का ये जोड़ा बाहर मुंडेर पर जा बैठा। मैंने वो छोटा सा गद्दा निकाला और एक हाथ में ले ऊपर चढ़ गया। अंडे अभी भी वैसे ही पड़े थे। कितने निर्दयी हैं ये चिड़े चिड़िया! मैंने सावधानी से अंडों को हटाया, तिनको पर रुई का गद्दा बिछा के उस पर जेब से निकाल महीन मलमल का कपड़ा बिछा दिया। पुनः अंडों को धीरे से गद्दे पर रख मुझे एक ऐसी आत्म संतुष्टि मिली जिसे लिखा नहीं जा सकता। मैं नीचे उतर आया। 

दरवाजा खोलते ही दोनों पक्षी कमरे में घुस आए। एक दो चक्कर लगा रौशनदान पर जा बैठे। मैं उन्हें देख कर ये पता करने का प्रयत्न कर रहा था कि इस आरामदायक गद्दे पर अंडों को पा वो कितने प्रसन्न हैं। पर पता नहीं लग रहा था। मेरी आँखों मे सपने तैरने लगे जब अंडों में से बच्चे निकलेंगे तो मैं देखूंगा। उनके लिए दाना पानी की व्यवस्था भी तो करनी पड़ेगी। न जाने अभी कितने दिन लगेंगे। पूरा दिन इसी कल्पना में बीत गया। रात इस आशा को लेकर सोया कि शायद कल सुबह वो सुबह होगी जिसका मुझे इंतज़ार है। 

अभी सूर्योदय भी नहीं हुआ था। चन्द्रमा अपनी कांति खो पश्चिम में पहुँच चुका था। प्राची दिशा की लालिमा भुवन भास्कर के रथ की अग्रिम सूचना दे रही थी। माँ कब की उठ चुकी थी और कमरा बुहार रही थी। मैं तेज़ी से सीढ़िया उतर कमरे की तरफ़ भागा। माँ की नजरें बचा मैं रौशनदान तक पहुँचा। पंजे उचका के ऊपर झाँका। पर ये क्या! गद्दा यथा स्थान था पर अंडे नदारद थे। 
"माँ", मैं वहीँ से चिल्लाया। ये अंडे कँहा गए?" 

माँ झाड़ू पकड़े कमरे में आई। तब तक मैं नीचे आ चुका था।

 "माँ, ये अंडे कहाँ गए?" मैं लगभग रुआँसा हो आया था।

 "वो तो नीचे गिर कर टूट गए थे। मैं अभी तो कूड़े के साथ फेंक कर आई हूँ।"

 "क्या?" मैं अवाक रह गया। माँ की दी हुई चेतावनी मुझे याद आ गई। 

"क्या माँ, तुम जो बता रही थीं कि यदि कोई आदमी चिड़िया के अंडे छू ले तो चिड़िया उन्हें नहीं रखती, क्या ये सच है?" मुझे पूरी आशा थी कि माँ कहेगी, नहीं वो तो मैं तुझे बहका रही थी। पर माँ ने उत्तर देने की बजाय प्रश्न दाग दिया- "तो क्या तूने अंडों को हाथ लगाया था"?

 "पर माँ, मैंने तो बस रुई का गद्दा बिछा उसके ऊपर रखे थे अंडे।"

"राम राम! दो जाने चली गई न तेरे इस चक्कर में। तभी मैं सोच रही थी कि ये अंडे नीचे कैसे आ गिरे। जरूर चिड़िया ने गिरा दिए होंगे। चल अब भगवान  से माफ़ी मांग कि अनजाने में हुए इस अपराध के लिए वो तुझे क्षमा करें।"

मेरी आँखों से अश्रु बहे चले। माँ ने मुझे अपने से लिपटा लिया। और बोली, "बड़ो का कहना मानना चाहिए न।"

फिर वो जोड़ा वहाँ नहीं दिखा। कुछ दिन बाद माँ ने मुझसे वो रौशनदान भी साफ करवा दिया। जब भी चैत्र आता है ये अपराध बोध एक बोझ बन आ खड़ा होता है।








Tuesday, 12 May 2020

तन और मन

मन का और तन का बहुत गहरा रिश्ता है। मन दुःखी तो तन भी निस्तेज़। मन क्लान्त तो तन भी थका थका। मन आनंदित तो तन भी चौकड़ी भरता। जब भी मैं थका, टूटा सा होता हूँ, अपने मन का सूक्ष्म निरीक्षण करता हूँ और हर बार पाता हूँ कि तन की थकान कँही न कँही मन से जुड़ी है। ऐसा आज से हो ऐसा नहीं है। मैं तो बचपन से ही ऐसा हूँ। पहले समझ नहीं पाता था अब समझ आता है। जीवन के पन्ने जो सहज़ रक्खें हैं कुछ पीछे पलटता हूँ। मेरा बचपन तो नहीं, हाँ किशोरावस्था और उसके बाद का एक बड़ा हिस्सा रेलवे क्वाटर में गुजरा है। रेलवे कॉलोनियां अक्सर रेल की पटरी के पास होती हैं। और हमारा क्वाटर तो बिल्कुल रेलवे पटरी के पास ही था। साथ ही लगता सब्ज़ी मंडी का स्टेशन । रेलगाड़ी आती, रुकती और चली जाती। हमारे क्वाटर के साथ ही एल आकार की कच्ची जमीन थी। जिसके चारों और  मेहँदी की घनी बाड़ लगी थी। खिड़की से बिल्कुल लगा एक चंपा का पेड़ था जिसके फूलों की मदहोश करने वाली महक  विशेष कर रात में पूरे घर में तैरती रहती। मेहँदी की बाड़ में कुछ दूरी पर दो शहतूत के पेड़ अपने आप ही उग आए थे। पूरे गार्डन में क्वाटर की दीवार के साथ साथ देसी ग़ुलाब लगा था। फूल इतने उतरते कि गुलकंद बना लो। आँगन की तरफ़ बाहर की और बोगनविलिया की लता चढ़ गई थी जो रानी कलर के पुष्पों से लदी रहती थी। पीछे से चढ़ कर लता अंदर आँगन के ऊपर दीवार के साथ साथ छा गई थी। जिस पर गौरैया फुदकती रहती और गिलहरियाँ चढ़ती उतरती रहती। इस लता ने आँगन के एक हिस्से के ऊपर छत सी तान दी थी। इसी के नीचे ठंडक में मैं खाट डाल कर पढ़ता था। जब कभी मन क्लान्त होता ये कुंज मेरे को बड़ी राहत देता। ठंडी हवा बहती हुई अपने साथ स्टीम इंजन के धुएं की गंध भी ले आती। पक्षियों का स्वर और गिलहरियों का शोर मुझ पर मरहम का काम करता। साथ मे लगी रसोईघर की खिड़की में माँ काम करती दृष्टिगोचर होती रहती। दीवार के पीछे लगे ग़ुलाब भी हवा के किसी झोंके के साथ अपनी ख़ुशबू अंदर आँगन में उँड़ेल देते। क्लान्त मन प्रफुलित हो उठता। तन में आनन्द भर जाता। खाट पर खड़ा हो मैं हाथ से बोगनविलिया की लता हिलाता तो वो लता ढेर सारे पुष्पों की मुझ पर वर्षा कर देती। मुझे याद आता जब मैं बहुत छोटा अज़मेर चाचा जी के यँहा जाया करता था तो उनके क्वाटर के बाहर एक पारिजात का वृक्ष लगा था जो अल्ल सुबह अपने सारे पुष्प पृथ्वी पर गिरा उस धरा की पूजा करता था जिसने उसे धारण किया था। मुझे लगता कि बोगनविलिया की ये लता पुष्प वर्षा कर मेरा अभिनन्दन कर रही है। मन में छाए आनन्द का तन पर तुरंत प्रभाव पड़ता और मेरी सारी थकान न जाने कँहा गायब हो जाती। मैं आनन्दित हो बाहर निकल आता और नंगे पैर ही बाहर बिछी हरी घास के मैदान में दोनों हाथ फैला कर दौड़ता। बहती हवा मेरे चहरे से टकराती और मुझे एक नई ऊर्जा से भर देती। रेलगाड़ी मेरे सामने से गति बढ़ाती निकलती तो मैं साथ साथ दौड़ता जब तक वह मुझसे आगे नहीं निकल जाती। पास में उगे आक के पौधों को देखता मैं लौट पड़ता। एक नई ऊर्जा के साथ। हवा में चौलाई लहराती रहती। और हिलोरे लेता मेरा मन तैयार होता एक नया आकाश छूने को।



Saturday, 2 May 2020

बेसुरी जिंदगी

आज सुबह भी सैर पर नहीं जा सका। दूध और सब्जी ला उसे रखने में ही आठ बजे गए। धूप चढ़ आई थी तो सैर का विचार त्याग दिया। इस कोरोना और लॉक डाउन ने जीवन की लय, ताल सब बदल दी। बज तो रहा है पर सुर कहीं खो गए हैं। दूध लाओ तो पहले थैली साबुन में धो। सब्जी लाओ तो पहले उसे नमक ओर सोडे के घोल में डुबो के रखो। फिर रगड़ के साफ पानी से धो और पोंछो। कुछ लोग तो पॉलिथीन की थैलियों को भी धो कर सुखा रहे हैं। बाहर निकलो तो मुख लँगोट धारण करो। कोई खाँस दे या छींक दे तो लोग ऐसे भागते हैं, मानो साक्षात मृत्यु के  दर्शन कर लिये हों। मरनेे से कितना डरता है आदमी ! ये जानते हुए भी कि एक दिन सभी को मरना है। फिर भी हर कोई चाहता है कि बस मैं न मरूँ। जब कि सत्य ये है कि जन्म के साथ ही मृत्यु भी जन्म लेती है। उसका तरीका, स्थान और समय सब जन्म के साथ ही निश्चित हो जाता है। पर फिर भी इन्सान कितना भयभीत रहता है। पर कर्म करना तो व्यक्ति का अधिकार है। इसलिए जब तक संभव हो मृत्यु को टालने के लिए, उससे बचने के लिए हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि शरीर से ही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष - चारो पुरुषार्थ सधते हैं। मुझे लगता है हम सब वही कर रहे हैं। बस अंतर इतना है कि डर कर कर रहें है। इसी भय ने जिंदगी बेसुरी सी कर दी।

इन्हीं खो गए सुरों को ढूढ़ने मैं संध्या को बाहर आ गया। वैसे भी मधुमेह के रोगी को रोज़ चलना अनिवार्य है। बाहर हवा अच्छी चल रही थी। पेड़ साथ साथ झूम रहे थे। आकाश कँही नीला तो कँही सपाट सफ़ेद सा था। पक्षी अपने डैन फैलाये उड़ रहे थे। कितनी सरलता से हवा में तैरते है ये पक्षी भी। कभी कभी पंख फड़फड़ा के अपनी उड़ान को गति देते हैं और फिर पँख फैलाये तैरते चले जाते है। अबाध आकाश में। इन्हें पिंजरे में कैसा लगता होगा ये इंसान शायद अब अच्छी तरह से समझ रहा होगा जब वह स्वयं कैद है। इन दिनों आकाश में कोई जहाज़ भी नज़र नहीं आ रहा। कोरोना ने सब को ज़मीन पर ला खड़ा किया है। नहीं तो एक के पीछे एक लाल नीली बत्तियों को जलाते बुझाते ये उड़ते ही रहते थे। पास ही कँही मोर कूक रहा था - "मेह आओ"। शायद बारिश हो रात में। हवा में तो ठंडक सी थी। पीपल के पेड़ तले दो दिए जगमगा रहे थे। अगरबत्ती की सुगंध आस पास फैल रही थी। आकाश भी नीलिमा छोड़  कालिमा ओढ़ चला था। एक चमगादड़ अंजीर के पेड़ से उड़ा और घने नीम में जा ओझल हो गया। यही तो है सारे फ़साद की जड़ जिसने जीवन को रोक सा दिया है। पर इसने कब चाहा था कि ऐसा हो। आदमी ने अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए, इस निरीह पक्षी की भी बलि चढ़ा दी तो प्रकृति कुपित हो गई। आख़िर प्रकृति सब की माता है। पर ये वॉयरस तो बड़ा ही कृतघ्न निकला। जिस इंसानी जिस्म ने इसे आश्रय दिया उसी पर कब्ज़ा कर उसे नष्ट करने पर आमादा है। देखा जाय तो ये अस्तित्व की लड़ाई है। वॉयरस अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और इंसान अपने अस्तित्व के लिए। जीत तो अंत में इंसान की ही तय है। देखना ये है कि इस में समय कितना लगता है और इस युद्ध में कितने इंसानों की बलि चढ़ती है।
 
कॉलोनी में आने वाली एक कार से विचारों की श्रंखला भंग होती है। थक भी चुका हूँ। संध्या बीत रही है। मैं अंदर आ जाता हूँ। रसोई घर से आलू की टिक्की की ख़ुशबू उड़ रही है। आज रात्रि का भोज यही है। अच्छे से सिक कर करारी हो तो चटनी और सौंठ के संग स्वाद लिया जाए। शायद जिंदगी सुर में आ जाये। 

Wednesday, 22 April 2020

अर्थ का अनर्थ

इन दिनों जब विश्व कोरोना महामारी से त्रस्त है, एक संदेश खूब वायरल हो रहा है जिसमें श्री रामचरितमानस के उत्तरकांड की निम्न चौपाइयों के माध्यम से अनर्गल व्याख्या करते हुए ये कहा जा रहा है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कोरोना की भविष्यवाणी तब ही कर दी थी। संदेश कुछ इस प्रकार से है:

"रामायण के दोहा नंबर 120 में लिखा है जब पृथ्वी पर निंदा बढ़ जाएगी पाप बढ़ जाएंगे तब चमगादरअवतरित होंगे और चारों तरफ उनसे संबंधित बीमारी फैल जाएंगी और लोग मरेंगे और दोहा नंबर 121 में लिखा है की एक बीमारी जिसमें नर मरेंगे उसकी सिर्फ एक दवा है प्रभु भजन दान और समाधि में रहना यानी  लोक डाउन।"

और यह संदेश शिक्षित व्यक्ति भी बिना सोचे समझे, धड़ाधड़ आगे प्रेषित करते चले जा रहे हैं। जिन चौपाइयों और दोहे को इस संदेश से जोड़ा गया है वह मैं नीचे दे रहा हूँ।

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥

सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दु:ख पावहिं सब लोगा॥

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥

मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥

मैं कोई मानस का मर्मज्ञ तो नहीं पर बचपन से मानस पढ़ता रहा हूँ इसलिए इतना अवश्य जानता हूँ कि इस संदेश में इन चौपाइयों को कैसे तोड़ा मरोड़ा गया है। आइए इस का संदर्भ देखते हैं। उपरोक्त चौपाइयां उत्तरकाण्ड से उधृत हैं। प्रस्तुत प्रसंग में कागभुशुण्डि और गरुड़ जी आपस में संवाद कर रहे हैं। गुरुड़ जी द्वारा निम्न सात प्रश्न किये गए;

1 सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है?

2 सबसे बड़ा दुःख कौनसा है?

3.सबसे बड़ा सुख कौनसा है?

4.संत और असंत का मर्म क्या है?

5.महान पुण्य कौनसा है?

6.सबसे भयंकर पाप कौनसा है?

7. मानस रोग कौन कौन से हैं?

इन्हीं का उत्तर देते हुए छटवें प्रश्न के उत्तर में काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि परनिन्दा के समान कोई पाप नहीं है। आगे इसका फल बताते हुए वे बताते हैं कि गुरु की, शंकर जी की, ब्राह्मणों की, देवताओं की, वेदों की और संतो की निंदा करने वाले मनुष्य किस किस योनि में जन्म लेते हैं। (ये इन चौपाइयों में नहीं है) और अंत में कहते हैं कि वो मूर्ख मनुष्य जो उपरोक्त सभी की  निंदा करते  हैं, वह अगले जन्म में चमगादड़ योनि में जन्म लेते हैं।  (ये सबसे निकृष्ट योनि मानी गई है।) इसके बाद कागभुशुण्डि जी अंतिम प्रश्न का उत्तर देते हुए बताते हैं कि मानसिक रोग कौन कौन से हैं जिनसे सब दुःख पाते हैं। कहते हैं कि सब मानस रोगों की जड़ अज्ञान ही है अज्ञान से और बहुत सी मानसिक व्याधियां जन्म लेती हैं। (आगे मानसिक रोगों को समझाने के लिए शारीरिक व्याधियों से तुलना करते हैं।) काम जो है उसे वात जानो, और लोभ को कफ़ समझो। क्रोध तो मानो पित्त ही है जिससे सदा छाती जलती रहती है। (आयुर्वेद सभी शारीरिक रोगों की जड़ में कफ़, वात और पित्त की बात करता है। जब तक ये तीनो सामंजस्य में रहते हैं, मनुष्य स्वस्थ रहता है। इनमें से एक भी बिगड़ जाए तो शरीर में रोग की उत्तपत्ति हो जाती है। इन्हीं को इंगित कर गोस्वामी जी मानसिक रोग समझा रहे हैं।) आगे कहते हैं और यदि ये तीनों - काम, क्रोध और लोभ मिल जाएं तो भयंकर सन्निपात रोग हो जाता है। (अर्थात मनुष्य अपने होश खो बैठता है।) आगे बताते हैं कि जितनी भी कामनाएं हैं, ये कभी न खत्म होने वाली हैं। ये अनन्त, अधूरी कामनाएं मनुष्य को शूल सी चुभती रहती हैं। इस संसार में एक ही (शारीरिक) रोग से मनुष्य मर जाता है तो फिर ये मानसिक रोग तो असाध्य हैं। ऐसी दशा में मनुष्य शान्ति (समाधि) को कैसे प्राप्त कर सकता है?  आगे कहते हैं कि ये मैंने कुछ मानस रोग बताए हैं जो संसार में हैं तो सबको परन्तु इन्हें जान कोई बिरला ही पाया है।(देखा जाय तो संसार मे सभी काम, क्रोध और लोभ से ग्रस्त हैं। पर मनुष्य इन्हें रोग मानता ही नहीं। और जब मानता ही नहीं कि वह रोगी है तो इनकी औषधि क्यों कर करेगा।) आगे इनकी औषधि बताते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा संयोग बने कि मनुष्य पर प्रभु राम की कृपा हो और उसका अज्ञान नष्ट हो जाये जो समस्त विकारों की जड़ है तभी ये सारे रोग नष्ट हो सकते हैं। 

ये तो हुआ उपरोक्त चौपाइयों का भावार्थ। कोई मानस मर्मज्ञ ही इनकी विस्तृत व्याख्या कर सकता है। परन्तु यँहा उसकी आवश्यकता नहीं है। अब देखिए इन चौपाइयों और दोहे का क्या ही अनर्थ किया है। चमगादड़ का नाम देखते ही उसे करोना से जोड़ दिया। और समाधि को लॉक डाउन बना दिया। प्रबुद्ध जनों से मेरा निवेदन है कि बिना जाने समझे इस तरह के संदेश आगे न प्रेषित करें। मानस की प्रत्येक चौपाई मन्त्रवत है। उसका ऐसा घोर अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है।

भावार्थ की अशुद्धियों के लिए ज्ञानीजन मुझे क्षमा करें। प्रभु से प्रार्थना है कि विश्व को जल्द रोग मुक्त करें जिससे मानव कल्याण हो।



Sunday, 19 April 2020

मानव और प्रकृति

कल शाम अचानक तेज़ हवाएं चलने लगीं। आसमान काले बादलों से आच्छादित हो गया। और बारिश शुरू हो गई। मैं ड्राईंग रूम में खिड़की के पास लगे सोफ़े पर बैठा था। अक्सर धूल के कारण बंद रहने वाली खिड़की का एक शीशा आज खुला था। हवा के झोंके पास लगे पाम की पत्तियों से खिड़की की जाली बजा रहे थे। शीशा खुला रहने से हवा ने ड्राईंग रूम में अनाधिकार प्रवेश कर लिया था। मेरी पत्नी शीशा बंद करना चाहती थी पर मैंने मना कर दिया। बारिश की बूंदों के साथ मिट्टी की सौंधी सुगन्ध नासा छिद्रों से होती हुई सीधी ह्रदय तक उतर गई। मैंने लम्बी श्वास ली। मैं उस भीनी सी महक को अपने भीतर समा लेना चाहता था। तड़ तड़ बूंदे बजती रही। तप्त धरा इनका आघात भी कितनी प्रसन्नता से झेलती है। बूंदों का संगीत जारी था। बीच बीच में तड़ित कौंध जाती, मानो तबले पर संगत दे रही हो। अंधेरे आकाश में एक चमकती सी रेखा उदित होती और उसी क्षण लुप्त हो जाती। थोड़ी देर में वर्षा रुक गई। पर हवा अब भी चल रही थी। आकाश अब भी रह रह कर गरज़ रहा था। नींद से पलकें भारी हो रही थीं। मैं सोफ़े पर ही पसर गया।

सुबह जब सैर के लिए निकला तो कल की आंधी के निशान चहुं ओर सूखे पत्तों में बिखरे पड़े थे। आकाश में अब भी बादल थे। पर प्राची दिशा में भुवन भास्कर लालिमा फैलाए अपने आने का संदेश दे रहे थे। पतझड़ अब बीत ही चुका है। रहे सहे सूखे पीले पत्ते कल के अंधड़ से लड़ते हुए धराशायी हुए पड़े थे। सभी वृक्ष पत्तो से पूरी तरह भर गए हैं। दो पीपल के वृक्ष भी जो कल तक लाल लाल कोंपलों से सुसज्जित थे, बड़े बड़े गहरे हरे पत्तो से ढक गए हैं। वृहद नीम भी घना हो गया है। उस पर आयी  बौर आंधी की भेंट चढ़ गई है। उसके नीचे से गुज़रते हुए निबौली की चिर परिचित गन्ध आती है।  बचपन में हमारे घर के सामने एक बहुत घना नीम का वृक्ष था। उसके चारों ओर पक्का गोल चबूतरा था। मोहल्ले की महिलाओं की दोपहरी वहीं व्यतीत होती थी। और हम बच्चे, मूँज की खाट पर गीली धोती मुँह तक ओढ़ कर लेट जाते थे। भरी गर्मियों में वही हमारा वातानुकूलित स्थान था। भूख लगे तो पकी निबौलियों को चूस कर सारे में गुठलियां बिखेर देते। वर्षा ऋतु आती तो ढेर से नन्हें नन्हें नीम के पौधे कुकरमुत्तों से उग आते। आज भी बिल्कुल वही जानी पहचानी निबौलियों की सुगंध आ रही है। 

पास की दीवार पर चार पांच मधु मालती की बेलें चढ़ी थीं। उनमे से एक कल शाम की आंधी बारिश से नीचे आ पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक एक ऐसी ही घनी बेल हमारे रसोईघर की खिड़की के पास से होती हुई छत तक गई हुई थी। ग्रीष्म ऋतु में जब वह पुष्पों से भर जाती तो मधु मालती की गंध से आसपास तक का वातावरण महकता रहता। अब वो नहीं है। माली ने गिर पड़ने पर काट दी थी। कनेर भी पीले पुष्पों से पुष्पित हो रहा है। वन में जब भगवान कृष्ण गाय चराने जाते तो इन्हीं कनेर के पीताभ पुष्पों से अपने को सजाया करते थे। अनार का एक ही पेड़ है यँहा। उस पर कुछ लाल लाल पुष्प आ गए हैं। आम पर भी नए पत्ते आ चुके हैं। पर बौर इस वर्ष नहीं के बराबर है। गत वर्ष तो यह खूब फला था। कँही पास ही कोयल कूक रही है। कबूतर, तोते, मैना और कौवे पास ही दाना चुग रहे हैं। मेरे आने की आहट से उड़ कर तितर बितर हो जाते हैं। 

प्रकृति अपने पथ पर अग्रसर है। जब हम इसके साथ इतनी छेड़ खानी करते हैं कि अपनी सीमा लांघ जाते हैं तो ये पलटकर जवाब देने पर विवश होती है। क्यों हम अपनी हद पार करते हैं आखिर! क्या चाहिए हमें? मुझे नहीं पता । पर एक बात सिद्ध है कि मनुष्य इस विश्व का मालिक नहीं है। इस का संचालन हम नहीं कर रहें हैं। जितनी जल्द मनुष्य ये समझ जाएगा उतना ही उसका हित सधेगा। वरन वो ऐसे ही घरों में कैद हो कर रह जायेगा।
 

Saturday, 11 April 2020

बेमतलब

रात आधी बीत चुकी है। सोने के सारे उपक्रम नाक़ाम रहे हैं। बेड रूम से ड्राइंग रूम और पुनः बेड रूम कई बार स्थान परिवर्तन कर लिया कि कहीं तो नींद आएगी पर  कम्बख़्त नींद है कि पता नहीं कहाँ नदारद है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पर आज तो हद ही हो गई। आख़िर जबरदस्ती आंखे मूंद कर कोई कब तक लेटा रह सकता है। 
बचपन में भरी दुपहरी में जब सूर्य पूरे ताप पर तपता था तो माँ हम बच्चों को ले कर हमारे पास रह रहे चाचा जी के घर आ जाती थीं। तब हमारे पास बिजली का पँखा नहीं था। हाथ का पँखा कोई कब तक झलता। चाचा जी के यँहा उषा कम्पनी का छत का पँखा था। हमारी चाची हमारी मौसी भी थीं। तो माँ हम बच्चों को ले कर गर्मियों की दोपहरी में पंखे के कारण चाचा जी के आ जाती थीं। हम दोनों भाइयों को अपने साथ ले कर ठंडे फर्श पर माँ लेट जातीं। हम भी आँख मूंदे पड़े रहते और जैसे ही लगता कि माँ सो चुकी हैं, हम खिसक लेते तपती दुपहरी में बाहर आँगन में खेलने के लिए। 
पर  इतनी रात में अब कहाँ निकलूँ। तंग आ कर ड्राइंग रूम के सोफ़े पर पसर गया हूँ । साइड लैम्प जला कर ये पोस्ट लिख रहा हूँ। शायद नींद आ जाये।
बाहर चारों ओर नीरवता का साम्राज्य फैला है। सभी सो चुके हैं। आज तो झींगुर भी नहीं बोल रहे। ये समय पढ़ने के लिए सबसे बढ़िया है। मैं अधिकतर रात में ही पढ़ता था। पर अब क्या करूं?  सिर पर पँखा पूरी गति से घूम रहा है। भूख सी भी लग आई है। पर खाऊंगा कुछ नहीं। बस नींद आ जाये किस तरह! 
21 मार्च से घर मे बंद हूँ। वही एकरसता। अभी पता नहीं कितने  दिन और बंद रहना है। दिन में सो जाता हूँ तो रात में नींद कैसे आएगी? बस आज कुछ अधिक ही हो गया। लेटते ही नाक बंद हो जाती है। फिर उठ बैठता हूँ। घड़ी की सुइयां आगे बढ़ रही हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते घूमते अपना अर्ध चक्र पूरा कर चुकी है। कुछ घँटों बाद सूर्य नारायण उदय हो जाएंगे। इस कोरोना की महामारी ने पूरे विश्व में उथल पुथल मचा दी है। कितने ही लोग काल के गाल में समा गए। पता नहीं ये कब समाप्त होगी? उम्मीद कम है कि 15 अप्रैल से लॉक डाउन खुल जायेगा। और दो तीन दिन में पता चल ही जायेगा। पहले कोई छींकता था तो लोग "गॉड ब्लेस यू" कह कर आशीर्वाद दिया करते थे। अब कोई छींक देता है तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे वो व्यक्ति न हुआ, वायरस की चलती फिरती फैक्ट्री हो गया। अरे चैत्र और क्वार माह में तो ये सब बहुत आम हुआ करता था। पर अब तो छींकते, खांसते भी डर लगने लगा है। क्या किया जाय। जाहि विधि राखे राम। चलिए, जै राम जी की। सोने का प्रयत्न करता हूँ। नींद तो नहीं आ रही पर आँखे थक गई हैं। इन्हें आराम देना आवश्यक है। 
 

Tuesday, 31 March 2020

तीर्थ यात्रा और कोरोना

गुप्ता जी जब से मथुरा वृन्दावन का एक सप्ताह का ट्रिप लगा के आये थे, बहुत खुश लग रहे थे। श्रीमती जी उनकी इस प्रसन्नता पर कुछ हैरान तो कुछ परेशान सी थीं। कितना कहा था कि मुझे भी साथ ले चलो। पर नहीं, अभी तो तुम्हारे घुटनों का ऑपेरशन हुआ है ज्यादा चलना फिरना ठीक नहीं, कह कर टाल गए। और चल दिये अकेले। कहा था कम से कम रोज फ़ोन तो कर देना पर कहाँ सुनते हैं। गए तो ऐसे गए कि वापस आने पर ही आवाज़ सुनाई दी। आख़िर कुछ तो होगा उस पवित्र स्थल में जो गुप्ता जी जैसे व्यक्ति इतने प्रसन्न रहने लगे थे । कल ही कह रहे थे कि वर्ष में एक बार तो जाना बनता है। आखिर ये रिटारमेंट के पैसे किस काम के जो आखिरी वक्त में धर्म कर्म नहीं किया। 

अभी देखो सुबह के 11 बजे हैं और साहब सो रहे हैं। रात में पता नहीं किस किस से वीडियो चेटिंग करते रहते हैं। जब से वृन्दावन से आये हैं, सोना भी अलग कमरे में शुरू कर दिया है। कहते हैं मैं देर रात तक जागता हूँ  तुम्हारी भी नींद खराब होती है। तुम्हें सुबह जल्दी उठना होता है इसलिए मैं दूसरे कमरे में सो जाऊंगा। 

गुप्तानी अभी मन ही मन बड़बड़ा रही थी कि दरवाज़े की घन्टी खनखना उठी। ये लॉक डाऊन में कौन मरा आ धमका! इन्हें तो कोई लेना देना है नहीं।

"अजी सुनते हो?" गुप्तानी ने जोर से गुप्ता जी को आवाज़ दी।
"जरा देखो तो, दरवाज़े पर कौन है"?

गुप्ता जी ने सुना अनसुना कर दिया। तकिया मुँह पर रखा और करवट बदल कर लेटे रहे।

"ये तो किसी काम के नहीं हैं। मैं ही देखूं।" बड़बड़ाते हुए गुप्तानी उठी । अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए दरवाज़ा खोला, तो बाहर दो अजनबी खड़े थे।
"जी, कहिये! किससे मिलना है?"
"त्रिभुवन दास जी का घर यही है?", एक ने पूछा।
"जी, बताइए?"
"गुप्ता जी घर पर ही होंगे?"
"जी, सो रहे हैं। कहिये?"
"आप?"
"मैं उनकी धर्मपत्नी, नंदनी  गुप्ता।"
"देखिए, हम भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग से आये हैं। क्या आपके पति 20 फरवरी से 27 फरवरी तक टूर पर थे?"
"जी, मथुरा वृन्दावन गए थे।"
"पर हमारी जानकारी के हिसाब से इस दौरान वह बैंकाग, पटाया और मकाऊ में थे।"
"देखिए, आपको कोई गलतफहमी हुई है।"
"मैडम, कोई गलतफहमी नहीं हुई है। ये थाई एयरवेज़ से ली गई डिटेल्स है। ये उनका पासपोर्ट नम्बर है और ये उनका मोबाइल नम्बर और पता है जँहा हम खड़े हैं। हम दो दिन से उनसे संपर्क साधने की कोशिश कर रहे हैं पर उनका मोबाइल बंद पड़ा है।"
गुप्तानी को जमीन घूमती दिखाई दी। इतना बड़ा धोखा! सूखे गले से वो इतना ही पूंछ पाई,"क्या वो अकेले गए थे?"
"जी नहीं। उनके पी एन आर पर उनके अतिरिक्त एक अन्य महिला भी थी- जहान्वी वर्मा।"
"क्या?", गुप्तानी इतना ही कह सकी फिर धम्म से  दरवाज़े पर ही बैठ गई।
"उन्हें बुलाइये। उन्होंने अपनी ट्रेवल हिस्ट्री छिपाई है। हमें उन्हें 14 दिन तक बिल्कुल अलग थलग रखना है। और आपका भी टेस्ट होगा। आपको पता नहीं क्या, कोरोना वायरस किस कदर फैल रहा है!"
और गुप्ता जी जो थाईलैंड के स्वप्निल संसार में खोये थे इस बात से बिल्कुल अनिभिज्ञ थे कि पिछले दस मिनटों में कोरोना ने उनकी जिंदगी कितनी बदल दी थी। बाहर उनकी धर्मपत्नी श्रीमती नंदनी  गुप्ता अपने समस्त आयुधों को धारण कर  दुर्गा का रूप धारण कर चुकी थी।

Monday, 23 March 2020

कोरोना और लॉक डाउन

जीवन के 61 वर्षों में ऐसी स्थिति कभी न देखी थी। लॉक आउट तो सुना था पर लॉक डाउन कभी नहीं सुना था। खैर जब हो ही गया है, तो घर में बंद रहने के सिवाय चारा भी क्या है। पिछले तीन सप्ताह से सोशल मीडिया पर इतनी पढ़ाई कर ली कि कोरोना वायरस पर एक शोध पत्र लिखा जा सकता है। 

इतना ही नहीं, ये भी पता चला कि थाली, घन्टी और शंखनाद से खेतों में विषाणु नष्ट हो जाते हैं। वो बात अलग है कि दिल्ली जैसे महानगर में खेत खलिहान बचे ही कितने हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से इन जीवाणुओं और विषाणुओं में कोई दिलचस्पी नहीं है। ये जिनका क्षेत्र है वह ही जाने। बहरहाल हाथ धोये जा रहा हूँ। 

वैसे हमारे परिवार में हाथ धोने की पुरानी परम्परा है। बचपन में माँ हाथ धुलवाती थी अब पत्नी धुलवाती है। धुले हाथ भी धुलवा ही देती है। पीछे से यदि हाथ गीला न हो तो उसका मानना है कि हाथ धुले ही नहीं। कई बार तो मैं खीझ भी जाता हूँ कि कहो तो कंधे तक धो लूं! 

मैं कोरोना वायरस पर कुछ नहीं लिखूंगा ये मैंने सोचा है। अरे, न तो मैं कोई चिकित्सक हूँ और न ही माइक्रोबायलॉजी के क्षेत्र से हूं। मैं तो सरल ह्रदय लेखक हूँ जिसे अपने आस पास की प्रकृति बहुत सुहाती है। जिसे वर्षा से पहले धरा से उठती मिट्टी की सुगंध नासा छिद्रों में गहरे तक भरना बहुत आनन्दित करता है। जिसे फूल,तितलियाँ, भँवरे अच्छे लगते है। जो अभी भी , जीवन की संध्या में भी , एक बच्चा ही है। जिसे सुबह सुबह उगते सूर्य की लाली भाती है। चंद्रमा की शीतलता जिसे भीतर तक शीतल कर देती है। जो प्रभु की इस प्रकृति को जी भर के आत्मसात करना चाहता है। मुझे इन विषाणुओं और जीवाणुओं से क्या काम! 

घर में बंद रहना भी एक सज़ा सी है। मुझे सोना बहुत पसंद है। तकिया मुँह पर डाल कमरे में अंधेरा कर, अपनी कल्पना के संसार मे विचरते हुए मैं कब निद्रा में लीन हो जाता हूँ पता ही नहीं चलता। पर सोया भी जाये तो कितना? दिन में सो लूँ तो रात्रि में नींद नहीं आती। फिर मैं अपना कैमरा निकाल लेता हूँ और बाहर कॉलोनी में आ जाता हूँ। पर फ़ोटोग्राफ़ी के लिए भी तो नई नई लोकेशन चाहिए। वो ही फूल, वो ही पेड़, वो ही पौधे, वो ही पक्षी और वो ही बन्दर। आख़िर कोई कितनी फ़ोटो खींचे? कुछ ही देर में कैमरा वापस रख देता हूँ। 

फेस बुक खोलो या व्हाट्सएप सब कोरोना से संक्रमित हैं। आख़िर करें क्या? ये एक बड़ा प्रश्न है। सोचता हूँ, कुछ समय बाद तो ये सामान्य दिनचर्या हो जाने वाली है। रिटायरमेंट के बाद तो लॉक डाउन होना ही है। बस बाहर निकलने पर प्रतिबंध नहीं होगा। और न ही होगा कोरोना का भय। तब की तब सोचेंगे। अभी तो पलकें भारी हो रही हैं। एक झपकी ले ली जाए। 

बाहर कोई पक्षी बहुत ही मीठे स्वर में बोल रहा है। मानो लोरी सुना रहा हो। ऐसा ही सन्नाटा है। माँ की गोद में साडी का पल्लू ढके मैं सोने का उपक्रम कर रहा हूं। माँ धीरे धीरे थपकी दे रही है। चन्दा मामा दूर के ..उसकी लोरी जारी है। पास कँही कोई हैंड पम्प चला रहा है। पलके बोझिल हैं और मैं सो गया हूँ। स्वपन जारी है....

Tuesday, 10 March 2020

जीवन चक्र

घने पेड़ की पत्तियों में छिपा एक खोंसला था। बहुत ध्यान से देखें तो ही नजर आ पाता था। निरापद, मौसमी आपदाओं से सुरक्षित। एक छोटी सी चमकीली चिड़िया का परिवार आ बस था। मादा खोसलें को और नरम बनाने के लिए कपास के फूल ले आती। नर उन फूलों से कपास निकाल के घोसलें में बिछाता। पेड़ की घनी पत्तियां उस को धूप, आंधी और वर्षा से बचाती। एक और से अंदर जाने का मार्ग था तो दूसरी और से बाहर आने का। समय पर चिड़िया ने अंडे दिए। थोड़े दिनों में उनमें से नन्हें बच्चे निकले। बिना फर के आंखे बंद किये। जब क्षुधा सताती तो छोटी सी चोंच खोल कर चीं चीं करते। चिड़िया जब दाना लेने जाती तो नर नन्हें बच्चों की रखवाली करता। नर और मादा बारी बारी से उड़ते, मेहनत करते और आस पास से बच्चों के लिए भोजन का प्रबंध करते। अब बच्चों के फर आ गए थे। आंखे खोल वे अपने बाहर का संसार देखेने लगे थे। नीला अम्बर, घना पेड़, हरियाली और सुंदर प्रकृति उनका मन मोहने लगी थी।कुछ दिन में उनके पर आ गए। मां ने उन्हें उड़ना सिखाया। कुछ दिन में वे उड़ने में पारंगत हो गए। एक दिन जो वो उड़े तो लौटे नहीं। उन्होंने अब अपना सँसार बसा लिया था। समय बदला। पतझड़ आया। पेड़ ने अपने सारे पत्ते गिरा दीए। खोंसला अब निरापद नहीं रहा था। प्रकृति ने जो सुरक्षा प्रदान की थी वो अब नहीं थी। घोंसला अब खाली हो गया था। जल्द ही पेड़ पर नयी कोपलें आएंगी। एक बार फिर से समय चक्र घूमेगा।पेड़ फिर से हरा भरा हो जाएगा। और खोंसला एक नए जोड़े की प्रतीक्षा में रहेगा।
सोच के देखिए क्या ये लघु कथा मानव जीवन चक्र की कथा तो नहीं!

Sunday, 23 February 2020

बोर्ड के परीक्षार्थियों से।

बोर्ड की परीक्षाएं प्रारंभ हो गई हैं। बच्चों से अधिक उनके माता पिता चिंतित है। बच्चों पर भी ज्यादा से ज्यादा नम्बर लाने का दवाब है। तनाव अपनी चरम सीमा पर है। पर सत्य तो ये है  कि नम्बरों से कुछ नहीं होता। होता वो ही है जो होना है।किन्तु  इसकाअर्थ ये कदापि नहीं कि सब कुछ भाग्य पर छोड़ कर बैठ जाओ। मूल मंत्र है , "करने में सावधान होने में प्रसन्न"। अपनी तरफ से कोई कसर न छोड़ो। पूरी मेहनत से पूरी लगन से कर्म करो। फिर जो भी परिणाम हो उसे प्रसन्नता से स्वीकारो। क्योंकि परिणाम तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम्हारे हाथ में बस कर्म करना है। और याद रखो परीक्षा के नम्बर तुम्हारे  उज्वल भविष्य की गारंटी नहीं हैं। जीवन इन नम्बरों से कहीं बड़ा है। बहुत मूल्यवान है। तुम इस दुनियां में मात्र नम्बर लेने नहीं आये हो। तुम्हारा उद्देश्य इससे कहीं आगे है। जीवन में रोज परीक्षाएं झेलनी हैं। वो परीक्षाएं इससे कहीं ज्यादा कठिन और महत्वपूर्ण हैं। अपना संतुलन बनाये रखो। भरपूर नींद लो। शांत रहो। तुम्हें सब कुछ आता है। बस परीक्षा से पूर्व लगता है कि सब भूल गए। जब प्रश्न पत्र सामने आएगा तो सब याद आ जायेगा। अपना बेस्ट करो। परिणाम की चिंता बिल्कुल न करो। जो होगा तुम्हारे लिए अच्छा ही होगा। जीवन एक गूढ़ पहेली है जिसे वो ही जानता है जिसने इसे दिया है। एक मोड़ पर आ गई रुकावट तुम्हें आगे आने वाले आसन्न खतरे से बचाती है और तुम समझते हो कि ये तुम्हारे रास्ते की बाधा है! तुम एक अलग विशेष रचना हो। तुम औरो जैसे नहीं हो। हो सकते नहीं। उनके जैसा बनने का प्रयत्न छोड़ दो। तुममें जो प्रतिभा है उसे निखारो, सफलता तुम्हारे पीछे आएगी। इन्हीं शुभकामनाओं सहित, 


Saturday, 11 January 2020

शंकर मार्किट

कई दिन से सोच रहा था कि भंडारी होम्योपैथी से दवा लेनी है। मेरे कार्यालय  के पास ले दे कर यही एक होमियोपैथी की दुकान है। पर एक तो शाम की सर्दी, दूसरे शाम को बाहरी कनॉट सर्कल में लगा जाम। जाना ही नहीं हो पा रहा था। आज लंच जल्दी कर के सोचा दवा ले ही आऊं। ड्राइवर नमाज़ अदा करने गया होगा, ये सोच पैदल ही निकल पड़ा। 

हवा में बर्फ सी ठंडक थी पर धूप अच्छी खिली हुई थी। पैंट की जेब में हाथ डाले और कोट के आगे के बटन बंद कर मैं चल पड़ा। बाहर काफी चहल पहल थी। शिवाजी ब्रिज के  स्टेशन के लिए जँहा से अंदर जाना पड़ता है, उसके मुहाने पर कई सारे फल वाले बैठते हैं। मैं इन्हें पिछले 35-40 वर्षों से देख रहा हूँ। उसकी पास दो तीन पपीते वाले खड़े रहते हैं। वो सब आज भी यथा स्थान थे। मुझे लगता है कि ये लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यँहा जमे हुए हैं। लोग बाग कटे पपीते का आनन्द ले रहे थे। उनमें से ज़्यादा बुजुर्ग या फिर अधेड़ उम्र के लोग थे। 

मुझे अपना एक मित्र याद हो आया। हम दोनों अक़्सर दोपहर के भोजन के बाद बाहर आ जाते थे। दूसरी ओर से इसी समय इरवो के कर्मचारी भी आ जाते थे पपीता खाने। इनमें मेरे रेलवे के भी कुछ रिटायर्ड सहयोगी थे। वो जब भी मेरे मित्र को पपीता खाने की दावत देते तो वह कुछ न कुछ बहाना कर टाल जाता। मैंने एक दिन पूछ ही लिया कि आखिर वो पपीता क्यों नहीं खाता। उसका जवाब था कि पपीते के प्रयोग से पौरुष शक्ति कम हो जाती है। ये कह कर वो जोर से हँसा और मैं समझ नहीं पाया कि ये बात उसने हास्य में कही थी या गम्भीरता से। कारण चाहे कुछ भी हो पर पपीता खाने वाले अक्सर बुजुर्ग ही देखे जाते हैं! आज भी वँहा ऐसे ही लोगों का जमघट था। 
मैं आगे बढ़ा तो जर्जर पड़े कैम्पाकोला के प्लांट पर नज़र पड़ी। ये शुरू से ऐसा नहीं था। मैंने इस बॉटलिंग प्लांट को काम करते देखा है। क्या शान थी इस प्लांट की। स्कूली बच्चे ग्रुप में  इसे देखने आते थे। न जाने क्या हुआ कि आज ये वर्षो से बंद पड़ा है। इसके दरवाज़े पर एक गार्ड अवश्य है पर ये पूरी तरह जर्जर हो चुका है। इसके गेट के सामने जो एक पुरानी पत्रिकाओं की दुकान थी, वो अभी भी वंही  है। यँहा से पुरानी पत्रिकाएं सस्ते दामों पर ली जा सकती हैं। वो अलग बात है कि आजकल पत्रिकाएं पढ़ता ही कौन है! इस भीड़ भाड़ से आगे बॉटलिंग प्लांट के सामने खड़ी कारो के कतारों से निकलता हुआ मैं शंकर मार्किट के गलियारे में आ जाता हूँ। यँहा से इरवो ऑफिस जाने के लिए रास्ता शंकर मार्किट के पीछे की ओर जाता है। अच्छी चौड़ी सड़क है। गाड़िया अंदर चली जाती हैं। इसीके कोने में एक महिलाओं के लिए बिंदिया, नेलपॉलिश, बालों के क्लिप और पिन इत्यादि की एक छोटी सा स्टॉल है। कुछ लड़कियां वँहा ख़रीदारी कर रही थीं। साथ में ही सटी हुई एक लेडीज़ पर्स की छोटी सी दुकान भी है। मैं निरुला पनीर की दुकान के सामने से निकला। ये यँहा की बहुत पुरानी पनीर की मशहूर दुकान है। सादे पनीर के साथ आपको जीरा पनीर, नूडल्स, अंकुरित दाल, सोयाबीन चाप, कच्चा मावा और कई प्रकार के मसाले मिल जायेंगे। लेडीज़ सूट और साड़ी की दुकान के आगे तरह तरह के परिधानों से सुस्सजित प्लास्टिक के मॉडल्स खड़े हैं जिन्होंने आधा गलियारा रोक लिया है। उसके आगे टँगी साड़ियों और सूट पीस पर दामों के स्टिकर लगे हैं। नेट की साड़ी 750 रुपये में ली जा सकती है। गलियारे में ही एक शककरकन्दी वाला अपने खोमचे को लिए खड़ा है। हरी हरी कमरख एक ओर सजी है। दो लड़कियां उससे भुनी शकरकन्दी के दोने बनवा रही थी। उसमें वो मसाला बुरक कर नींबू निचोड़ रहा था। मेरे मुंह में पानी आ गया। पर मैं शकरकन्दी नहीं खा सकता। मन मार आगे बढ़ गया। कुछ ही आगे, एक स्टॉल पर गाज़र का गर्म हलवा मिल रहा था। पास ही गर्म मुलायम गुलाब जामुन चाशनी में डूबे थे। कुछ लोग खाने के बाद, मीठे का आनन्द ले रहे थे। मैंने उससे निगाहें हटा लीं। गलियारे के दूसरी और एक औरत, टेबल क्लाथ बेच रही थी। दूसरी और से आती एक अन्य महिला को उसने नमस्ते की और नए वर्ष की शुभकामनाएं दीं। शायद वो वँहा अक्सर आया करती थी। उस महिला ने भी मुस्करा कर अभिवादन स्वीकार किया और आगे बढ़ गई। 

जल्दी में मुझसे टकराते टकराते बची। मुझे ऐसी परिस्थिति से बड़ी घबराहट होती है। यदि कोई महिला जान बूझ कर भी आपसे टकरा जाए तो वह "सॉरी" कह कर निकल सकती है। पर यदि आप कहीं गलती से भी किसी महिला से छू भी जाएं तो बस आपकी फिर खैर नहीं। अतः मैं तो इनसे दो फ़ीट की दूरी ले कर  ही चलता हूँ। मेरा तो मानना है यदि सामने से साँप और महिला दोनों आ रहे हों तो भलाई इसी में है कि महिला से बचें। साँप के काटे का तो इलाज़ है पर यदि महिला ने सड़क पर हंगामा कर दिया तो आपको तो बस साक्षात प्रभु ही बचा सकते हैं।

खैर कुछ आगे पालतू कुत्तों के लिए बर्तन, फूड, उनके लिए घर, सर्दी के कवर आदि की दुकान है। उसके बाहर कुत्तों के बड़े बड़े से पोस्टर लगे हैं। पास ही दो आवारा कुत्ते धूप में सो रहे थे। आस पास की दुनियां से बिल्कुल बेखबर। उनसे कुछ आगे गलियारे की दीवार के सहारे एक भिखारी गन्दे से कम्बल में लिपटा लेटा था। कोई लड़का सामने से दस दस के कुछ नोट गिनता उसकी ओर आता दिखा। नोट देख उस भिखारी की आंखों में चमक आ गई। वो उठ बैठा और उस लड़के से पूछा, "कितने हैं?"  उसका जवाब सुने बिना ही मैं आगे निकल आया। 

शंकर मार्किट का गलियारा यँहा तक ही था। मेरे सामने था, कनॉट प्लेस का बाहरी सर्कल। सामने सड़क पर वाहन भाग रहे थे। मैं दायीं और चल पड़ा। यँहा कुछ खाने की दुकानें हैं जँहा, राज़मा- चावल, कढ़ी-चावल, सरसों का साग-रोटी आदि मिलता है। बहुत से लड़के लड़कियाँ गर्मा गर्म खाने का लुत्फ ले रहे थे। एक ही थाली मैं यँहा आपको, चावल, उसके ऊपर राज़मा या कढ़ी, अचार, पापड़, प्याज़ के लच्छे डाल कर सर्व किया जाता है। गर्मियों में यँहा दही की लस्सी भी खूब बिकती है। कुछ पेड़ के चारो और बने पक्के चबूतरे पर बैठे खा रहे थे तो कुछ सामने रखी गई ऊंची टेबल पर थाली रख खड़े खड़े खा रहे थे। 

मुझे कुछ और आगे जाना था। सर्कल के फुटपाथ पर चलते हुए औटो मोबाईल की दुकानें, तस्वीरों की दुकानें देखता हुआ मैं चलता जा रहा  था। सामने फुटपाथ पर अच्छी खासी भीड़ जमा थी। मुझे लगा कि कोई झगड़ा हो गया है। असल में ये भीड़ 'काके दे होटल' के ठीक सामने उन लोगों की थी जो अंदर जाने के लिए अपनी बारी के इंतज़ार में थे। मुझे मिंटो ब्रिज के सामने वाली सड़क पार करनी थी। मैं हरी बत्ती होने के इंतज़ार में था। मिंटो ब्रिज के ऊपर से कोई रेल धीरे धीरे सरक रही थी। यँहा कभी "लीडो" हुआ करता था जो अपने भद्दे डांस के लिए बदनाम था। बत्ती हरी हो गई थी । मैंने सड़क पार की और जल्द ही मैं भंडारी होम्योपैथी की दुकान  के अंदर था। अपनी दवाइयां ले के मैं पुनः चल पड़ा उसी रास्ते से वापस अपने गंतव्य की ओर। 

शंकर मार्किट नई दिल्ली का एक अलग ही चित्र प्रस्तुत करता है। जँहा भव्यता है तो सादगी भी है। जँहा अमीर दिखते हैं तो भिखारी भी हैं। जँहा हर जेब के लिए बाज़ार है। जिसने वर्षों से कई उतार चढ़ाव झेले हैं। जिन्हें वो ही जान सकते हैं जिन्होंने इस को बदलते हुए देखा है। 

Thursday, 2 January 2020

DNA


The other day, I was watching a program on Discovery Channel, in which some scientists were visiting Siberia in search of DNA of mammoths, which existed on the earth millions of years ago. They found some dung, tusks and other remains of these huge animals that, it is believed, were there millions of years ago.

On returning in the laboratory they tried to extricate DNA of those animals so that they could bring those species to life again. But the DNA was not complete. Some information and pairing etc was missing. This aroused my curiosity to know more about the DNA. How they knew that the DNA was incomplete? How DNA model look like? What is the material that makes a DNA? And how the DNA information could be preserved for millions of years? These are some of the questions that boggled my mind.  I am not a science student and my chemistry was average in my High School. I decided to search the cyberspace and found some information, which was sufficient to quench my thirst. Thought, I should share it if somebody can supplement it. What I learned is as follows;

DNA i.e. deoxyribonucleic acid is the building blocks of a cell. It is also responsible for carrying and retaining the hereditary information in a cell. In Microbial Metabolism, there is a class of macromolecules called nucleic acids. Nucleic acids are made of nucleotides.  And Nucleotides that compose DNA are called deoxyribonucleotides. The deoxyribonucleotide is named according to the nitrogenous bases. The nitrogenous bases adenine (A) and guanine (G) are the purines. The cytosine (C) and thymine (T) are pyrimidines. Purines and Pyrimidines are pure chemistry terms used to define the nitrogenous bases. So there are four   nitrogenous bases called “A”, “G”,”C” & “T”. In 1953- six years before I was born, James Watson and Francis Crick demonstrated that DNA was made up of two strands that are twisted around each other to form a helix. Purines and Pyrimidines make base pair which are made between “A” & “T” and “C” & “G”.  Both are complimentary base pairs meaning thereby that pairing is done between “A” & “T” and “T” & “A” and similarly between “C” & “G” and “G” & “C”. The DNA double helix contains two sequences of nucleotide code letters than run along the molecule. If you open the strands of DNA, there will be two linear sequences of the letters A C G and T. A will always pair with T and C with G.  So if you know the sequence of one strand you can work out the sequence of the other. 
DNA contains the code needed to build and control the cell. A cell makes a duplicate copy of its DNA and in that process DNA replicates. The cell than divides and each resulting cell has a copy of the DNA of its parent cell. So if the scientists have a complete DNA, they through a very complex process, can create the like species. They can also alter the look and other characteristics of the new specie. This is called genetic engineering.

Having come so far, the scientists have started believing that the essence of life can be explained with chemistry and there are no mysterious life forces.

The question is, “Is it so?” Are we nothing but chemistry? This can be true for physical body but what about the subtle body within us? Is it also nothing but chemistry? Who made this chemistry possible? An individual cell cannot function as we do. Who   made these cells join together and form flesh and bone, retina and hair? Who after all?